शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

लाला बन्ना ने दिया ईमानदारी व दिलेरी का सबूत


कहते हैं कि ईमानदारी तभी कायम रहती है, जब कि आदमी दिलेर भी हो। लाला बन्ना के नाम से चर्चित अजमेर नगर परिषद के पूर्व उपसभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत पर यह कहावत चरितार्थ होती है। हाल ही इसका उदाहरण उन्होंने बाकायदा सार्वजनिक रूप से पेश किया है।
वाकया इस प्रकार है कि दैनिक भास्कर के एक कॉलम यादों में छात्र संघ के अंतर्गत लाला बन्ना ने बड़ी ईमानदारी और बेबाकी से स्वीकार किया है कि सन् 1990 के जीसीए छात्रसंघ चुनाव में उन्होंने भारतीय जनता विद्यार्थी मोर्चा के शहर अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे कर स्टूडेंट वेलफेयर ऑर्गेनाइजेशन का गठन किया और उसके बैनर तले ज्योति तंवर को अध्यक्ष पद का चुनाव जितवाया। जो शख्स पिछले विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर से भाजपा का टिकट पाते पाते रह गया हो और वर्तमान में भी प्रबल दावेदार हो, उसका इस प्रकार बिंदास हो कर बयान देना इस अर्थ में तारीफ ए काबिल है कि उन्होंने सच्चाई को छिपाने की बजाय खुल कर स्वीकार किया कि उन्होंने एबीवीपी के प्रत्याशी उमरदान लखावत को हराया, जो कि अजमेर के भीष्म पितामह कहलाने वाले औंकारसिंह लखावत के पुत्र हैं। हालांकि उन्होंने यह कोई रहस्योद्घाटन नहीं किया है। कोई नई बात नहीं कही है। राजनीति के जानकारों को सब पता है, मगर बीस साल बाद, जबकि पूरा परिदृश्य बदल गया है, इसे पूरी ईमानदारी से स्वीकार करना वाकई दिलेरी का जीता जागता नमूना है। इसके विपरीत भाजपा के सभी नेता इस बात को जानते हुए भी सार्वजनिक रूप से इस बारे में चर्चा करने तक से कतराते हैं। इसी मसले को लेकर पिछले दिनों राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र यादव की मौजूदगी में हुए एक जलसे में जब भावनाओं में बह कर विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने लाला बन्ना की तारीफ करते हुए यह सच उगला तो सभी भाजपा नेता भौंचक्के रह गए थे कि वे यह क्या कह रही हैं। बाद में अनिता को भी गलती का अहसास हुआ।
इसी से जुड़ी एक और दिलचस्प बात है। वो ये कि एसडब्ल्यूओ के गठन में लाला बन्ना के कुछ पत्रकार साथियों की भी भूमिका रही थी, जो कि अब प्रतिष्ठित स्थानों पर हैं। मीडिया फ्रेंडली होने की वजह से अनिता भदेल की जुबान से फिसले बयान को अधिकतर अखबारों ने हजम भी कर लिया। अर्थात वे भी इस सच पर पर्दा ही पड़े रहने देना चाहते थे। इसे यूं भी कह सकते हैं कि गढ़े मुर्दे नहीं उखाडऩा चाहते थे।
 इस प्रसंग की छोडिय़े, उस चुनाव में हारने वाले उमरदान लखावत तक ने एक दिन पूर्व ही इसी कॉलम में अपने अनुभव बांटते हुए घटनाक्रम का तो जिक्र किया, मगर सदायश्ता व सावधानी बरतते हुए लाला बन्ना का जिक्र तक नहीं किया। अर्थात वे भी पार्टी मसला होने के कारण इस सच्चाई को कहने का साहस नहीं दिखा सके। कोई भी राजनीतिक व्यक्ति इस प्रकार खुल कर बोलने से बचेगा। ऐसे में यदि लाला बन्ना उस सच को बेकाकी स्वीकार करते हैं तो ये उनकी साफगोई का सबसे बड़ा सबूत है। इसका एक बड़ा फायदा ये होगा कि अब उनका कोई विरोधी इस घटना को भुना नहीं पाएगा। कोई भी व्यक्ति किसी की कमजोरी को तभी भुना सकता है जबकि वह उसको छिपाने की कोशिश करता हो।
आप को याद दिला दें कि पिछले दिनों जब शहर भाजपा युवा मोर्चा के अध्यक्ष पद पर देवेन्द्र सिंह शेखावत की नियुक्ति हुई तो उनके विरोधी खेमे ने एसडब्ल्यूओ के इसी मुद्दे को ही उठा कर उनका कड़ा विरोध किया था। हालांकि बाद में तकरीबन 15-16 साल तक भाजपा को दी गई सेवाओं को ध्यान में रखते हुए पार्टी हाईकमान ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। पार्टी की नजर में भी वह बात आई-गई हो गई है, मगर लाला बन्ना की स्वीकारोक्ति उनका दिल साफ होने का सबूत देती है, जो कि आम तौर पर राजनीतिज्ञों में कम ही नजर आती है। कुछ इसी तरह की साफगोई हाल ही बार अध्यक्ष राजेश टंडन ने भी यह कह कर दिखाई थी कि उनको छात्रसंघ चुनाव में अशोक गहलोत ने हरवाया था। कांग्रेस में रहते हुए अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री के बारे में इतना साफ कहने के लिए भी जिगर चाहिए होता है।
-तेजवानी गिरधर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें