बुधवार, 25 अप्रैल 2018

तिराहे पर खड़े हैं शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी

-तेजवानी गिरधर-
अजमेर उत्तर से लगातार तीन बार जीत चुके शिक्षा राज्यमंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का टिकट यूं तो आगामी विधानसभा चुनाव में कटना कठिन सा प्रतीत होता है, मगर राजनीति के जानकारों का मानना है कि चौथे चुनाव के मौके पर वे तिराहे पर खड़े हैं, जहां उन्हें तय करना होगा कि आगे की राजनीतिक यात्रा किस रास्ते में ले जायी जाए।
तेजवानी गिरधर
जैसा कि सर्वविदित है कि हाल ही संपन्न हुए लोकसभा उपचुनाव में अजमेर संसदीय क्षेत्र की आठों सीटों पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था, उसी कारण संसदीय क्षेत्र के सातों मौजूदा भाजपा विधायकों के टिकट पर तलवार लटक गई है। हालांकि सातों के टिकट काट दिए जाएंगे, ऐसा अनुमान लगाना बेमानी है, मगर इतना तय है कि उपचुनाव के परिणाम के बाद भाजपा मौजूदा विधायकों को टिकट देने से पहले सभी समीकरणों को हर दृष्टिकोण से आंकना चाहेगी। ऐसे में किस का टिकट कटेगा और किस का बचेगा, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जहां तक प्रो. देवनानी का सवाल है तो आम धारणा यही है कि वे येन-केन-प्रकारेण टिकट तो ले ही आएंगे। उसकी अहम वजह है उनकी आरएसएस में गहरी पेठ। राजनीतिक जानकार ये भी मानते हैं कि इस बार टिकट वितरण में आरएसएस का पलड़ा भारी रहेगा, ऐसे वे कोई जुगाड़ बैठा ही लेंगे। वैसे भी भाजपा की आरएसएस लॉबी के जो प्रथम दस भाजपा नेता हैं, उनमें देवनानी शामिल हैं। यही वजह है कि उनकी टिकट कटना मुश्किल होगा। बात अगर उनके टिकट कटने की है तो उसकी बड़ी वजह ये है कि स्थानीय स्तर पर भाजपा की एक बड़ी लॉबी उनके खिलाफ है। यूं तो वह लॉबी मूलत: गैर सिंधीवाद की पोषक है, मगर विशेष रूप से उनके निशाने पर देवनानी हैं। यह कह कर कि अब देवनानी का जनाधार नहीं रहा है या उनका जीतना मुश्किल है, वह लॉबी गैर सिंधी को टिकट देने पर दबाव बनाएगी। उसके दबाव के बाद भी यही माना जाता है कि देवनानी का टिकट कटना आसान काम नहीं है। यह बात दीगर है कि वे खुद ही आत्मविश्वास खो दें और पीछे हट जाएं, तो बात अलग है।
जानकारी के अनुसार देवनानी को शिफ्ट करने पर कहीं न कहीं विचार हुआ जरूर है। यही वजह है कि पिछले दिनों भाजपा के अंदरखाने उनको प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाने की चर्चा हुई थी। संभव है कि वसुंधरा उनको यह पद देने पर सहमत नहीं रही हों, मगर खुद देवनानी की रुचि भी इसमें कम ही रही होगा। जाहिर सी बात है कि जो सत्ता का मजा चख चुका हो, वह काहे को संगठन का काम संभालेगा। संभव है कि देवनानी ने हाईकमान के सामने यह तर्क दिया हो कि संघ के शैक्षिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में वे तभी समर्थ होंगे, जबकि वे सत्ता में रहें।
पता चला है कि देवनानी ने राज्यसभा में जाने का भी विकल्प रखा था, मगर राज्य के तीन राज्यसभा सदस्यों के चुनाव का गणित ही ऐसा बैठा कि उनका नंबर नहीं आ पाया। उनका क्या, वसुंधरा की पहली पसंद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी तक को चांस नहीं मिला। राज्यसभा में जाने की देवनानी की मंशा कदाचित इस कारण रही होगी कि केन्द्र में पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवानी को हाशिये पर डाल दिए जाने के बाद एक भी सिंधी भाजपा नेता नहीं है। अगर देवनानी को राज्यसभा में जाने का मौका मिल जाता तो वे उस कमी को पूरा करने की कोशिश कर सकते थे।
हालांकि राजनीति में कभी भी कुछ भी संभव है, मगर फिलहाल देवनानी तिराहे पर तो खड़े हैं। एक मात्र सुरक्षित विकल्प विधानसभा चुनाव लडऩा है, मगर अब वह पहले जैसा आसान नहीं रह गया है। एक तो केन्द्र व राज्य सरकार के खिलाफ एंटी इंकंबेंसी फैक्टर, दूसरा स्थानीय स्तर पर भाजपा के एक धड़े के भितरघात करने की आशंका। इसके अतिरिक्त माना जा रहा है कि इस बार कोई न कोई गैर सिंधी भाजपाई निर्दलीय रूप से मैदान में जरूर उतरेगा, जिसका मकसद खुद जीतना कम, देवनानी को हराना अधिक होगा। ऐसे में चौथी बार भी आत्मविश्वास से भरे देवनानी को बहुत जोर आएगा। अगर आठ माह बाद बनी स्थितियां देवनानी को अनुकूल नहीं लगीं तो संभव है कि वे क्विट कर जाएं और नई राजनीतिक संभावनाएं तलाशने को मजबूर हो जाएं।

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