सोमवार, 27 दिसंबर 2010

क्यों नजर नहीं आई गिरिजाघरों पर नेता मंडली?

ईद के मौके पर ईदगाह के बाहर लाइन लगा कर मुस्लिम भाइयों को बढ़-चढ़ कर मुबारकबाद देने वाले और मुस्लिम दोस्तों के घर जा कर नॉनवेज का लुत्फ उठाने वाले नेता ईसाई समुदाय के सबसे बड़े धार्मिक पर्व क्रिसमस पर गिरिजाघरों पर नजर नहीं आए।
अलबत्ता पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती व दरगाह नाजिम अहमद रजा ने जरूर आगरा गेट स्थित रॉबसन मेमारियल केथेडल चर्च पर जा कर कौमी एकता की मिसाल पेश की, मगर शहर के दीगर नेताओं को ख्याल ही नहीं आया कि ईसाई समुदाय भी कोई अहमियत रखता है। उसकी भी इस शहर को एक कदीमी शहर बनाने में अहम भूमिका रही है।
असल बात तो ये है कि दरगाह और पुष्कर को छोड़ कर अगर अजमेर कुछ है तो उसमें अंग्रेज ईसाई अफसरों का योगदान है। सीपीडब्ल्यूडी, सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ सेकण्डरी एज्युकेशन, कलेक्ट्रेट बिल्डिंग, सेन्ट्रल जेल, पुलिस लाइन, टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज, लोको-केरिज कारखाने, डिविजन रेलवे कार्यालय बिल्डिंग, मार्टिन्डल ब्रिज, सर्किट हाउस, अजमेर रेलवे स्टेशन, क्लॉक टावर, गवर्नमेन्ट हाई स्कूल, सोफिया कॉलेज व स्कूल, मेयो कॉलेज बिल्डिंग, लोको ग्राउण्ड, केरिज ग्राउण्ड, मिशन गल्र्स स्कूल, अजमेर मिलिट्री स्कूल, नसीराबाद छावनी, सिविल लाइंस, तारघर, आर.एम.एस., गांधी भवन, नगर निगम भवन, जी.पी.ओ., विक्टोरिया हॉस्पिटल, मदार सेनीटोरियम, फॉयसागर, भावंता से अजमेर की वाटर सप्लाई, पावर हाउस की स्थापना, रेलवे हॉस्पिटल, दोनों रेलवे बिसिट आदि का निर्माण ब्रिटिश सरकार के ईसाई अधिकारियों के विजन का ही परिणाम था, जिससे अजमेर के विकास की बुनियाद पड़ी। आज अजमेर का जो स्वरूप है, उस पर अंग्रेजों की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। अजमेर में शिक्षा के विकास में जितना आर्य समाज का योगदान है, उससे कहीं अधिक ईसाई मिशनीज की भूमिका है। सच्चाई तो ये है कि ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर पहुंचे अनेक हिंदू व मुसलमानों की शिक्षा में ईसाई मिशनरीज की स्कूलों का रोल रहा है। आज भी हालत ये है कि अधिसंख्य संपन्न घराने अपने बच्चों को ईसाई मिशनरीज में पढ़ाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा देते हैं। मोटा-मोटा चंदा देने तक को राजी रहते हैं। यहां तक कि महान भारतीय संस्कृति के झंडाबरदार और ईसाई मिशनरीज के खिलाफ समय-समय पर आंदोलन छेडऩे वाले नेताओं के बच्चे भी मिशनरी स्कूलों में ही पढ़ते हैं। और तो और कौमी एकता के नाम पर ईसाई फादर्स को साथ लेकर जलसे करने वाले भी क्रिसमस के मौके पर सार्वजनिक रूप से नजर नहीं आए। इनमें से अधिकतर वे हैं जो फादर्स और सिस्टर्स से दोस्ती रखते ही इस कारण हैं, ताकि उनके परिजन व मित्रों को मिशनरी स्कूलों में आसानी से दाखिला मिल जाए। कई नेताओं ने तो एडमिशन की दुकान तक खोल रखी है।
असल में ये सब वोटों का चक्कर है। मुसलमानों के वोट काफी तादाद में हैं, इस कारण उनकी मिजाजपुरसी करनी पड़ती है। कांग्रेसी इस कारण करते हैं क्यों कि उन्हीं के वोट बैंक की बदौलत राज करते हैं और भाजपाई इस उम्मीद में कि कांग्रेस ने नाराज और शॉर्ट कट से आगे आने के इच्छुक मुसलमान उनकी ओर कभी तो आकर्षित होंगे। मगर चूंकि ईसाइयों के वोट ज्यादा नहीं हैं, इस कारण उन्हें नजरअंदाज करने से कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है। बहरहाल, आज जब केवल नोट और वोट का ही जमाना है तो अकेले अपने ईसाई समुदाय की तरफदारी करने से क्या होने वाला है? अपना तो सिर्फ इतना कहना है कि इस शहर को दुनिया में सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल बता कर सीना चौड़ा करना पर्याप्त नहीं है, सांप्रदायिक सौहाद्र्र दिखाना भी चाहिए।

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