शुक्रवार, 25 मार्च 2011

वाकई मीणा बुरे फंसे सीईओ बन कर

होली के मौके पर बुरा न मानने की गुजारिश करते हुए नगर निगम सीईओ को दिया गया शीर्षक च्बुरे फंसे सीईओ बन करज् खरा होता दिखाई दे रहा है। असल में देखा जाए तो वे चारों से ओर से घिर गए हैं, इसी कारण तंग आ कर उनके मुंह से निकल ही गया कि यदि मेरा भी तबादला हुआ तो मैं भी एक घंटे से ज्यादा समय रिलीव होने में नहीं लगाऊंगा।
हालांकि जब मेयर कमल बाकोलिया उन्हें ससम्मान सीईओ बनवा कर लाए तो लगा था कि दोनों के बीच अच्छी ट्यूनिंग रहेगी और इसका फायदा दोनों को मिलेगा। राजनीति के नए खिलाड़ी बाकोलिया को सीईओ की समझदारी काम आएगी और मीणा को भी राजनीतिक संरक्षण मिलने पर काम करने में सुविधा रहेगी। मगर हुआ ठीक इसका उलटा। च्नई नवेली दुल्हन नौ दिन की, खींचतान करके तेरह दिन कीज् वाली कहावत चरितार्थ हो गई। जल्द ही दोनों के बीच ट्यूनिंग बिगड़ गई। यहां तक भी ठीक था, लेकिन शहर के सौभाग्य से अथवा मीणा के दुर्भाग्य से कुछ पार्षद भी ऐसे जागरूक चुन कर आए, जो फुल टाइम पार्षदी कर रहे हैं। ऐसे में पार्षदों व कर्मचारियों के बीच तनातनी की घटनाएं एक के बाद एक होती जा रही हैं। विवाद अमूमन अतिक्रमण हटाने को लेकर हुए हैं। कर्मचारी जहां तेज-तर्रार माने जाने वाले आरएएस मीणा के आदेश पर बेखौफ हो कर कार्यवाही करते हैं तो जनता के वोटों से चुने हुए जनप्रतिनिधियों की भी अपनी प्रतिबद्धताएं हैं। ऐसे में टकराव तो होना ही है। हालात गाली-गलौच तक पहुंचने लगी है। किसी दिन मारपीट हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। मीणा की परेशानी ये है कि वे जिला प्रशासन के कहने पर अतिक्रमण के खिलाफ सख्ती से पेश आते हैं तो एक ओर पार्षदों से खींचतान होती है और दूसरी ओर कर्मचारी अपने काम में बाधा आने की वजह से लामबंद हो जाते हैं। लगातार दो बार ऐसा मौका आ चुका है कि कर्मचारियों ने पार्षदों की सीधी दखलंदाजी के कारण काम करने में असमर्थता जता दी है। यानि एक ओर कर्मचारियों का दबाव है तो दूसरी ओर पार्षदों का। जिला प्रशासन का तो है ही। कुल मिला कर मीणा चारों ओर से घिर गए हैं। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें। मेयर से राजनीतिक संरक्षण की जो उम्मीद थी, वह बेकार गई, ऐसे में रोजमर्रा के काम की जगह माथाफोड़ी को कितने दिन तक झेल पाते हैं, यह तो वक्त ही बताएगा। मगर इतना जरूर है कि मीणा ज्यादा दिन तक यहां रहना पसंद नहीं करेंगे। या तो मेयर व कांग्रेसी पार्षद उनके तबादले की गुजारिश करेंगे या फिर खुद मीणा ही हाथ खड़े कर देंगे। यह स्थिति शहर के लिए तो अच्छी नहीं कही जा सकती। जब मीणा जैसे सुलझे हुए अधिकारी की ही पार नहीं पड़ रही तो निगम का भगवान ही मालिक है। यहां उल्लेखनीय है कि जब बाकोलिया मेयर बन कर आए तो सभी ने सोचा था कि राजीव गांधी की तरह नए होने के कारण कुछ नया कर दिखाएंगे और सोने में सुहागा ये माना गया कि वे मीणा को सीईओ के रूप में ले आए। मगर वह सपना चूर होता दिखाई दे रहा है। इसकी एक अहम वजह ये भी है कि बाकोलिया के कब्जे में अपनी पार्टी के ही पार्षद नहीं आ रहे। अधिकारियों या कर्मचारियों से कोई परेशानी होने पर बाकोलिया को शिकायत करने की बजाय पार्षद खुद की मौके पर निपट लेते हैं। और विवाद बढऩे पर उनके पास शिकायत ले कर आ जाते हैं। जाहिर तौर पर कर्मचारी वर्ग भी लामबंद हो जाता है। अब बताइये, मेयर या सीईओ रोजाना के इन झगड़ों से निपटें या शहर के विकास की सोचें। ऐसे में हो लिया शहर का कल्याण।

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