रविवार, 1 अप्रैल 2012

हमने ही माथे चढ़ाया है प्राइवेट स्कूलों को

सोफिया स्कूल का आरटीई के आदेशों की अवहेलना का मामला अभी ठंडा भी नहीं हुआ कि स्कूल प्रबंधन द्वारा कक्षा पांच की बेबी कंचन माथुर को कक्षा में बोल नहीं पाने की वजह से स्कूल से निकालने की धमकी का मामला सामने आ गया। असल में ये तो चंद मामले हैं जो कि अभिभावकों के हद से ज्यादा परेशान होने पर विशेष परिस्थितियों में उजागर हुए हैं। हकीकत ये है कि अभिभावक कई प्राइवेट स्कूलों में चल रही मनमानी से बेहद परेशान हैं, मगर केवल अपने बच्चों के भविष्य की खातिर मन मसोस कर चुप बैठे हैं।
सवाल ये उठता है कि जब स्कूलों के बारे में सारे कानून-कायदे स्पष्ट हैं तो आखिर किस वजह से प्राइवेट स्कूल मनमानी पर उतारू हैं? इसकी एक मात्र वजह ये है कि अभिभावकों ने ही इनका माथे पर चढ़ा रखा है। अपने बच्चों को अच्छी पढ़ाई करवाने अथवा अपना सोसायटी के सामने स्टेटस जताने की खातिर लोग बच्चों को सरकारी की बजाय महंगी प्राइवेट स्कूलों में प्रवेश दिलवाते हैं। उसके लिए साम, दाम, दंड, भेद, सारे हथकंडे अपनाते हंै। राजनेता से लेकर अफसर और प्रभावशाली से लेकर धनवान लोग अपने बच्चों को इन स्कूलों में पढ़ाने के लिए पूरी ताकत लगा देते हैं। इसी कारण वे स्कूल प्रबंधन से दबे रहते हैं। स्कूल प्रबंधन भी जानता है कि उनकी मनमानी पर अंकुश लगाने की एकाएक किसी में हिम्मत नहीं होगी। बस यही वजह है कि वह निरंकुश हो गया है। यदाकदा कोई मामला गंभीर होने पर ही वास्तविकता उजागर हो पाती है। अधिसंख्य मामले तो दबे ही रहते हैं। प्राइवेट स्कूलों में भी खासकर मिशनरी स्कूलों की दादागिरी कुछ ज्यादा ही है। वहां फीस, चंदे और अन्य मांगों को लेकर अभिभावक बेहद परेशान हैं।
सिक्के का एक पहलु ये भी है कि इन स्कूलों में प्रबंधन कुछ सख्त होने के कारण ही अनुशासन कायम है और बच्चा दबाव में ठीक से पढ़ाई करता है। उसी व्यवस्था को अभिभावक पसंद करते हैं। उनकी पसंद किस हद तक है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो हिंदूवादी मानसिकता के नेता एक ओर मिशनरी स्कूलों का विरोध करते हैं, उनके बच्चे भी इन्हीं स्कूलों में पढ़ रहे हैं। यानि कि आदर्श केवल जुबानी जमा खर्च हैं, धरातल का सच कुछ और ही है। अब चूंकि इन स्कूलों में एडमिशन को लेकर लोग मरे ही जाते हैं, इस कारण स्कूल प्रबंधन के भाव आसमान पर आए हुए हैं और वे निरंकुश हो गए हैं। इसके लिए अभिभावक ही जिम्मेदार हैं। सच तो ये है कि यह बीमारी लाइलाज है। इक्का-दुक्का मामले उजागर होने पर हल्ला होता जरूर है, मगर उसके बाद स्थिति जस की तस हो जाती है। एक कड़वा सच ये है कि जब भी इस प्रकार का कोई मामला सामने आता है, कोई न कोई हंगामा करने को आगे आ जाता है, मगर उसका मकसद स्कूल प्रबंधन पर दबाव डाल कर सुधारना कम, दबाव की राजनीति कर बाद में कुछ एडमिशन करवाना ज्याद होता है। ऐसे में समझा जा सकता है कि ऐसे मामलों का क्या हश्र होता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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