गुरुवार, 27 सितंबर 2012

कप्तान साहब, आपकी पुलिस निकम्मी कैसे होने लगी?

पुलिस अधीक्षक राजेश मीना

इन दिनों आए दिन इस प्रकार की खबरें सुनाई पड़ती हैं कि अजमेर की पुलिस पूरी तरह से असंवेदनशील होने लगी है। जब भी कोई शिकायतकर्ता किसी थाने पर अपनी पीड़ा लेकर जाता है तो उसकी सुनवाई आसानी से नहीं होती। जब उच्चाधिकारियों को शिकायत की जाती है अथवा किसी जनप्रतिनिधि की मदद ली जाती है, तब जा कर मामला दर्ज किया जाता है।
हाल ही इस प्रकार दो घटनाएं सामने आई हैं, जिनमें निचले स्तर पर पुलिस ने सुनवाई नहीं की और पीडि़तों की समस्या का समाधान करने की बजाय उन्हें भगा दिया और बाद में दबाव डालने पर मुकदमा दर्ज हुआ। आपकी पेश एक नजर एक मामला तो ऐसा है, जिसमें पुलिस के निकम्मेपन की वजह से एक महिला ने आत्म ग्लानि में खुदकशी ही कर ली। मामला रामगंज में रहने वाली एक विवाहिता का है, जिसने 14 हजार रुपए का एक मल्टीमिडिया मोबाइल केसरगंज की एक दुकान से खरीदा। दुकान पर काम करने वाले वरुण ने विवाहित को घर जाकर मोबाइल की एप्लीकेशन्स सिखाने के दौरान उससे ज्यादती की कोशिश की। पीडि़ता ने रामगंज पुलिस को शिकायत की तो पुलिस ने बात को गंभीर नहीं माना और पीडि़ता को लौटा दिया। आखिर एएसपी लोकेश सोनवाल से पीडि़ता मिली, तब कहीं जाकर रामगंज थाने में शिकायत दर्ज की गयी। इसी बीच गुरूवार दोपहर विवाहिता ने फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली।
इसी प्रकार एक दलित परिवार के घूघरा गांव निवासी सागर भोपा ने बताया कि 25 सितम्बर को चार मोटर साइकिल सवार युवक उस के सात साल के मासूम बेटे विष्णु को बहला फुसला कर अपनी मोटर साइकिल पर बैठा कर ले गए। इस वारदात को देख रहे उसके दूसरे पुत्र हंसराज ने जब उसे इस बात की जानकारी दी तो उसने तुरंत ही सिविल लाइन पुलिस थाने में शिकायत दर्ज करवाना चाही, लेकिन वहां मौजूद पुलिस कर्मियों ने उसे वहां से भगा दिया।इस मामले में घूघरा सरपंच लखपत राम गुर्जर के नेतृत्व में ग्रामीणों के शिष्टमंडल ने पुलिस अधीक्षक राजेश मीना से मुलाकात की और मुकदमा दर्ज कर अपहृत बालक को बरामद करने की मांग की। मीना के निर्देश पर सिविल लाइन पुलिस ने मामला दर्ज कर जांच शुरू की।
सवाल ये उठता है कि आखिर पुलिस में इस प्रकार की टालमटोल की प्रवृत्ति क्यों पैदा हो रही है? एक समय था जब ज्ञान प्रकाश पिलानिया पुलिस थानों को मंदिर का रूप देना चाहते थे। उनका मानना था कि जिस प्रकार मनुष्य अपना दुखड़ा रोने के लिए भगवान के मंदिर में जाता है, ठीक उसी प्रकार पुलिस थाने पर भी पीडि़त ही दस्तक देता है। उसकी सुनवाई पूरी सहानुभूति के साथ होनी चाहिए, ताकि आम लोगों में पुलिस के प्रति विश्वास कायम हो और पुलिस की बर्बर छवि मिटे। तब वाकई इस दिशा में काम भी हुआ। बाद में पुलिस की अनेकानेक कार्यशालाओं में भी इसी प्रकार सीख पुलिस कर्मियों को देने की बातें होती रही हैं, मगर वे कोरी बातें ही होती प्रतीत होती हैं। धरातल का सच कुछ और ही है।
असल में टालमटोल व लापरवाही की प्रवृत्ति तभी समाप्त होगी, जबकि पीडि़तों को भगाने वालों के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी।
-तेजवानी गिरधर

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