गुरुवार, 20 जनवरी 2011

पहली बार दिखाया व्यापारियों ने जोश

मेडिकल कॉलेज के छात्रों की दादागिरी से परेशान व्यापारियों ने पहली बार विरोध प्रदर्शन कर जोश दिखाया है, वरना अमूमन होता ये है कि किसी मसले पर मेडिकोज हंगामा करते हैं और दुकानदार नुकसान के डर से पंगा मोल नहीं लेते और दुबक कर बैठ जाते हैं। असल में व्यापारी ऐसा जीव है, जो दुकान बंद करके धंधे का नुकसान तो उठा लेता है, मगर विवाद करके दुकान में तोडफ़ोड़ करवाने से घबराता है।
यकीनन मेडिकल कॉलेज के छात्र एक तो युवा हैं और दूसरा संगठित हैं, इस कारण उनमें कुछ ज्यादा ही जोश रहता है। तीसरी सबसे बड़ी बात ये है कि अगर मेडिकोज बिगड़ जाएं तो पास ही स्थित जेएलएन हॉस्पिटल की व्यवस्था भी चौपट हो जाती है। यही वजह है कि जेएलएल मेडिकल कॉलेज के आसपास के दुकानदार उनसे किसी प्रकार का पंगा मोल नहीं लेते। कुछ दुकानदार इस कारण दबे रहते हैं क्योंकि मेडिकोज उनके ग्राहक हैं और वे उन्हीं से कमाते हैं, इस कारण व्यवहार खराब करने की बजाय समझौतावादी रुख अपनाते हैं। वैसे भी पंगा होने के बाद दर्ज मुकदमों से मेडिकोज का भविष्य खराब न हो, इसके मद्देनजर कॉलेज प्रशासन, जिला प्रशासन व पुलिस और पीडि़त पक्ष बाद में विवाद खत्म करने पर जोर देते हैं, इस कारण मेडिकोज में डर कुछ कम ही रहता है और जोश-जोश में एकबारगी तो हंगामा कर ही देते हैं।
इस बार चूंकि एक प्रतिष्ठित व्यवसायी के साथ पंगा हुआ था और मेडिकोज ने उसकी दुकान पर तोडफ़ोड़ कर दी, इस कारण दुकानदार लामबंद हो गए। मेडिकोज ने बजरंगगढ़ चौराहे पर रास्ता जाम किया तो व्यापारियों ने भी मिल कर विरोध में सावित्री कॉलेज तिराहे पर जाम कर दिया। यह तो गनीमत रही कि दोनों ने अलग-अलग स्थानों पर जाम लगाया, वरना उस टकराव को काबू करने में पुलिस के पसीने छूट जाते।
रास्ते को लेकर हुए विवाद पर नजर डाली जाए तो व्यवसायी को अपनी हैसियत का कुछ ज्यादा ही जोम था, इस कारण मेडिकोज की ही ठुकाई कर दी। भला ऐसे में मेडिकोज उसे कैसे बर्दाश्त करते। जिन्हें मारपीट का अधिकार मिला हुआ है, भला वे मार कैसे खा सकते थे, इस कारण उन्होंने व्यवसायी के खिलाफ मुकदमा तो दर्ज करवाया ही, तोडफ़ोड़ भी की। ताजा मामले में पहली गलती व्यवसायी की नजर आती है, मगर उसके बाद मेडिकोज द्वारा मचाये गए उत्पात से उत्पन्न अराजकता को भी कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। इस लिहाज से दुकानदारों का मेडिकोज के खिलाफ लामबंद होने का एक फायदा ये हो सकता है कि भविष्य में मेडिकोज किसी दुकानदार से एकाएक विवाद करने बचेंगे।
लुभावनी बातों में फंस कैसे गई युवती?
हाल ही एक जायरीन युवती की ओर से एक खादिम पर लगाए गए दुष्कर्म और निकाह से मुकरने के आरोप से स्वाभाविक रूप से खादिम के खिलाफ भावना उत्पन्न होती है और युवती के प्रति हमदर्दी का भाव उठता है, मगर सवाल ये उठता है कि युवती खादिम की लुभावनी बातों में फंस कैसे गई? युवती ने जो कहानी बताई है, उससे यह साफ है कि युवती पढ़ी-लिखी और खुद के पैरों पर खड़ी है। पढ़ी-लिखी, समझदार होने के साथ बोल्ड भी है कि अपने अभिभावकों की बजाय सहेलियों के साथ गुडग़ांव से अजमेर आ गई। झुंड के साथ आई, यहां तक भी ठीक था, मगर उसकी सहेलियां चली गईं और वह सात दिन की इबादत के लिए अकेली यहां रुक गई। बस असल कहानी यहीं से शुरू होती है। सवाल ये उठता है कि यदि उसे किसी परेशानी से निजात पानी थी या कोई ख्वाहिश थी तो अपने माता-पिता या परिजन के साथ आने की बजाय सहेलियों के साथ कैसे आ गई? क्या उसके परिजन ने उसे अकेली अजमेर में रह कर इबादत करने की अनुमति दे दी थी? चलो, यदि बोल्ड होने के कारण उसे अनुमति दे भी थी तो जिस मकसद से आई, वही करती, लुभावनी बातों के चक्कर में क्यों पड़ गई? यदि उसके साथ नशीली वस्तु खिला कर धोखे में दुष्कर्म किया गया, तब भी उसने अपने परिजन को क्यों नहीं बताया कि वह फंस गई है और लोक-लाज के डर से निकाह तक को राजी हो गई है? गर्भवती होने पर खादिम व उसके परिजन के मुंह बंद रखने की धमकियां देने और निकाह से मुकरने पर भी अपने परिजन को नहीं बुलाया? और आखिरकार जब खादिम ने उसे दिल्ली जाने वाली ट्रेन में बैठा दिया, तब बैठ गई और मदद के लिए किसी को नहीं बुलाया? ये ऐसे कड़ी दर कड़ी सवाल हैं जो यह जाहिर करते हैं कि युवती नारी स्वातंत्र्य व महिला सशक्तिकरण से पीडि़त है। सारे निर्णय खुद करती है और जब फंस जाती है तो कानून व समाज से गुहार लगाती है। कानून और समाज भी ऐसा है कि ऐसी युवतियों के साथ खड़ा हो जाता है।
ऐसा नहीं कि यह पूरी इबारत युवती के खिलाफ है और खादिम के कथित अपराध को कम करके आंक रही है। अगर खादिम ने ऐसा किया है तो निश्चित रूप से अपराधी है। खादिम का अपराध इस कारण ज्यादा बड़ा है क्यों वह केवल एक कामी पुरुष ही नहीं है, अपितु महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में खिदमत करने वाला है और उससे जायरीन के प्रति पूरी जवाबदेही की उम्मीद की जाती है। उसकी हरकत दरगाह जैसे पाक मुकाम के साथ पूरी कौम की बदनामी का सबब बन रही है।
हालांकि फैसला अब कोर्ट ही करेगा कि कौन सच्चा और कौन झूठा है, मगर इसका फैसला कौन करेगा कि दोषी केवल फंसाने वाला ही क्यों होता है? फंसने वाले के विवेक पर सवाल क्यों खड़ा नहीं किया जाता?

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