मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

मेगा मेडिकल कैंप : पीछे रह गईं बातें

अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के भगीरथी प्रयासों से अजमेर में आयोजित मेगा मेडिकल कैंप संपन्न होने के बाद भी चर्चा का विषय बना हुआ है। लोग उसकी सफलता-असफलता की समीक्षा करने में लगे हैं।
असल में यह कैंप अजमेर के लिए ऐतिहासिक था और ऊंची सोच व तगड़े प्रभाव का परिणाम था। कैंप जिनता बड़ा था, और उसमें जितनी भीड़ उमड़ी, उसे देखते हुए अव्यवस्था तो होनी ही थी, मगर सब संभाल लिया गया। भाजपा ने स्वाभाविक रूप से राजनीतिक धर्म निभाते हुए उसमें रही खामियों की ओर ध्यान आकर्षित किया, मगर वह लकीर पीटने जैसा ही रहा। मोटे तौर पर उनमें दम था, मगर रहा औपचारिक ही। ठीक से गहराई में जा कर कोई एक्सरसाइज नहीं की गई, इस कारण वह बयान भर बन कर रह गया। उसने अपना प्रभाव नहीं छोड़ा।
जितना बड़ा आयोजन था, उतनी ही ऊंची सोच लेकर कैंप पर नजर नहीं रखी गई, इस कारण खामियां ठीक से उजागर नहीं हो पाईं। रहा जहां तक अखबारों का सवाल, जो कि पोस्टमार्टम के मामले में काफी तेज होते हैं, वे भी लगभग चुप ही रहे। कहीं-कहीं ऐसा भी लगा कि महिमामंडन तक करने से नहीं चूके। इसके पीछे वजह ये बताई जा रही है कि उन्हें विज्ञापनों के जरिए इतना खुश कर दिया गया था कि तिल का ताड़ बनाना उन्हें उचित नहीं लगा। लोगों, खासकर भाजपाइयों को इस बात का मलाल रहा कि कैंप में दम घुटने से महिला की मौत होने की खबर दी भी गई तो उभार कर नहीं। यानि कि उनकी दिली इच्छा पूरी नहीं की गई। कदाचित विरोधी इस फिराक में थे कि पत्रकार मेहनत करके कुछ उखाड़ कर लाएंगे तो उससे खेल लेंगे। मगर ऐसा हुआ नहीं, इस कारण उनका विरोध भी मुखर नहीं हो सका। कुछ ने बाकायदा गणितीय गणना कर तर्क दिया कि पंजीयन की संख्या सत्तर हजार बताई जा रही है, जो कि अविश्वनीय प्रतीत होती है, क्योंकि दो दिन में इतने लोगों का पंजीयन संभव ही नहीं हैं।

यदि यह मान भी लिया जाए कि गांवों से जिस तरह से लोग बसों में भर कर लाए गए, उन सभी को वास्तविक मरीज नहीं माना जा सकता, तो भी इतना तय है कि इसका लाभ भरपूर उठाया और आम जनता में कैंप के बारे में कोई गलत धारणा नहीं है। एक सवाल यह भी उठा कि कैंप के लिए इतना पैसा आखिर आया कहां से? किसी के पास इसका पुख्ता जवाब नहीं है। समझा जाता है कि कैंप के लिए अधिकांश पैसा स्पोंसर्स ने ही खर्च किया। ऐसे में अगर यह तर्क दिया जाता है कि उसी पैसे से नेहरू अस्पताल में जरूरी संसाधन जुटाए जा सकते थे, बेमानी है। इसकी वजह ये है कि कोई भी स्पोंसर समाज हित के साथ अपना हित भी देखता है। यदि यही पैसा सरकार ने लगाया होता तो यह सवाल उठाया जा सकता था। वैसे समालोचकों की इस बात में दम जरूर है कि इतने बड़े कैंप से पहले मरीजों को चिन्हित करने का काम बारीकी से और बड़े पैमाने पर किया जाता तो ज्यादा और वास्तविक लोगों को लाभ मिलता। दूसरा ये कि इसका ठीक से फॉलोअप भी होना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में कभी कोई ऐसा आयोजन हो तो उसमें इन बातों को ध्यान दिया जाएगा।


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