शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

अजमेर सेंट्रल जेल बनाम केन्द्रीय अपराध षड्यंत्रालय


सजायाफ्ता बंदी के परिजन से रिश्वत लेने के मामले में अजमेर जेल के तत्कालीन जेलर जगमोहन सिंह को सजा सुनाते हुए न्यायाधीश कमल कुमार बागची ने जेल में व्याप्त अनियमितताओं पर टिप्पणी की कि अजमेर सेंट्रल जेल का नाम बदल कर केन्द्रीय अपराध षड्यंत्रालय रख दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। न्यायाधीश ने इस सिलसिले में संदर्भ देते हुए कहा कि समाचार पत्रों में यह तक उल्लेख आया है कि जेल में मोबाइल, कारतूस व हथियार बरामद हुए हैं और हत्या की सजा काट रहे मुल्जिम ने अजमेर जेल से साजिश रच कर जयपुर में व्यापारी पर जानलेवा हमला करवाया। जेल प्रशासन के लिए इससे शर्मनाक टिप्पणी हो नहीं सकती। अगर इसके बाद भी जेल में मोबाइल, कारतूस, हथियार व मादक पदार्थ मिलने का सिलसिला जारी रहता है तो इसका मतलब ये होगा कि जेल प्रशासन ने हम नहीं सुधरेंगे का प्रण ले रखा है। असल में यह पहला मौका नहीं है कि अजमेर जेल से आपराधिक गतिविधियों के संचालन का जिक्र आया हो। इससे पूर्व भी यह तथ्य खुल कर सामने आया था कि जेल में कैद अनेक अपराधी वहीं से अपनी गेंग का संचालन करते हुए प्रदेशभर में अपराध कारित करवा रहे हैं। इसके लिए बाकायदा जेल से ही मोबाइल का उपयोग करते हैं। कई बार मोबाइल बरामद भी हो चुके हैं। कारतूस व हथियार तक बरामद हुए हैं। जयपुर के टायर व्यवसायी हरमन सिंह पर गोली चलाने की सुपारी अजमेर जेल से ही ली गई। जेल में आरोपी आतिश गर्ग ने मोबाइल से ही पूरी वारदात की मॉनीटरिंग की। जब उसे पता लगा कि उसकी हरकत उजागर हो गई है तो उसने अपना मोबाइल जलाने की कोशिश की, जिसे जेल अधिकारियों ने बरामद भी किया। इससे पहले जेल में कैदियों ने जब मोबाइल के जरिए फेसबुक पर फोटो लगाए तो भी यह मुद्दा उठा था कि लाख दावों के बाद भी जेल में अपराधियों के मोबाइल का उपयोग करने पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकी है। अहम सवाल ये है कि आखिर जेलों में कैदियों के पास मोबाइल व हथियार आ कैसे जाते हैं? और अगर उनकी बरामदगी होने पर संबंधित अपराधी पर कार्यवाही होती है तो उसके साथ ही संबंधित दोषी जेल कर्मचारी के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज क्यों नहीं होता। सीधी सी बात है कि जेल से अपराध का संचालन होता है तो जितना दोषी अपराधी है, उतना ही जेल प्रशासन भी। ऐसे में जेल प्रशासन के खिलाफ भी आपराधिक मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए, क्योंकि उसकी लापरवाही और मिलीभगत से ही यह संभव हो पाता है। सवाल उठता है कि क्या जब भी जांच के दौरान किसी कैदी के पास मोबाइल मिला है तो उस मामले में इस बात की जांच की गई है कि आखिर किस जेल कर्मचारी की लापरवाही या मिलीभगत से मोबाइल कैदी तक पहुंचा है? क्या ऐसे कर्मचारियों को कभी दंडित किया गया है? कदाचित इसका जवाब फौरी विभागीय कार्यवाही करने के रूप में हो सकता है, मगर उसके बाद भी यदि यह गोरखधंधा जारी है तो इसका सीधा सा जवाब ये है कि जेल के कर्मचारियों की मिलीभगत से ही ऐसा हो रहा है। इससे यह भी साफ है कि सरकार भी इस मामले में गंभीर नहीं है। जेल के कर्मचारी अपराधियों से मिलीभगत करते हैं, मगर सरकार उनके खिलाफ कभी प्रभावी कार्यवाही नहीं कर पाई, इसी का परिणाम है कि जेल कर्मचारियों के हौसले इतने बुलंद हैं। अफसोसनाक है कि स्वयं जेल राज्य मंत्री रामकिशोर सैनी ने भी स्वीकार किया कि जेल में कैदी मोबाइल का उपयोग कर रहे हैं और उस पर अंकुश के लिए प्रदेश की प्रमुख जेलों में जैमर लगाए जाएंगे, मगर आज तक कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हो पाई है। जेल मंत्री का जेलों में जैमर लगवाए जाने की बात से स्पष्ट है कि वे अपराधियों के पास मोबाइल पहुंचने को रोकने में नाकाम रहने को स्वयं स्वीकार कर रहे हैं। उन्हें अपने जेल कर्मचारियों पर भरोसा ही नहीं है। एक अर्थ में तो वे यह स्वीकार कर ही रहे हैं कि जेल कर्मचारी अपराधियों से मिलीभगत करने से बाज नहीं आएंगे। सवाल ये है कि यदि जेल कर्मचारी इतने ही बेखौफ हैं तो सरकार यदि जैमर लगा भी देगी तो क्या वे जरूरत पडऩे पर जैमर निष्क्रिय नहीं कर देंगे। तब जेल मंत्री क्या करेंगे? इस न्यूज आइटम के साथ ऊपर दिया गया चित्र पूर्व जेल अधीक्षक प्रीता भार्गव का है, जिनके सामने जेल से बरामद मोबाइल पड़े हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें