रविवार, 12 फ़रवरी 2012

मेगा मेडिकल कैंप : जितने मुंह, उतनी बातें

अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के प्रयासों से अजमेर में आयोजित मेगा मेडिकल कैंप इन दिनों सर्वाधिक चर्चा का विषय बना हुआ है। मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना। जितने मुंह, उतनी बातें।
जाहिर तौर पर यह कैंप अजमेर के लिए ऐतिहासिक है। इतने बड़े पैमाने पर न तो आज तक ऐसा कैंप लगा और न ही किसी ने कल्पना तक की। पायलट ने न केवल कल्पना की, अपितु उसे साकार तक किया। सब जानते हैं कि पायलट न केवल केन्द्र सरकार में राज्य मंत्री हैं, अपितु कांग्रेस हाईकमान के काफी नजदीक भी हैं। उनका प्रभाव जयपुर से लेकर दिल्ली तक है। और यही वजह है कि जब उन्होंने ऐसे विशाल कैंप को आयोजित करने की पहल की तो राज्य सरकार की ओर से भी उनको पूरी तवज्जो मिली। पूरे संसदीय क्षेत्र का कांग्रेस कार्यकर्ता तो इससे जुड़ा ही, आम लोगों ने भी उसका लाभ उठाया। पायलट की इस प्रयास की जगह-जगह जम कर तारीफ हो रही है। और इसकी वजह ये है कि न तो उनसे किसी ने ऐसी अपेक्षा की थी और न ही किसी की कल्पना की सीमा तक सोचा जा सकता था। हमारा अनुभव तो ये था कि अजमेर का सांसद या तो आचार्य भगवान देव व विष्णु मोदी की तरह या तो जीतने के बाद दिल्ली जा कर बस जाता है, या फिर प्रो. रासासिंह रावत की तरह सदैव अजमेर में सहज सुलभ उपलब्ध तो रहता है, मगर कुछ कर नहीं पाता। राजनीति से परे हट कर बात की जाए तो ऐसे सांसदों की तुलना में बेशक पायलट उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं।
यह तो हुआ सिक्के का एक पहलु। ऐसे भी लोग हैं, जो इसमें भी मीनमेख निकाल रहे हैं। या तो उनको मीनमेख निकालने की बीमारी है, या फिर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की वजह से। अमूमन हर मुद्दे पर बयान देने के आदी अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी तो इस बार चुप रहे, मगर अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने इस रूप में टीका टिप्पणी की कि भारी धनराशि खर्च करके इतना बड़ा कैंप लगाने की बजाय जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में कोई स्थाई कार्य किया जाता तो बेहतर रहता, जिसका कि आम लोगों को लंबे अरसे तक लाभ मिलता रहता। उनकी बात में कुछ दम तो है। संभाग के सबसे बड़े नेहरू अस्पताल में आज भी अति विशिष्ट चिकित्सा सेवाएं मौजूद नहीं हैं। उन पर ध्यान दिया ही जाना चाहिए। चौपालों पर भी यह चर्चा है कि वाकई जितना धन इस कैंप पर खर्च हो रहा है, उतने में तो कीमती से कीमती मशीनें नेहरू अस्पताल में लगाई जा सकती थीं। कुछ लोग ऐसे हैं जो केवल इसी पर ध्यान दे रहे हैं कि पैसा कैसे पानी की तरह बहाया जा रहा है। कुछ लोग कैंप में हो रही अव्यवस्थाओं को ही चिन्हित करने का काम कर रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह कैंप आम लोगों को कितना लाभ देगा, पता नहीं, मगर पायलट की वाहवाही ज्यादा होगी। अर्थात इसे वे वोट बढ़ाने का जतन भी मान रहे हैं। साथ ही ऐसे भी हैं जो कैंप के नकारात्मक पहलु पर ही नजर रखने वालों को ताना मारते हैं कि आपका तो हाजमा ही खराब है। रासा सिंह जैसे पांच बार रास आते हैं, मगर पायलट जैसा दिग्गज एक बार भी हजम नहीं होता। ऐसा ही होता है। सोच नकारात्मक हो तो उम्मीद से ज्यादा मिले तो वह भी पसंद नहीं आता। कोई सांसद कुछ न करे तो भी बुरा और काई कुछ करे तो उसमें भी बुराई ही नजर आती है। पायलट कुछ कर तो रहे हैं। कुछ इसी प्रकार के वाकये पर शायद यह कहावत बनी होगी-मुर्गी की जान गई और मियां जी को शिकायत है कि गर्दन टेढ़ी कटी है।
उधर समालोचकों का कहना है कि इतने बड़े कैंप से पहले मरीजों को चिन्हित करने का काम बारीकी से और बड़े पैमाने पर किया जाना चाहिए था। हालांकि कांग्रेस के कार्यकर्ता गांव-ढ़ाणी से मरीजों को लेकर आए हैं, मगर में चूंकि उनमें प्रोफेशनल एफिशियंसी नहीं है, इस कारण वास्तविक मरीजों की संख्या कम और घूमने आने वालों की संख्या ज्यादा रही। यदि यह काम चिकित्सा महकमे को ही पूरी तरह से सौंपा जाता तो कहीं बेहतर रहता। इसके अतिरिक्त जटिल रोगों से पीडि़त मरीजों की विभिन्न जाचें पहले ही करवा ली जानी चाहिए थी, ताकि विशेषज्ञों को उसका उपचार पर ही ध्यान केन्द्रित करना होता। एक शंका ये भी है कि दो दिन के कैंप में क्या-क्या किया जा सकता है। जटिल रोगों के मरीजों को तो कैंप के बाद उन्हीं विशेषज्ञों से संपर्क करना होगा, जो कि भारी राशि वसूलेंगे। अर्थात इससे विशेषज्ञों का ही लाभ ज्यादा होगा क्योंकि उनका क्लाइंटेज बढ़ेगा। शंका ये भी रही कि इस कैंप के बाद यदि उसका फॉलोअप ठीक से नहीं किया गया तो पूरी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। कुल मिल का जितने मुंह, उतनी बातें। पायलट की पहल पर हुए इस ऐतिहासिक शिविर की चर्चा कई दिनों तक रहेगी।

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