सोमवार, 25 जून 2012

क्या पुलिस की मिलीभगत से हो रही हैं चोरियां, लूट व ठगी?

चोरी की कोई वारदात होती है तो स्वाभाविक रूप से सभी अखबारों में यही सुर्खियां होती हैं कि पुलिस नकारा हो गई है, पुलिस सुस्त, चोरी सुस्त, पुलिस का मुखबिर तंत्र नाकामयाब हो गया है, पुलिस अपराधियों से मिली हुई है, इत्यादि इत्यादि। आखिर माजरा क्या है? क्या वाकई इसके लिए पूरी तरह से पुलिस ही जिम्मेदार है या फिर लुटेरे पुलिस से ज्यादा शातिर हैं? या फिर निचले स्तर पर अपराधी पुलिस कर्मियों से मिले हुए हैं?
यदि पुलिस की मानें तो यह बात आसानी से गले उतर जाती है कि जब लुटेरे सक्रिय हैं तो आखिर क्यों महिलाएं सोने के गहने पहन कर निकलती हैं, क्या एक-एक महिला के साथ एक-एक पुलिस कर्मचारी तैनात किया जाए? इसी प्रकार जब महिलाओं व वृद्धों को बेवकूफ बना की लुटेरे या ठग अपने काम को अंजाम देते हैं तो भी पुलिस का यह तर्क होता है कि वे लालच में आ कर बेवकूफ बनते ही क्यों हैं, क्या एक-एक घर में पुलिस तैनात की जाए? बात तो बिलकुल ठीक ही है। मगर तस्वीर का दूसरा पहलु कुछ और ही बयां करता है।
अचानक किसी बाहरी गिरोह के सक्रिय होने की बात अलहदा है, मगर असल में पुलिस का ताना-बाना और बीट प्रणाली बनाई ही इस प्रकार गई है कि हर थाने व चौकी के पुलिस कर्मियों को अपने-अपने इलाके में सक्रिय बदमाशों की पूरी जानकारी होती है। पुलिस को पता होता है या पता होना ही चाहिए कि वारदात किसने अंजाम दी होगी। वह चाहे तो तुरंत संबंधित अपराधी तक पहुंच सकती है। पहुंचती भी है। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे कि चोरी अगर किसी प्रभावशाली के यहां हुई तो चोर पकड़ा ही जाता है। वजह क्या है? वजह ये है कि पुलिस उस मामले में अपने तंत्र को वाकई सख्ती से अंजाम देती है और चोर तक पहुंच जाती है और माल की बरामदगी भी हो जाती है। अर्थात अगर पुलिस चाहे तो कम से कम लूट व चोरी की वारदातों पर तो काबू पा ही सकती है। अगर इच्छाशक्ति हो। मगर एक के बाद एक वारदातें होने और उनका खुलासा न होने से यह साफ है कि पुलिस तंत्र विफल हो चुका है। चाहे इसके लिए उसके मुखबिर तंत्र की विफलता को कारण माना जाए अथवा निचले स्तर पर अपराधियों की पुलिस कर्मियों से मिलीभगत को, इन दोनों कारणों के बिना इस प्रकार की वारदातें हो ही नहीं सकतीं।
आम तौर पर यही कहा जाता है कि पुलिस का खौफ समाप्त हो गया है, इसी कारण चोर-उचक्के मुस्तैद हैं। इसमें काफी हद तक सच्चाई है। असल में अपराधियों में खौफ तभी खत्म होता है, जबकि वे निचले स्तर पर मिलीभगत करके चलते हैं। ऐसा तभी होता है, जबकि निचले स्तर पर कांस्टेबल अपराधियों के लिए मुखबिरी का काम करते हैं। यही कारण है कि कई बार वांटेड अपराधियों की तलाशी सरगरमी से करने की दुहाई दी जाती है, मगर निचले स्तर अपराधियों को दबिश की पूर्व सूचना होने के कारण वे भाग जाते हैं। अर्थात यदि यह कहा जाए कि पुलिस की मिलीभगत से ही चोरी और लूट होती है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालांकि इसका मतलब ये नहीं कि पुलिस लूट, ठगी या चोरी करवाने में सहयोगी होती है या वही करवाती है, मगर यह जरूर सच है कि अपराधी निचले स्तर पर पुलिस वालों को संतुष्ट किए रहते हैं, इस कारण पुलिस अफसरों को अपराधियों तक पहुंचने में सफलता नहीं मिलती। अब सवाल ये उठता है कि निचले स्तर पर एक कांस्टेबल इस प्रकार मिलीभगत करने का साहस कैसे कर लेता है, उसका जवाब है कि जब वह देखता है कि उसका अफसर ही तोड़-बट्टे करता है तो वह क्यों न करे। हर कोई अपने अपने पद और कद के मुताबिक फायदा उठाता ही है।
इसी संदर्भ में अगर हम हाल ही गिरफ्तार आईएएस अजय सिंह की बात करें तो उनके सारे मातहतों को पता होगा कि अजय सिंह कहां-कहां तोड़बट्टा कर रहे हैं, मगर चूंकि वे अधीनस्थ होते हैं और पुलिस में कथित रूप से अनुशासन है, इस कारण वे कुछ बोल नहीं पाते। ऐसे में वे भी मौके का फायदा उठाते हैं और निचले स्तर पर छोटी-मोटी बदमाशी करते रहते हैं। अजय सिंह के प्रकरण में तो बड़ अफसरों तक को पता था, मगर वे शायद पाप का घड़ा भरने का इंतजार कर रहे थे। यानि कि यह साफ है कि पुलिस के अफसर यदि वाकई सख्त हों तो क्या मजाल है कि उनके मातहत बेईमानी करें या अपराधियों की क्या मजाल कि इस प्रकार बेखौफ एक के बाद एक वारदातें करते रहें।
यूं तो हाल ही चेन स्नेचिंग व ठगी की एकाधिक वारदातें हुई हैं और इसकी वजह से पुलिस को शर्मिंदगी झेलनी पड़ रही है, मगर गत दिवस जब फर्जी पुलिस बनकर शातिरों ने एक सीनियर आरएस अफसर की वृद्ध मां को ही लूट लिया तो मीडिया ने पुलिस की जम कर मजम्मत की।
जिस प्रकार लगातार ऐसी वारदातें होती जा रही हैं और उन पर काबू नहीं पाया जा पा रहा है, इससे तो यही प्रतीत होता है कि पुलिस केवल बेईमानी कर रही है और अपराध पर अंकुश की उसकी इच्छाशक्ति कम होती जा रही है। एक दूसरी वजह भी समझ में आती है। वो ये कि पिछले दो माह में हुए एक दर्जन से ज्यादा वारदातों में शातिरों ने अमूमन वृद्धों को ही शिकार बनाया है, यानि कि शातिर अपराधियों का कोई गिरोह सक्रिय है, जिसने कि आदर्शनगर, रामगंज, क्रिश्चियन गंज और सिविल लाइंस इलाकों को अपना वारदात स्थल बना रखा है। अगर कोई नया गिरोह भी है तब भी उसे पकडऩे की जिम्मेदारी पुलिस की ही है। हमारे पुलिस कप्तान राजेश मीणा को इसका अहसास होगा ही। अगर अब भी पुलिस ने मुस्तैदी दिखा कर इन वारदातों पर काबू नहीं पाया तो आमजन का पुलिस पर से विश्वास खत्म हो जाएगा, जिसके लिए पुलिस कप्तान मीणा सहित पूरा बेड़ा ही जिम्मेदार होगा। वैसे हाल ही अजमेर रेंज के सभी पुलिस अधिकारियों की बैठक के दौरान आईजी अनिल पालिवाल ने सभी थाना अधिकारियों सहित सर्किल आफिसर्स से पुलिस स्टेशनों की कार्य प्रणाली को दुरुस्त करने और मुस्तैद रहने को कहा है। देखते हैं उनके निर्देश का कितना असर होता है।
आखिर में एक बात और। पुलिस की नाकामी एक वजह ये भी मानी जाती है कि आज के दौर में सामान्य कानून-व्यवस्था बनाने से लेकर वीआईपी विजिट, अतिक्रमण हटाने और कोर्ट की बढ़ती पेशियों इत्यादि अनेकानेक कामों के बोझ तले पुलिस पूरी तरह से पिस रही है। पुराने मामलों की जांच पूरी हो ही नहीं पाती कि नई वारदातें हो जाती हैं। जरूरत के मुताबिक नफरी न होने के कारण पुलिस कर्मियों को छुट्टी नहीं मिलती और वे धीरे-धीरे नौकरी के प्रति लापरवाह व उदासीन होते जा रहे हैं। अगर इस प्रकार की मनोवृत्ति बढ़ रही है तो यह बेहद घातक है। इस पर सरकार को गौर करना ही होगा। 

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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