प्रसंगवश बता दें कि सैयद इनायत हुसैन साहब ने दारूल उलूम मोईनिया उस्मानिया से आलिम फाज़िल की डिग्री 7 अगस्त 1924 को हासिल की। उसके बाद हिकमत की तालीम हासिल करने के लिए मुमबा-उत-तिब (तिब्बिया) कॉलेज, लखनऊ गये। वहां से आपसे कामिलुल तिब (हकीम) व जराहत की सनद मार्च 1926 में हासिल की। बाद में अजमेर तशरीफ लाकर खानकाह शरीफ, कमानी गेट के पास अपना दवाखाना खोला। कई मरीज अपनी गुरबत ज़ाहिर कर देते तो आप दवा तक के पैसे न लेकर उसका मुफ्त इलाज कर देते थे। सन् 1947 में देश विभाजन होने पर तत्कालीन दीवान सैयद आले रसूल अली खां के पाकिस्तान चले जाने पर सन् 1948 में दरगाह ख़्वाजा साहब के 34वें दीवान बने और अपने अख्लाक (व्यवहार) से लोगों का दिल जीत लिया। आपके हिन्दुस्तान भर में हज़ारों की तादाद में मुरीद थे। खास तौर से हैदराबाद, बॉम्बे, कोलकाता, कटक आदि में आपने खानकाहें कायम कीं और चिश्तिया सिलसिले को फरोग दिया। सन् 1959 में दिल का दौरा पडऩे से आपका इन्तेकाल हुआ। सोलह खम्बे के पास गुम्बद ख़्वाजा हुसैन अजमेरी में आपका मज़ार है।