मंगलवार, 4 फ़रवरी 2025
जैन संस्कृति का वर्चस्व रहा है प्राचीन अजमेर में
किशनपुरा और नरवर में आज भी खुदाई के दौरान जो ईंट और स्तम्भ निकलते हैं, वे जैन मंदिरों व भवनों के अवशेष जैसे लगते हैं। अजमेर के क्रिश्चियन गंज के आगे जो जैन आचार्यों की छतरियां हैं, उनमें प्राचीनतम छतरी छठी-सातवीं सदी की हैं। इसी भांति वर्तमान दरगाह बाजार क्षेत्र में पांचवीं-छठी सदी के दौरान वीरम जी गोधा ने विशाल जैन मंदिर बनवाया था और उसमें पंच कल्याणक महोत्सव भी सम्पन्न हुआ। इससे भी प्रमाणित होता है कि यहां उस समय जैन संस्कृति विकसित अवस्था में थी। 760 ईस्वी में भट्टारक धर्म कीर्ति के शिष्य आचार्य हेमचन्द्र का यहां निधन हुआ, जिनकी छतरी आज भी विद्यमान है। सन् 776 ईस्वी में पुनरू एक जैन मंदिर का निर्माण एवं पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। इसके 175 वर्ष बाद वीरम जी गोधा ने श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण व पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कराया। यह मंदिर आज भी गोधा गवाड़ी में स्थित है। बारहवीं सदी में ही यह नगर जैन आचार्य जिनदत्त सूरी की कर्मस्थली रहा। उनका देहान्त भी यहीं हुआ और उस स्थान पर आज विख्यात दादाबाड़ी बनी हुई है। इससे पहले का एक दृष्टान्त है कि अजयराज चौहान ने भी पार्श्वनाथ जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया। अजयराज से पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) के समय तक अजमेर, नरायना व पुष्कर में जैन विद्वानों के अनेक शास्रार्थ होते रहने के उल्लेख भी इतिहास में मिलते हैं। यहां भट्टारकों की पीठ भी स्थापित की गई और लगभग पांच सौ वर्ष में इन जैन विद्वानों ने हजारों ग्रंथों की प्रतिलिपि तैयार की तथा नये ग्रन्थ भी लिखे। ऐसे कई ग्रन्थ सरावगी मौहल्ला स्थित बड़े मंदिर में सुरक्षित बताए जाते हैं।
सन् 1160 ईस्वी में राजा विग्रहराज विशालदेव चौहान ने जैन आचार्य धर्मघोष की सलाह पर यहां एकादशी के दिन पशुवध पर रोक लगा दी। ऐसे ही 1164 ईस्वी में आचार्य जिनचन्द्र सूरी ने अपने गुरु आचार्य जिनदत्त सूरी की याद में सुन्दर स्तम्भ बनवाया। तत्पश्चात् 1171 में यहां जैन समाज ने विशाल पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न कराया। इसके बाद पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) का पतन होते ही अजमेर की हालत भी बिगडने लगी। सल्तनत काल के दौरान तो यहां बहुत अधिक अस्थिरता रही। फिर भी भट्टारकों के द्वारा जैन ग्रंथों का कार्य होता रहा। फिर मुगल मराठा काल में यह नगर 30 से भी अधिक युद्धों का साक्षी बना और सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ गया। अंग्रेजों के समय यहां पुनरू जैन मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ और साथ ही साथ जैन संस्कृति को भी विस्तार मिला और अब नारेली गांव में जो ज्ञानोदय तीर्थ विकसित हो रहा है, वह इस शहर में जैन संस्कृति की सनातन विकास परम्परा का ही चरम उत्कर्ष है।
श्रीमती कमला चन्द्र गोकलानी : सिंधी साहित्य जगत में जिनकी धाक है
उनका जन्म 16 जून 1950 को अजमेर में हुआ। उन्होंने एमए-एमएड तक शिक्षा अर्जित की। बाद में राजकीय महाविद्यालय से जून 2010 में पत्रकारिता में डिप्लोमा भी किया। मात्र 18 वर्ष की आयु से अध्यापिका का जीवन आरंभ किया और राजकीय महाविद्यालय में सिंधी विभाग के हैड ऑफ दि डिपार्टमेंट के रूप में 2010 सेवानिवृत्त हुईं। वे मुंबई यूनिवर्सिटी से 1994 में पीएचडी करके भारत की प्रथम सिन्धी लिटिरेचर महिला कहलायीं। सिंधी भाषा के विकास व विस्तार में उनका योगदान हमेशा याद किया जाता रहेगा। उनकी अब तक पचास से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी मूल पुस्तकों का तेलुगू, उर्दू, पंजाबी और हिन्दी में भी अनुवाद हो चुका है। उनके लेख, कहानियां, कविताएं समाचार पत्रों व पत्रिकाओं और साहित्य की पुस्तकों में प्रकाशित होती रहती हैं। भाषा पर अच्छी पकड़ के साथ सुमधुर वाणी से संपन्न श्रीमती गोकलानी अनेकानेक बड़े आयोजनों में मंच संचालन की भूमिका निभाती रही हैं। टीवी व आकाशवाणी में अनेक कार्यक्रम दे चुकी हैं। आपको अनेक बार भारत सरकार द्वारा साहित्य पर पुरस्कार दिए गए हैं, जिनमें एनसीपीएसएल की ओर से दो बार दिए गए राष्ट्रीय अलंकरण शामिल हैं। उनको एनसीपीएसएल की फाउण्डर मेम्बर होने का भी गौरव हासिल है। उनको राष्ट्रीय स्तर का अखिल भारतीय सिंधी बोली अई साहित्य सभा का उच्च पुरस्कार दिया गया है। वे राजस्थान सिंधी अकादमी की पांच बार सदस्य रही हैं। उनको राज्य स्तर पर अनेक बार सम्मानित किया जा चुका है, जिसमें प्रतिष्ठित सामी पुरस्कार शामिल है।