मंगलवार, 10 दिसंबर 2024

इबादत और आरती का संगम: दरगाह बाबा बादामशाह

अजमेर के सोमलपुर गांव के निकट बाबा बादामशाह की दरगाह स्थित है। भारत में सूफी उवैसिया सिलसिले की यह आठवीं दरगाह है। शेष पांच रामपुर में और दो झांसी में हैं। श्वेत संगमरमर से निर्मित यह दरगाह दूर से ताजमहल जैसी लगती है। बाबा बादामशाह की दरगाह में साधनारत जाने-माने लेखक व इतिहासविद् शिव शर्मा बताते हैं कि सामान्य जायरीन के लिए यह आस्था का पर्यटन धाम है। साधकों के लिए रूहानियत का शक्ति केन्द्र है और अध्यात्म विद् यहां विश्व चेतना के संघनित आलोक में प्रणाम करते हैं। इस दरगाह में बाबा साहेब का अतिशय शान्तिदायी मजार है, जहां बैठने पर अलौकिक सुकून मिलता है। पास में ही महफिलखाना है। दालान में एक मस्जिद है। दूसरे कोने में शिव मंदिर है। इस तरह यहां दरगाह में इबादत और आरती का संगम है। इस सर्वधर्म-भाव चेतना का ही असर है कि यहां आने वाले जायरीन में नब्बे फीसदी हिन्दू होते हैं। धर्मान्ध लोगों के लिए यहां पहला आश्चर्य यह है कि यहां गुरु पद पर ब्राह्मण प्रतिष्ठित है। दूसरा अचरज यह है कि दरगाह में शिव मंदिर और तीसरा विस्मय यह कि यहां आने वाले अधिकतर जायरीन हिन्दू समाज के होते हैं। शिवलिंग की पिण्डी स्वयं बाबा बादामशाह साहब लाए थे। 

बाबा बादाम शाह मूलतः उत्तर प्रदेश के गालब गांव (मैनपुरी जिला) के निवासी थे। प्रारब्ध की दिशा और गुरु के आदेश से वे यहां आए। आठ वर्ष तक नागपहाड़ में घोर तपस्या की। फिर फरीदा की बगीची और गढ़ी मालियान में थोड़े-थोड़े समय ठहरकर सोमलपुर आ गए। बाबा साहब 1946 से लेकर फना (देह त्याग) होने तक यानी 1965 तक यहीं रहे। तपस्यारत, ध्यानमग्न, भाव मग्न, परमात्म-प्रेम में निमग्न, जनसेवा में लीन और दीन-हीन के साथी बन कर उन्होंने ही गुरु कृपा से एक सामान्य सांसारिक मनुष्य हरप्रसाद मिश्राजी पर शक्तिपात किया। फलतः मिश्राजी ने गुरुद्वार के दर्शन किए तथा उस रास्ते को जान लिया जो परमात्मा तक जाती है। वे बाबा साहब के खादिम हो गए और गुरुकृपा से उस भक्ति भाव में डूबते चले गए जो जीवात्मा को परमात्मा से मिलाती है। बाबा के खास खादिम हजरत हरप्रसाद मिश्रा उवैसी भारतीय उवैसिया शाखा के नौवें गुरु थे। प्रेम के पथ पर गुरु के ध्यान में मग्न रहने वाले मिश्रा ही बादामशाह उवैसी कलन्दर के उत्तराधिकारी हुए और इस ईदगाह में वे खिदमत कर रहे थे। 

यह दरगाह सूफी चेतना की सादगी का मूर्तरूप है। पहाड़ी शृंखला की अनन्य शातिदायी गोद में बनी हुई यह दरगाह वर्षाकाल में ऐसे लगती है मानो भक्ति-मग्न मेघों से बहते आंसुओं में भीग रही हो और गुरु पूर्णिमा को रात में यहां ऐसा प्रतीत होता है जैसे गुरु का आशीर्वाद चांदनी बनकर यहां जर्रे-जर्रे पर टपक रहका हो। वैसे प्रतिवर्ष रज्जब माह की 29 या 30 तारीख और एक शब्बान को इनका उर्स मनाया जाता है। 26 नवम्बर 1965 शुक्रवार को बाबा साहब फना हुए थे (देहान्त हुआ था)। इस सालाना उर्स में अजमेर के सैकड़ों लोग शामिल होते हैं। उन दिनों यहां भक्ति-भाव, आस्था, कव्वाली, भजन आदि का जो मिलाजुला मंजर बनता है, उसमें डूबने वालों पर मानो खुदा की रहमत का नूर बरसता है।

ऐसा बताया जाता है कि इस सिलसिले के प्रथम सूफी संत का पूरा नाम हजरत उवैस करणी रदीयल्लाह अनही है। बचपन में मां इन्हें उसैस कहती थी और यमन में करण नायक गांव में इनका जन्म हुआ था। इस तरह ये हजरत उवैस करणी नाम से विख्यात हुए। इनके नाम उवैस को अमर रखने के लिए ही इनके सिलसिले का नाम उवैसी रखा गया। इस तरह कुल मिलाकर अजमेर स्थित बाबा बादामशाह उवैसी कलन्दर (कलन्दर यानी वह जो समरस रहता है, स्वयं को व संसार की चिन्ता त्याग कर खुदा की इबादत में लीन रहता है।

दरगाह का निर्माण कार्य अप्रैल 1996 से 1999 तक तीन वर्ष में पूरा हुआ। इसके बाद सन 2005 ई. में महफिलखाने व दरगाह का सौन्दर्यीकरण किया गया। उद्यान विकसित किया गया। सन 2008 में एप्रोच रोड को चौड़ा एवं उसका फिर से डामरीकरण किया गया। दरगाह के मुख्य द्वार से पहले पार्किंग स्थल को भी चौड़ा कराया गया।