शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

धर्मेश जैन देंगे अजमेर को सिटी सेंट्रल मॉल की सौगात

भाजपा नेता श्री धर्मेश जैन देंगे अजमेर को विशाल कमर्शियल कॉम्पलैक्स- सिटी सेंट्रल मॉल की सौगात

अजमेर। वरिष्ठ भाजपा नेता व अजमेर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष रहे स्वप्नदृश्टा श्री धर्मेश जैन का एक और सपना साकार होने की दिशा में कदम रख चुका है। वे अजमेर को विशाल कमर्शियल कॉम्पलैक्स- सिटी सेंट्रल मॉल की सौगात देने वाले हैं। कचहरी रोड पर शहर के पहले कमर्शियल कॉम्पलैक्स स्वामी कॉम्पलैक्स के सामने रेलव बिसिट की भूमि पर इसका शिलान्यास 31 जनवरी, 2025 को युग निर्माण योजना, गायत्री तपोभूमि, मथुरा के श्री मृत्युंजय शर्मा के मुख्य आतिथ्य में किया गया। कॉम्पलैक्स के लिए 1800 वर्ग गज भूमि रेलवे से खुली नीलामी में साठ साल की लीज पर ली गई है।

बेशक यह एक कॉमर्शियल प्रोजेक्ट है, कमाने के लिए खोला गया है, लेकिन महानगरीय संस्कृति की ओर बढ़ रहे स्मार्ट सिटी अजमेर के लिए चार चांद लगाने जैसा है।

श्री धर्मेश जैन के पुत्र और युवा भाजपा नेता अमित जैन, जो कि इस प्रोजेक्ट के डायरेक्टर हैं, ने बताया कि सिटी सेंट्रल मॉल पहला कॉम्पलैक्स है, जिसका रजिस्ट्रेशन राजस्थान रियल एस्टेट रेग्युलेटिरी ऑथोरिटी (रेरा) से करवाया गया। इसके निर्माणाधीन पांच मंजिला विशाल मॉल में लिफ्ट, एक्सिलेटर सहित सभी अत्याधुनिक सुविधाएं होंगी। पूरा कॉम्पलैक्स एयर कंडीशंड होगा। कॉम्पलैक्स के चीफ एक्जीक्यूटिव जयपुर निवासी सिद्धार्थ गुप्ता हैं। यहां ऑफिस व दुकान के लिए बुकिंग करवाने वालों को बैक से ऋण मिल सकेगा।

प्रसंगवश बताना उचित होगा कि श्री धर्मेश जैन ने कोई 48 साल पहले 1974 में देवगढ़ मदारिया से अजमेर आने पर सबसे पहले पृथ्वीराज मार्ग स्थित बिजली के पंखों और सिलाई मशीन का कारोबार शुरू किया। यहां से आरंभ हुआ व्यावसायिक सफर कडी मेहनत और व्यवसायगत चातुर्य के दम पर आज ऐसे मुकाम पर पहुंच चुका हैं, जहां उनका परिवार होटल, कपडा व रियल एस्टेट के क्षेत्र में प्रतिष्ठा अर्जित कर चुका है।

ज्ञातव्य है कि कुछ साल पहले श्री धर्मेश जैन ने अजमेर को एक लाजवाब सौगात दी थी। उन्होंने शहर के हृदय स्थल गांधी भवन के पास रेलवे परिसर में तालेड़ा बिल्डिंग के सबसे ऊपर आठवीं मंजिल अर्थात रूफ टॉप पर स्काई ग्रिल रेस्टोरेंट का शुभारंभ किया। इसकी लोकेशन वाकई सुप्रीम है, जहां से पूरे शहर का विहंगम दृश्य नजर आता है। पूरा शहर, माने पूरा शहर, 360 डिग्री। यह तो हुई उनकी निजी उपलब्धि, जब वे यूआईटी के अध्यक्ष थे, तब भी सार्वजनिक जीवन में उन्होंने कितनी ही ऐतिहासिक सौगातें अजमेर को दीं। वे वास्तव में स्वप्नदृश्टा हैं, जो अजमेर की बहबूदी के लिए अनेक ख्याल अपने जेहन में समेटे हुए हैं।


गुरुवार, 30 जनवरी 2025

रचनात्मक राजनीति के प्रेरणा स्रोत: स्व. श्री रामनिवास मिर्धा

वर्तमान में जबकि हम ऐसे दौर में जी रहे हैं, जिसमें राजनीति भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता व पदलोलुपता के कारण बदनाम हो चली है, ऐसे में सहसा पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वर्गीय श्री रामनिवास मिर्धा का नाम जेहन उभर आता है, जिनका पूरा जीवन सिद्धांतों के लिए समर्पित रहा। वे राजनीति में ईमानदारी और सकारात्मक व रचनात्मकता की सजीव पाठशाला थे। उनकी स्मृति आज भी नई पीढ़ी को राजनीति के जरिए जनसेवा का पाठ पढ़ाती है।

आइये 29 जनवरी को उनकी पुण्य तिथि के मौके पर उनके बारे में कुछ जानेंः-

स्वर्गीय श्री मिर्धा विलक्षण प्रतिभा व व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी गिनती सिद्धांतवादी राजनीतिज्ञों, चिंतकों, दार्शनिकों के रूप में होती है। एक किसान परिवार में जन्म लेने के बाद ईमानदारी व कर्मठता के दम पर उन्होंने लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक अपने बौद्धिक, राजनीतिक व प्रशासनिक कौशल का लोहा मनवाया। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि ये मानी जाती है कि अनेकानेक उच्च पदों पर रहते हुए भी वे सौम्य व शांत स्वभाव के बने रहे और उनका पूरा जीवन निष्कलंक रहा।

उनका जन्म मूल रूप से राजस्थान के नागौर जिले के कुचेरा गांव निवासी जाने-माने किसान नेता श्री बलदेवराम मिर्धा के घर 24 अगस्त, 1924 को बाड़मेर जिले के जसोल गांव में हुआ, जबकि वे पुलिस अधिकारी थे। स्व. श्री मिर्धा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, लखनऊ विश्वविद्यालय और जिनेवा-स्विट्जरलैंड के ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एमए व एलएलबी की उच्च शिक्षा हासिल की। उन्होंने अपना कैरियर राजस्थान प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के रूप में शुरू किया, मगर जल्द ही इस्तीफा दे कर सक्रिय राजनीति में आ गए। वे सन् 1953 से 1967 तक राजस्थान विधानसभा के सदस्य रहे और इस दरम्यान 1954 से 1057 तक कृषि, सिंचाई व यातायात विभाग के मंत्री और 1957 से 1967 तक विधानसभा के अध्यक्ष का महत्वपूर्ण दायित्व निर्वहन किया। इसके बाद 1967 में वे राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए और 1970 से 1980 के दौरान केन्द्र सरकार के मंत्री रहे और विदेश, संचार, कपड़ा, सिंचाई, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण सहित अनेक विभागों के मंत्रालयों का कामकाज देखा। वे 1977 से 1980 तक राज्यसभा के उपसभापति भी रहे। वे 1991 से 1996 तक बाड़मेर से लोकसभा सदस्य भी रहे। वे सिक्यूरिटी व बैंकिंग ट्रांजेक्शन में अनियमितता के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत-अमेरिकी संस्कृति और शिक्षा पर उप आयोग के सह अध्यक्ष के रूप में काम किया और 1993 से 1997 तक यूनेस्को के एक्जीक्यूटिव बोर्ड के सदस्य भी रहे। वे इंडियन हैरिटेज सोसायटी के संस्थापक अध्यक्ष, इंडियन फेडरेशन ऑफ यूएन एसोसिएशन के अध्यक्ष, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के ट्रस्टी और संगीत नाटक अकादमी व ललित कला अकादमी के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने अनेक स्थानों पर नृत्य केन्द्रों की स्थापना करवाई। पैंतीस वर्ष से कम आयु के कलाकारों को युवा पुरस्कार देने की योजना उन्हीं के दिमाग की उपज थी। उन्हीं के कार्यकाल में संगीत नाटक अकादमी की झांकी को गणतंत्र दिवस समारोह में प्रथम पुरस्कार हासिल हुआ। गत 29 जनवरी 2010 को वे इस फानी दुनिया को सदा के लिए अलविदा कर गए।

स्वर्गीय श्री मिर्धा की धर्मपत्नी का नाम श्रीमती इंदिरा मिर्धा था। उनके घर-आंगन में तीन पुत्र व एक पुत्री ने जन्म लिया। उनके एक पुत्र श्री हरेन्द्र मिर्धा वर्तमान में राजस्थान के प्रमुख कांग्रेस नेताओं में शुमार हैं, जिनका विवाह राजस्थान विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष रहे श्री परसराम मदेरणा की पुत्री रतन मिर्धा के साथ हुआ। उन्होंने राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई और 1998 से 2004 तक काबीना मंत्री के रूप में सार्वजनिक निर्माण विभाग का काम देखा। वे वर्तमान में नागौर से कांग्रेस विधायक हैं। उनके एक पुत्र व एक पुत्री हैं। पुत्र श्री रघुवेन्द्र मिर्धा की गिनती उभरते हुए कांग्रेस नेताओं में होती है। नागौर जिले का युर्वा वर्ग उनमें अपना भविष्य तलाशता है।

-तेजवानी गिरधर

7742067000


मंगलवार, 28 जनवरी 2025

एक दूसरे के पर्याय डॉ. रशिका महर्षि - दिलीप महर्षि

एक कहावत है कि हर सफल आदमी की कामयाबी में, उसके वजूद के पीछे औरत का हाथ होता है। यह मीडिया फोरम की उपाध्यक्ष डॉ. रशिका महर्षि के पति स्वर्गीय श्री दिलीप महर्षि पर सटीक बैठती है। कहावत का उलट भी इस दंपति पर फिट बैठता है। डॉ. रशिका महर्षि की सफलता में दिलीप महर्षि के संबल ने ही अपनी भूमिका अदा की है।

दिलीप महर्षि आयुर्वेद विभाग में काम करते थे। स्वाभाविक रूप से नौकरी के अतिरिक्त सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी कम ही नजर आई, मगर सच यह है कि नौकरी से पहले वे अजमेर व पुश्कर के पुराने घरानों से संबंद्ध रहे। शहर की धडकन पर उनकी पकड थी। बिंदास व्यक्तित्व। दंबग पर्सनेलिटी। बडा रुतबा था। सिद्धांत के पक्के। इसी वजह से उनके चेहरे पर दृढता चमकती थी, मगर नारियल की तरह भीतर से कोमल, सहृदय। बहुत सूझबूझ। कूल माइंडेड। विलक्षण व्यक्तित्व। 

चंद साल पहले डॉ. रशिका महर्षि ने पति श्री दिलीप महर्षि को अपनी किडनी दान की थी। और अपना जीवन सार्थक कर लिया। यूं समझें कि दिलीप के शरीर में रशिका की किडनी नहीं, बल्कि उनके प्राण प्रतिस्थापित थे। एक दूसरे के बीच अटूट स्नेह। एक दूसरे के पूरक। बहादुर औरत ने पोस्ट ऑपरेटिव समस्याओं का किस प्रकार हिम्मत से मुकाबला किया, वह सभी शुभचिंतकों के संझान में है। पति की सेवा का अनूठा उदाहरण। साथ में बच्चों की बेहतरीन परवरिश में कोई कमी नहीं। इस शख्सियत का रोचक पहलु ये कि दैनंदिन पारीवारिक व्यस्तताओं के बाद भी सार्वजनिक जीवन में भरपूर सक्रियता उनके अदम्य उत्साह का प्रमाण है। संघर्ष में भी उत्सव तलाशने की अद्भुत कीमिया। ऊर्जा से लबरेज इस महिला से सकारात्मकता की किरणें फूटती हैं। ऐसी सफल नारी का संबल थे दिलीप महर्षि। हर कदम पर उनके साथ खडे नजर आए। पूर्णतः खिले इस पुष्प को जीवनी शक्ति मिलती रही जड में मौजूद दिलीप महर्षि से। अब मलाल सिर्फ इतना कि अपनी किडनी दान देकर जीवन देने के बाद प्रकृति ने दूसरे मार्ग से हठात जीवन छीन लिया। अफसोस। अफसोस इस बात का भी कि पारीवारिक जिम्मेदारियों, व्यस्तताओं के चलते डॉ. रशिका महर्षि में अध्यात्म और पत्रकारिता के क्षेत्र में जिन नए आयामों और उंचाइयों को छूने की संभाव्यता थी, वह भ्रूण अवस्था में ही रह गई। उम्मीद है कि बिंदास रशिका वज्राघात से उबर कर नए प्रतिमान स्थापित करने में कामयाब होंगी।

सोमवार, 27 जनवरी 2025

अजमेर के विकास पर अंग्रेजी हुकूमत की छाप

दरगाह और पुष्कर को छोड़ कर अगर अजमेर कुछ है तो उसमें अंग्रेज अफसरों का योगदान है। सीपीडब्ल्यूडी, सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ सेकंडरी एज्युकेशन, कलेक्ट्रेट बिल्डिंग, सेन्ट्रल जेल, पुलिस लाइन, टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज, लोको-केरिज कारखाने, डिविजन रेलवे कार्यालय बिल्डिंग, मार्टिन्डल ब्रिज, सर्किट हाउस, अजमेर रेलवे स्टेशन, क्लॉक टावर, गवर्नमेन्ट हाई स्कूल, सोफिया कॉलेज व स्कूल, मेयो कॉलेज बिल्डिंग, लोको ग्राउण्ड, केरिज ग्राउण्ड, मिशन गर्ल्स स्कूल, अजमेर मिलिट्री स्कूल, नसीराबाद छावनी, सिविल लाइंस, तारघर, आर.एम.एस., गांधी भवन, नगर निगम भवन, जी.पी.ओ., विक्टोरिया हॉस्पिटल, मदार सेनीटोरियम, फॉयसागर, भावंता से अजमेर की वाटर सप्लाई, पावर हाउस की स्थापना, रेलवे हॉस्पिटल, दोनों रेलवे बिसिट आदि का निर्माण ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों के विजन का ही परिणाम था, जिससे अजमेर के विकास की बुनियाद पड़ी। आज अजमेर का जो स्वरूप है, उस पर अंग्रेजों की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। अजमेर में शिक्षा के विकास में आर्य समाज का महत्वपूर्ण योगदान है, लेकिन ईसाई मिशनीज की भूमिका भी कम नहीं है। सच्चाई तो ये है कि ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर पहुंचे अनेक लोगों की शिक्षा में ईसाई मिशनरीज की स्कूलों का रोल रहा है। आज भी हालत ये है कि अधिसंख्य संपन्न घराने अपने बच्चों को मिशनरीज में पढ़ाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा देते हैं। मोटा-मोटा चंदा देने तक को राजी रहते हैं। यहां तक कि महान भारतीय संस्कृति के झंडाबरदार और मिशनरीज के खिलाफ समय-समय पर आंदोलन छेडने वाले नेताओं के बच्चे भी मिशनरी स्कूलों में ही पढ़ते हैं।


रविवार, 26 जनवरी 2025

जाने-माने फोटो जर्नलिस्ट श्री मोती माखीजा नहीं रहे

चंद दिन पहले अजमेर ने सुपरिचित वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट श्री महेश नटराज उर्फ महेश मूलचंदानी को खोया है। इहलोक से उनकी विदाई की पीडा अभी ताजा है कि एक और जाने-माने वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट श्री मोती नीलम उर्फ मोती माखीजा हमको अलविदा कह गए। वे सोनी जी की नसिंया से नया बाजार जाने वाले रास्ते पर नीलम स्टूडियो के नाम से व्यवसाय करते थे, इसी कारण उन्हें लोग मोती नीलम के नाम से जानते थे। अस्सी-नब्बे के दशक में उनका नाम अजमेर के टॉप के फोटो जर्नलिस्ट्स में हुआ करती थी। उस दौर में शायद की कोई ऐसा ईवेंट हो, जो उन्होंने कवर नहीं किया हो। लंबे समय तक दैनिक नवज्योति से जुडे रहे। उन्होंने अपने करियर में कई ऐतिहासिक और यादगार क्षणों को अपने कैमरे में कैद किया। उनकी खींची हुई तस्वीरें न केवल समाचारों की गहराई को दर्शाती थीं, बल्कि समाज के संवेदनशील मुद्दों को भी उजागर करती थीं। पिछले कुछ सालों से अस्वस्थ थे। श्री मोती माखीजा का निधन फोटोग्राफी और पत्रकारिता जगत के लिए एक बड़ी क्षति है। उनका योगदान फोटोजर्नलिज्म के क्षेत्र में हमेशा याद किया जाएगा। उनके ही पदचिन्हों पर चलते हुए उनके सुपुत्र श्री जय माखीजा ने आज फोटो जर्नलिस्म के क्षेत्र में खासा नाम कमाया है। वे राजस्थान पत्रिका से जुडे हुए हैं। अजमेरवासी उन्हें आए दिन फेसबुक लाइव पर देखते रहते हैं। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनके उज्ज्वल जीवन की कामना करता है। स्वर्गीय श्री मोती नीलम के निधन से जो स्थान रिक्त हुआ है, उसकी पूर्ति असंभव है। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।


मंगलवार, 21 जनवरी 2025

अजयपाल जोगी, काया राख निरोगी

अनेक इतिहासकार मानते हैं कि अजमेर के प्रथम शासक अजयराज ही अजयपाल जोगी थे, जिनके नाम लेने मात्र से लोग स्वस्थ हो जाया करते थे। प्रसंगवश बाबा अजयपाल के बारे में और अधिक जानकारी भी ले लें।

अजयपाल बाबा का स्थान फॉयसागर से छह किलोमीटर दूर अजयसर गांव में है। इतिहासविद श्री शिव शर्मा के अनुसार विख्यात पत्रिका कल्याण् (सन् 1967) में पृ. 387 पर उल्लेख मिलता है कि पुष्कर में सृष्टि यज्ञ के समय प्रजापति ब्रह्मा ने भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए चार शिवलिंग स्थापित किए थे। उनमें एक अजगंध महादेव यहां प्रतिष्ठित किया था। संभवत इस अज नाम से ही अजयसर गांव बसाया गया। अब इस शिवलिंग का कोई अवशेष नहीं मिलता है। बारहवीं सदी में चौहान राजा अर्णाेराज ने यहां जो शिव मंदिर बनवाया, वह आज भी विद्यमान है। बाद में यह स्थान अजयपाल बाबा के नाम से विख्यात हुआ। गांव के लोग बताते हैं कि सपादलक्ष के राजा अजयपाल चौहान ने छठी सदी में बीठली पहाड़ी (अजयमेरू) पर एक सैनिक चौकी स्थापित की और अजयसर गांव बसाया। अपनी वृद्धावस्था में यह राजा सन्यासी के रूप में इसी स्थान पर रहा। वह तपस्या के बल पर सिद्ध जोगी हो गया था और इसीलिए अजयपाल बाबा कहा जाने लगा। किंतु कुछ इतिहासकार इस मान्यता को गलत मानते हैं क्योंकि उस समय तक नाथ पंथ का आरंभ नहीं हुआ था। बारहवीं सदी में मच्छेन्द्र नाथ (मत्स्येन्द्र) ने इस साधना पद्धति का आरंभ किया था। इसके बाद ही यह स्थान नाथ बाबा या नाथ जोगियों के साधना स्थल के रूप में विख्यात हुआ होगा। चौहान राजा अजयराज द्वितीय का समय बारहवीं सदी था वह भी आयु के अंतिम प्रहर में सन्यासी हो गया था। लेकिन हो सकता है कि वह यहां इस घाटी में रहा हो और उसी के नाम पर यह स्थान विख्यात हो गया हो। उधर अजमेर का गुर्जर समाज का मानना है कि अजैपाल गुर्जर जाति का एक सिद्ध पुरुष था। वह पक्का शिवभक्त एवं नाथ पंथ में दीक्षित था। उसके पास उच्च कोटि की तांत्रित सिद्धियां थीं। वह बकरी चराया करता था। उसके तपोबल से ही यह घाटी साधना स्थली बनी और उसी के नाम पर विख्यात हुई। इस संदर्भ में कहावत भी प्रचलित है- अजयपाल जोगी, काया राखे निरोगी। मुस्लिम समाज में इसी जोगी को अब्दुल्ला बियाबानी, भूखे को रोटी, प्यासे को पानी कहा गया है। इस अजयपाल बाबा की यहां एक सोटाधारी प्रतिमा है। प्रतिवर्ष भाद्रपद माह में दूसरे पखवाड़े के छठे दिन यहां बाबा का मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर से कनफटे जोगी आते हैं। 

अजयसर में बाबा अजयपाल के सिर की समाधि स्थापित है और धड़ की समाधि गुजरात के भुज कच्छ जिले के अंजार में स्थित है। अजयसर पर मुसलमानों की विशाल सेना का आक्रमण होने पर अजयपाल ने देखा कि संख्या बल ज्यादा होने से बचना मुश्किल है, तब विर्धमी के हाथों मरने के बजाय उन्होंने अपने हाथों अपना ही सिर काटकर आक्रमणकारियों पर हमला किया। बिना सिर के अजयपाल को लड़ते देखकर मुस्लिम सेना भाग खड़ी हुई। भागती सेना का पीछा करते हुए अजयपाल अंजार तक जा पहुंचे, जहां उनका धड़ निष्प्राण होकर गिर पड़ा। अंजार में बाबा अजयपाल का समाधि स्थल बना हुआ है।

अजयपाल बाबा की आध्यात्मिक शक्ति को व्यक्त करने वाली एक लोककथा बहुत प्रचलित है। रावण के सिपाही उनसे कर मांगने आए। उन्होंने सैनिकों को कहा- रावण की लंका का नक्शा इस जमीन की मिट्टी पर बनाओ। सैनिकों ने वैसा ही किया। तब बाबा ने उंगली से लंका के महल का एक कंगूरा मिटा दिया और उधर वास्तव में ही लंका में रावण के महल का एक कंगूरा टूट गया था। सैनिक उनका रूहानी रूप देखकर डर गए और यहां से लौट गए। इस लोककथा की सच्चाई कुछ और ही है- अजमेर के चौहान राजा सोमेश्वर ने लंकेश की उपाधि धारण की थी और उसके साथ अजयपाल जोगी की तकरार हो गई थी। उसका अहंकार दूर करने के लिए बाबा ने अपनी रूहानी ताकत के सहारे तारागढ़ का एक कंगूरा तोड़ दिया था। यह जोगी ख्वाजा साहब का भी समकालीन था। इस प्रसंग से संकेत मिलता है कि यह स्थान शक्ति साधना का केन्द्र भी था।

-तेजवाणी गिरधर 774206700


रविवार, 19 जनवरी 2025

हर्षित हाडा राजस्थान हाईकोर्ट की ओर से सम्मानित

अजमेर निवासी सिविल जज श्री हर्षित हाडा को जोधपुर में अधिकतम प्रकरणों के निस्तारण के लिए राजस्थान हाईकोर्ट ने सर्टिफिकेट दे कर सम्मानित किया है। वे अजमेर जिला परिषद के जिला समन्वयक के रूप में कार्यरत श्रीमती चांदनी हाडा व सुपरिचित एडवोकेट व पत्रकार स्वर्गीय श्री राजेन्द्र हाडा के सुपुत्र हैं। पिताश्री का साया उठने के बाद उन्होंने माताश्री की छत्रछाया में कठिन मेहनत करते हुए सिविल जज की परीक्षा में सफलता हासिल की थी। कम उम्र में ही उन्होंने समाज, परिवार व अजमेर का नाम रोशन किया है। अफसोस कि आज हाडा जी अपनी संतान की कामयाबी के मंजर को देखने को मौजूद नहीं हैं। प्रसंगवश यह बताना उचित होगा कि हर्षित पूर्व शहर भाजपा अध्यक्ष डॉ प्रियशील हाडा व अजमेर नगर निगम की मेयर ब्रजलता हाडा के भतीजे हैं।

अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उन्हें हार्दिक बधाई देता है।


सिंधु रत्न श्री जोधाराम टेकचंदाणी का देहावसान

अजमेर ने सुपरिचित कांग्रेस व सिंधी नेता श्री जोधाराम टेकचंदाणी को खो दिया है। 19 जनवरी 2025 को उनका देहावसान हो गया। वे 1979 से लम्बे समय तक शहर जिला कांग्रेस में उपाध्यक्ष रहे। वे भूतपूर्व विधायक स्वर्गीय श्री नानकराम जगतराय के प्रमुख सहयोगी थे। वे दरगाह बाजार व्यापारिक संगठन के 20 वर्श तक निर्विरोध अध्यक्ष रहे। बाद में उन्होंने संरक्षक का दायित्व निभाया। इस दौरान उन्होंने व्यापारियों के हित में अनेक कार्य किए। प्रशासन भी उन्हें पूरी तवज्जो देता था। सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए उनके कार्य सदैव याद किए जाते रहेंगे। शांति समिति की बैठकों में महत्वर्पूण भूमिका अदा की। उर्स मेलों में खुद्दाम हजरात के साथ मिल कर जायरीन की सुविधा के लिए काम करते थे। वे स्वभाव से अत्यंत सजह व सरल थे। मगर साथ ही जुझारू भी थे। उनकी गिनती सिंधी समाज के प्रमुख नेताओं में होती थी। उनकी उल्लेखनीय सेवाओं को देखते हुए उन्हें सिंधी समाज महासमिति की ओर से चेटीचंड के मौके पर सिंधु रत्न अवार्ड से सम्मानित किया गया। 74 वर्ष की उम्र तक भी वे लगातार सक्रिय रहे और समाज की हर गतिविधि में भाग लेते थे। अजमेर के झूलेलाल धाम व भीलवाडा के हरिशेवा धाम से उनका गहरा लगाव रहा। उनका जन्म 18 मार्च 1948 को हुआ। हायर सेकंडरी की शिक्षा 1965 में जवाहर स्कूल से ली। 1968 से 1994 तक सीआरपीएफ में रहते हुये देश के अनेक स्थानों पर सेवाएं दी। 1979 में दरगाह बाजार में दुकान लेकर फोटोग्राफी व वीडियोग्राफी का कार्य आरंभ किया। उनका विवाह 29 मई 1972 को हुआ। उनके निधन से अजमेर को जो क्षति हुई है, उसकी पूर्ति असंभव है। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनके निधन पर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

शनिवार, 18 जनवरी 2025

बुराई हर जगह है, छोड़ कर कहां जाओगे?

एक बार की बात है। तब दैनिक न्याय के प्रकाशक व संपादक स्वर्गीय बाबा श्री विश्वदेव शर्मा अजमेर में थे। बाद में वे अहमदाबाद शिफ्ट हो गए। न्याय में एक प्रूफ रीडर थे। नाम भूल गया। शायद सरनेम मिश्रा था। निहायत सज्जन। निहायत सज्जन माने वाकई निहायत सज्जन। एकदम सीधे। सरल। अल्लाह की गाय समान। बिलकुल शुद्ध हिंदी में बात करते थे। बहुत मीठा बोलते थे। धीरे से बात करते थे। प्रूफ रीडिंग का काम रात में होता था। तब लेटर टाइप से कंपोजिंग हुआ करती थी। स्वाभाविक रूप से उनका कंपोजीटरर्स से वास्ता पड़ता था। हालांकि कंपोजीटर्स उनसे अच्छे से बात करते थे, लेकिन आपस में गाली गलौच में ही बतियाते थे। जैसा कि आम बोलचाल में गालियां बकी जाती हैं, उनका उपयोग किया करते थे। उनकी अश्लील बातें उन सज्जन मिश्राा जी को बहुत इरीटेट किया करती थी। वे बहुत परेशान रहते थे। नौकरी छोडने का ही मन बना लिया। आखिरकार एक दिन तंग आ कर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। बाबा ने उनको बुलाया। पूछा कि क्या तकलीफ है। वे बोले कंपोजीटर गंदी भाषा में बात करते हैं। बाबा ने पूछा कि क्या आपसे बदतमीजी करते हैं तो वे बोले नहीं। इस पर बाबा ने कहा कि तो फिर आपको क्या परेशानी है? उन्होंने कहा कि कंपोजीटर्स की आपस की गाली-गलौच की बातचीत उनको पसंद नहीं। बाबा ने समझाया कि वे आपस में ही तो गालियां बकते हैं, आपको तो कुछ कहते नहीं, फिर काहे को परेशान होते हो। इस पर उन सज्जन ने कहा कि वे ऐसे माहौल में काम नहीं कर सकते। तब बाबा ने उनको जो जवाब दिया, वह मेरे इस राइट अप का मूल सूत्र है।

बाबा ने अपने जीवन का सार बताते हुए समझाया कि बेटा दुनिया तो बुरी ही है। हर जगह बुरे लोग हैं। हर जगह कोई न कोई समस्या है। ऐसी कोई जगह नहीं, जहां समस्या नहीं। यहां से छोडोगे और दूसरी जगह जाओगे तो वहां भी कोई ने कोई समस्या होगी। बस समस्या का रूप बदल जाएगा। किसी भी जगह बिलकुल आपके अनुकूल माहौल नहीं मिलेगा। इस दुनिया में जीना है तो समझौते करने ही होंगे। आप तो अपने काम से काम रखो। दूसरे क्या करते हैं, इस पर ध्यान मत दो। आप तो सज्जन बने रहो ना, कौन रोक रहा है आपको सज्जन बने रहने से? बाबा ने बहुत समझाया, मगर वे इस्तीफा देने पर अड़ ही गए। नौकरी छोड़ कर ही माने।

खैर, इस प्रसंग से बाबा की अनुभव सिद्ध बात मेरे मन में घर कर गई। वाकई चारों ओर बेईमानी है, चालाकी है, स्वार्थपरता है, उसे ठीक करना हमारे बस की बात नहीं। ठीक करना हमारा ठेका भी नहीं। कितनों को ठीक कर लोगे। उलटे खुद की खराब हो जाओगे। बेहतर ये है कि केवल अपने आप को देखो। स्वांतः सुखाय जीयो। आपको जैसा उचित लगता है, वैसा आचरण करो, दुनिया को छोड़ हो अपने हाल पर। उस पर अपना दिमाग अप्लाई मत करो। खुद की सज्जनता से वास्ता रखो, दूसरे की दुर्जनता से क्या लेना देना। अपने मन को शांत रखो। मन चंगा तो कठौती में गंगा। अगर दुनिया की आपाधापी से टकराओगे तो तनाव ही मिलेगा। वाकई ये कहावत सही है कि जो सुख चावे जीव को तो भौंदू बन कर रह।

-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 16 जनवरी 2025

अजमेर में भी होता था मुजरा

हमने पुरानी फिल्मों में मुजरा देखा है। विरले ही होंगे, जिन्होंने मुजरा साक्षात देखा हो। मगर अजमेर में दाई किस्म के लोगों को ही पता है कि हमारे यहां भी किसी जमाने में मुजरा हुआ करता था। बताया जाता है कि स्टेशन रोड पर रेलवे गोदाम के सामने एक बिल्डिंग की दूसरी मंजिल पर मुजरा हुआ करता था। वहां शहर के कथित रूप से संभ्रांत लोग जमा हुआ करते थे। एक बार किसी विवाद के चलते गोली चल गई और उसके बाद मुजरा सदा के लिए बंद हो गया। बताया जाता है कि इस मामले की पूरी जानकारी कुछ लोगों को है, मगर उन्होंने उसे कभी उजागर नहीं किया। बताते हैं कि मार्टिंडल ब्रिज की श्रीनगर रोड वाली भुजा के नीचे एक भवन में भी मुजरा हुआ करता था। इसके अतिरिक्त कुछ निजी कार्यक्रमों में भी मुजरा व केबरे डांस होने की जानकारी है।


बुधवार, 15 जनवरी 2025

ईमानदार पत्रकारिता के प्रति पूर्ण समर्पण ने क्या सिला दिया फोटो जर्नलिस्ट महेश नटराज को?

ईमानदार पत्रकारिता को पूर्ण समर्पित सुपरिचित फोटो जर्नलिस्ट स्वर्गीय श्री महेश नटराज का जीवन जिन हालात में कटा और बीमारी के कारण मृत्यु जिस तरह से हुई, उसने पत्रकारों के लिए यक्ष प्रश्न खडा कर दिया है। असल में अधिसंख्य फोटो जर्नलिस्ट व इलैक्ट्रोनिक मीडिया के रिपोर्टर्स ऐसे हैं, जिनका राज्य सरकार की ओर से अधिस्वीकरण नहीं किया हुआ है। न तो उन्हें राज्य सरकार की ओर से रियायती दर पर भूखंड मिल पाया है और न ही निःशुल्क यात्रा सुविधा का लाभ मिल रहा है। जाहिर तौर पर साठ साल से अधिक होने पर उन्हें पत्रकार सम्मान निधि भी नहीं मिल पाती। वे बहुत सीमित पारिश्रमिक में ही आजीविका चला रहे हैं। कम तनख्वाह में परिवार का भरण पोशण कर रहे हैं। यदि वे पत्रकारिता के अतिरिक्त आय का कोई और जरिया न अपनाएं तो जीवन बहुत कठिन हो जाता है। यानि पत्रकारिता पर पूरी निर्भरता जीवन को नर्क बना देती है। इसे मौजूदा पत्रकार साथियों व इस क्षेत्र में करियर तलाशने के इच्छुक युवाओं को समझना होगा। बेशक पत्रकारिता अतिरिक्त सम्मान दिलवाती है, मगर पेट तो रोटी से ही भरेगा ना। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे कि जिन पत्रकारों ने पत्रकारिता के साथ कुछ न कुछ और किया, वे सफल जीवन जी लिए। बाकी के पत्रकारों की स्थिति स्वर्गीय श्री नटराज जैसी है, जिनका पत्रकारिता के प्रति पूर्ण समर्पण बहुत कष्टप्रद हो रहा है। हालांकि उन्होंने बाद में कुछ और काम की तलाश की, मगर तब बहुत देर हो चुकी थी। अर्थात पत्रकारिता के आरंभ के साथ ही समानांतर रूप आय का कोई जरिया अपनाना चाहिए। श्री नटराज ने अतिरिक्त मेहनत कर पारिवारिक दायित्व का बखूबी निर्वहन किया। परिवार उनकी छत्रछाया में सुखी रहा, मगर बीमारी की वजह से वे संकट में ही रहे। खुदा न खास्ता ऐसा हमारे अन्य पत्रकार साथियों के साथ भी घटित हो सकता है।

जहां तक सरकार की ओर से मदद की उम्मीद है, वह बेमानी है। वह सिर्फ इतना कर सकती है कि न्यूनतम पारिश्रमिक तय कर उसकी सख्ती से पालना करवाए। पत्रकार साथियों को चाहिए कि वे एकजुट हो कर पत्रकार कल्याण कोष बनाना बनाएं, ताकि जब भी किसी के साथ बीमारी आदि का बुरा समय आए, या अकस्मात निधन हो तो उस कोष से सहायता दी जा सके। हमारी सोसायटी बहुत संवेदनशील है। पूरी उम्मीद की जा सकती है कि वह ऐसे कोष के लिए मुक्तहस्त सहयोग करेगी।

स्वर्गीय श्री नटराज सुपरिचित थे। उनके निधन का समाचार फेसबुक पर प्रकाशित हुआ तो हजारों शुभचिंतकों ने संवेदना व्यक्त की। इससे उनकी प्रतिष्ठा का अनुमान लगता है, मगर उस प्रतिष्ठा के नीचे दफन आर्थिक संघर्ष का क्या किसी को ख्याल है? जो सोसायटी आज उनके प्रति सम्मान व्यक्त कर रही है, क्या वह उन जैसे पत्रकारों की बहबूदी के लिए कुछ विचार करेगी?


मंगलवार, 14 जनवरी 2025

पान नहीं खाए अब सैंया हमार ..

मुस्लिम समुदाय में पान खाने का शौक अन्य वर्ग के मुकाबले कुछ ज्यादा रहा है। तीस चालीस साल पहले मुस्लिमों के लगभग सभी घरों में पानदान हुआ करते थे। आज की युवा पीढ़ी शायद पानदान नहीं जानती होगी। घर की बड़ी, बुजुर्ग महिलाओं के पास पानदान हुआ करता था। बैठक में कोई मेहमान आता तो पुरुष आवाज़ लगाकर मेहमान के लिए पान भिजवाने को कहा करते थे। सत्तर के दशक तक घर आने जाने वालों को चाय नहीं बल्कि पान खिलाना मेहमाननवाजी मानी जाती थी। आशिक मिजाज़ लोग अपनी प्रेमिका को सुगंधित मीठा पान भेजा करते थे। प्रेमिकाओं का रुठना पान के स्वाद पर निर्भर करता था। पान खाए सैंया हमारो.. , खई के पान बनारस वाला जैसे बहुचर्चित फिल्मी गीत पुराने दौर में पान खाने के शौक को ही उजागर करते हैं। दरअसल पान स्वस्थ्यवर्धक व पेट की कई बिमारियों के लिए बहुत लाभकारी है। अजमेर के परकोटे में पान के शौकीनों के लिए पान की दुकानें सामाजिक राजनीतिक चर्चाओं का केन्द्र भी हुआ करती थीं। अजमेर में क्लॉक टॉवर क्षेत्र में पानों के दरीबा, उसके सामने इंडिया पान हाउस, नला बाज़ार में चौरासिया पान हाउस, लंगरखाना गली के नुक्कड़ पर रियाज़ पान वाले, फूल गली के नुक्कड़ पर, लंगरखाना दरगाह गेट के पास दिलदार पान हाउस, बिस्मिल्ला होटल के सामने लंगरखाना गली में, छतरीगेट के सामने, डोली वाले चौक में निसार पान वाले, पन्नीग्राम चौक में, अन्दरकोट में अनवार पान वाले, त्रिपोलिया गेट के पास लद्दा पान वाले, उसके आगे बिन्देसरी पान वाले, दीवान साहब की हवेली के सामने अजमेर पान हाउस के रईस पान वाले बहुत मशहूर पान की दुकानें रही हैं जिनमें अब अधिकतर बंद हो गई हैं क्योंकि पान के शौकीन लोग नहीं रहे। दरगाह के मात्र आधे किलोमीटर के दायरे में दर्जन भर पान की दुकानें थीं जो उस समय खूब चला करती थीं। जिस तरह आज बाजार में अपने मिलने वालों को लोग चाय पिलाते हैं पहले पान खिलाया करते थे। दरगाह क्षेत्र की घनी आबादी में पान खाने के शौकीन रात को खाना खाने के बाद टहलने निकलते पान की दुकान पर दोस्त मिल जाते थे। किसी को मद्रासी पान पसंद आता तो किसी को देसी तो कोई बनारसी पान की गिलौरी बनवाता। कोई किमाम के साथ तो कोई जर्दा तो कोई मीठा पान पसंद करता। अगर पान की दुकान के बाहर दो तीन स्टूलें होतीं तो वहीं दोस्तों के साथ महफिल जमा लेते। पनवाड़ी भी मजे ले लेकर उनसे बतियाते, शेरो-शायरी या राजनीतिक चर्चा छिड़ जाती तो लंबी चलती, इस बीच कभी आस पास कहीं चाय की दुकान होती तो चाय का भी दौर चलता। कई शौकीन पान के साथ विल्स सिगरेट के हल्के हल्के कश लेते जाते और महफिल शबाब पर पहुंचती जाती। कहने को तो आज भी शहर में क्लॉक टावर के पास इंडिया पान हाउस, रेल्वे माल गोदाम के पास और वैशाली नगर में गुप्ता पान हाउस पर पान खूब बिकते हैं, कई शादी समारोह में पान की स्टॉल भी लगती है लेकिन वहां पुरानी पीढ़ी के लोग या मीठा पान पसंद करने वाले बच्चे या कुछ महिलाओं को ही देखा जा सकता है। 

- मुज़फ्फर अली

सोमवार, 13 जनवरी 2025

बेहतरीन फोटो जर्नलिस्ट महेश मूलचंदानी नटराज नहीं रहे

अजमेर के सुपरिचित फोटो जर्नलिस्ट महेश मूलचंदानी, जिन्हें महेश नटराज के नाम से भी जाना जाता है, का निधन हो गया। उनकी पहचान एक उत्कृष्ट फोटो जर्नलिस्ट के रूप में थी, जिन्होंने अपने करियर में कई महत्वपूर्ण क्षणों को कैमरे में कैद किया। महेश मूलचंदानी नटराज ने फोटोग्राफी के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई और कई दशकों तक मीडिया जगत में सक्रिय रहे। शायद ही कोई ऐसा महत्वपूर्ण ईवेंट हो, जिसे उन्होंने कवर न किया हो। राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर चुके फोटो जर्नलिस्ट श्री दीपक शर्मा उन्हें आपना गुरू मानते थे और गुरू पूर्णिमा पर उनका अभिनंदन किया करते थे। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि महेश नटराज फोटोग्राफी के कितने बारीक जानकार थे। वे लंबे समय तक नटराज स्टूडियो से जुडे रहे और श्री इन्द्र चेनानी उर्फ इन्द्र नटराज के मार्गदर्शन में काम करते रहे। बाद में स्वतंत्र रूप से फोटो जर्नलिस्म करने लगे। उन्होंने लगभग सभी अखबारों के लिए फोटो खींचे। जीवन के आखिरी कुछ सालों से अस्वस्थ थे, मगर लगातार सक्रिय बने रहे। चंद माह पहले ही उन्हें पेरेलेटिक अटैक आया था, उसके बाद भी मजबूत इच्छाशक्ति के दम पर उससे उबरने में कामयाब हो गए और फिर काम आरंभ कर दिया। सामाजिक कार्यक्रमों में भी बढ चढ कर हिस्सा लिया करते थे। वे अपने पीछे मां, पत्नी व तीन पुत्रियां छोड गए हैं।

उनके निधन से पत्रकारिता और फोटोग्राफी क्षेत्र में शोक की लहर है। उनका योगदान हमेशा याद किया जाएगा। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें और उनके परिवार को इस कठिन समय में सहनशक्ति दें। बेशक पत्रकार जगत व स्वयंसेवी संस्थाओं ने उनका सहयोग किया, मगर आजीविका के लिए उन्होंने जो कडा संघर्ष किया, उसकी पीढा सिर्फ वे ही जानते होंगे। ऐसे कलाधर्मी का निधन फोटो जर्नलिस्म में करियर तलाशने वालों के लिए एक सबक है। ऐसे कलासेवी के परिवार को संबल देने के लिए पत्रकार संगठनों व सामाजिक संस्थाओं को आगे आना चाहिए।

उपेक्षा की शिकार सोनीजी की नसियां

अजमेर के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में सोनीजी की नसियां का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है। मगर ऐतिहासिक व धार्मिक महत्व वाले इस धर्मस्थल को पर्यटन की दृष्टि से विकसित किए जाने पर सरकार की ओर से कोई प्रयास नहीं किए गए हैं। नसियां के प्रधान श्री प्रमोद सोनी ने बताया कि अजमेर के सभी धर्मस्थलों में सबसे ज्यादा उपेक्षा का शिकार अगर है तो वो है सोनीजी की नसियां। सरकार ने उसके आसपास मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं करा रखी हैं। रेंगता यातायात, टूटी फूटी सड़क, गंदी नालियों का बहता पानी, पार्किंग की समस्या और कोढ़ में खाज का काम करने वाला एलिवेटेड रोड, जिसने इस विश्व स्तरीय स्माराक को पूरी तरह छुपा लिया है। 

इतनी विपरीत परिस्थियों के बाद भी यहां हजारों देशी व विदेशी पर्यटक आते हैं और यहां की विश्व स्तरीय बेजोड़ स्वर्ण कारीगरी, चित्रकारी, बेल्जियम व ठीकरी कांच के काम की बारीकी और सुंदरता देख कर दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। अधिकतर पर्यटकों का कहना रहता है कि हमें इस जगह की जानकारी किसी ने दी थी, इसे न देखते तो अजमेर आना सफल नहीं होता। हम अब अपने मिलने वालों को इस जगह को देखने भेजेंगे। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि बहुत से अजमेर वासियों ने ही इसे नहीं देखा है। पर्यटन विभाग को इस स्थान के विकास और पर्यटन की संभावनाओं को देखते हुए उचित कदम उठाना चाहिए।

ज्ञातव्य है कि लाल पत्थरों से बनी ऊंचे शिखरों वाली यह इमारत जैन तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का मंदिर है। इसका निर्माण राय बहादुर सेठ मूलचंद सोनी ने 1864-65 में करवाया। सन् 1885 में इसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित करवाई। यह दो मंजिला इमारत सुंदर रंगों से पुती हुई है। इसके प्रांगण में 26 मीटर ऊंचा धवल मानस्तम्भ दर्शनीय है। पीछे की ओर पर्यटकों के लिए बने दो मंजिला भवन में जैन तीर्थंकरों के कल्याणक, तेरह द्वीप, सुमेरू पर्वत, भगवान की जन्म स्थली - अयोध्या नगरी आदि की सुंदर रचना शोभायमान है। यह संपूर्ण रचना स्वर्णखचित वर्काे से ढकी है। इसे ‘स्वर्ण नगरी‘ भी कहते है। यहॉं दीवारों व छत पर की गई पच्चीकारी व कॉंच का कार्य भी दर्शनीय है। इसे लाल मंदिर, सोने का मंदिर व कांच का मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

-तेजवानी गिरधर 7742067000

शनिवार, 11 जनवरी 2025

अजमेर में धार्मिक पर्यटन की अपार संभावना

तीर्थराज पुष्कर व दरगाह ख्वाजा साहब के कारण यहां देश-विदेश से पर्यटकों, जिन्हें श्रद्धालु कहना अधिक उपयुक्त रहेगा, की आवक रहती है। दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र नारेली और सांई बाबा मंदिर भी तीर्थ यात्रियों को आकर्षित करते हैं। विश्व के पर्यटन मानचित्र पर अजमेर का नाम तो अंकित है, लेकिन पर्यटकों को बड़े पैमाने पर आकर्षित करने के लिए मूलभूत सुविधाएं जुटाने की दिशा में आज तक सोचा ही नहीं गया। यहां आने पर पर्यटक कम से कम एक रात रुके, इसके लिए जरूरी है कि उसको दिखाने लायक खूबसूरत स्थान हों और रहने व खाने की समुचित सुविधाएं हों। 

आनासागर बहुत सुरम्य झील है, लेकिन वह अरसे से उपेक्षा का शिकार है। झील की दुर्दशा देख कर तो रोना आता है। कभी यह नियमित सफाई के अभाव में बदबू मारती है तो कभी जलकुंभी अपने पांव पसार लेती है। झील के किनारे सेवन वंडर्स पर्यटकों को आकर्षित करने की दिशा में एक अच्छा कदम है, वहां जायरीन की आवक देखी जा सकती है। यह बात अलग है कि उसे आनासागर की जमीन को पाट कर बनाने के कारण वह विवाद में है और उसे तोडने के आदेश हो रखे हैं। 

आनासागर से भी अधिक आकर्षक है तारागढ़, मगर उसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। वहां आमतौर पर दरगाह जियारत को आने वाले जायरीन ही आते हैं, जब कि वह बहुत खूबसूरत पर्यटन स्थल बनाया जा सकता है। सच तो यह है कि अनेक अजमेर वासियों तक नहीं देखा होगा। वह ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। तारागढ संपर्क सडक पर सम्राट पृथ्वीराज चौहान स्मारक बना तो दिया गया, मगर उसे देखने इक्का दुक्का लोग ही जाते हैं। साल में दो बार जरूर वहां कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जिनमें आयोजकों को ही भीड जुटानी होती है। तारागढ पर यदि भोजन व ठहरने की पर्याप्त सुविधाएं हों तो पर्यटक उस सुरम्य दर्शनीय स्थल को देखे बिना नहीं लौटेगा। कम से कम एक दिन तो बिताना चाहेगा। तारागढ़ से ढ़ाई दिन के झौंपड़े तक रोप-वे बनाने से भी पर्यटक आकर्षित हो सकता है। पिछली कांग्रेस सरकार के दौरान राजस्थान पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष धर्मेन्द्र सिंह राठौड ने तारागढ पर स्थित रेलवे के एक भवन को होटल के रूप में विकसित करने का प्रस्ताव रखा था, मगर वह राजनीति की भेंट चढ गया।

यदि पर्यटकों को कम से कम एक दिन ठहरने के लिए आकर्षित करना है तो अजमेर व पुष्कर में हर आय वर्ग के लिए बजट होटल विकसित किए जाने चाहिए। सरकार को इसके लिए सबसीडी की घोषणा कर निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना चाहिए। 

एक बात और। ऐतिहासिक अकबर के किले और महाराणा प्रताप स्मारक पर लाइट एंड साउंड शो आरंभ तो किए गए, पर न जाने क्यों वे पर्यटकों को आकर्षित करने में कामयाब नहीं हुए। शायद ठीक से प्रचार-प्रसार न करने की वजह से।

देसी-विदेशी पर्यटकों की सुविधा के लिए किशनगढ के पास हवाई अड्डा तो बना दिया गया, मगर उसकी अपेक्षित उपयोगिता साबित नहीं हो पाई। बीच बीच में उसकी ओर आकर्षित करने के छिटपुट प्रयास तो हुए हैं, मगर नतीजा ढाक के तीन पात।

-तेजवाणी गिरधर 7742067000


गुरुवार, 9 जनवरी 2025

किसी जमाने में अजमेर में कुत्ताशाला हुआ करती थी

आपने गौ शाला, कबूतर शाला के नाम तो सुने होंगे, क्या कुत्ता शाला का नाम भी सुना है? नई पीढी को तो कदाचित पता नहीं होगा, मगर कुछ बुजुर्गों को ख्याल में होगा कि अजमेर के गंज इलाके में कुत्ताशाला हुआ करती थी। वहां पर आवारा कुत्तों को रखा जाता था। बीमार कुत्तों का इलाज भी किया जाता था। रखरखाव का काम कुत्ताशाला कमेटी किया करती थी, जिसमें शहर के प्रतिष्ठित लोग जुडे हुए थे। सुपरिचित बुद्धिजीवी श्री कमल गर्ग ने बताया कि यह व्यवस्था आवारा कुत्तों की समस्या के समाधान के लिए की हुई थी। ज्ञातव्य है कि आवारा कुत्ते रात भर भौंकते रहते हैं और नींद में खलल होती है। सुबह उठ कर देखते हैं तो रैंप पर, सीढ़ियों पर लैट्रिन की हुई होती है। साथ ही जैसे ही कोई गाड़ी आकर खड़ी होती है, तो कुत्ते टांग ऊंची करके पेशाब करते रहते हैं। कुत्तों के काटे जाने के भी प्रतिदिन कई मामले सामने आते हैं। इसलिए नगर परिषद की ओर से आवारा कुत्तों को पकडने की अभियान चला करता था। उन कुत्तों को कुत्ताशाला में रखा जाता था। कुत्ताशाला बनाने के पीछे धार्मिक कारण भी था। ज्ञातव्य है कि हमारे यहां पहली रोटी गाय के लिए व आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकालने की परंपरा है। आखिरी रोटी इकट्ठा करने के लिए कुत्ताशाला से पीपा लेकर एक कार्मिक आया करता था। पूर्व में इसी इलाके में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार श्री कोसिनोक जैन ने तस्दीक की कि उन्होंने कुछ साल पहले कुत्ताशाला में कुत्तों को पकड कर लाने और उनका रखरखाव करते देखा था। अब वहां कुत्ताशाला का अस्तित्व समाप्त हो गया है।

बहरहाल, सवाल ये कि क्या कुत्ताशाला दुबारा नहीं खोली जानी चाहिए?


मंगलवार, 7 जनवरी 2025

सांप्रदायिक सौहार्द्र की रोशनी देते हैं ख्वाजा गरीब नवाज

हिंदुस्तान की सरजमी पर अजमेर ही एक ऐसा मुकद्दस मुकाम है, जहां महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में हर धर्म, मजहब, जाति और पंथ के लोग हजारों की तादात में आ कर अपनी अकीदत के फूल पेश करते हैं। कहने भर को भले ही वे इस्लाम के प्रचारक हैं, मगर उन्होंने इस्लाम के मानवतावादी और इंसानियत के पैगाम पर ज्यादा जोर दिया है, इसी कारण हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी बिना किसी भेदभाव के यहां आ कर सुकून पाते है। हकीकत तो यह है कि यहां जितने मुस्लिम नहीं आते, उससे कहीं ज्यादा हिंदू आ कर अपनी झोली भरते हैं। सांप्रदायिक सौहार्द्र की ऐसी मिसाल दुनिया में कहीं भी नजर नहीं आती। उनकी दरगाह की वजह से अजमेर को सांप्रदायिक सौहार्द्र की अनूठे मुकद्दस मुकाम  के रूप में गिना जाता है।

राज-पाठ, शासन-सत्ता और धर्मांतरण से विमुख गरीब नवाज के भारत आगमन का मकसद यहां की आध्यात्कि संस्कृति के साथ मिल-जुल कर एक ही ईश्वर की उपासना करना और अलौकिक ज्ञान अर्जित कर उसका प्रकाश बांटना था।

ख्वाजा साहब के बारे में यह उक्ति बिलकुल निराधार है कि वे इस्लाम का प्रचार करने भारत आए थे। ऐसे मिथक उन कट्टरपंथी लोगों के हो सकते हैं जो कि इंसानी जिंदगी के हर पहलु को कट्टर धार्मिकता  से जोड़ते हैं। वे किसी भी धर्म से जुड़ी अन्य उदारवादी और मानवतावादी विचारधाराओं के अंतर को समझने में असमर्थ हैं। वे नहीं जानते कि दुनिया के सभी मूल धर्मों से उदित कुछ ऐसी विचारधाराएं भी हैं, जो कि मानव समाज में अपना अलग ही आध्यात्मिक महतव रखती हैं। वे विचारधाराएं भले ही अपने-अपने धर्मों से जुड़ी हुई हैं, मगर उनका एक मात्र मकसद मानव की सेवा करना है। जैसे मूल हिंदु धर्म से निकली रहस्यवादी विचारधाराएं, ईसाई धर्म से निकाल वैराग्यवाद और इस्लाम से निकली सूफी विचारधारा। इसी प्रकार अनेक मत और पंथ अपने धर्म के आडंबरों से मुक्त हुए और उन्होंने सारा जोर मानव की सेवा में ही लगा दिया। ख्वाजा साहब का मूल धर्म हालांकि इस्लाम ही था, लेकिन वे इस्लाम व कुरान के मानवतावादी पक्ष में ही ज्यादा विश्वास रखते थे। यदि सूफी दर्शन का गहराई से अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि एक सूफी दरवेश केवल इस्लामी शरीयत का पाबंद नहीं होता, बल्कि उसकी इबादत या तपस्या इन मजहबी औपचारिकताओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती है। इस्लाम धर्म के मुताबिक पांच वक्त की नजाम अदा करना, रमजान के महिने में तीन रोजे रख लेना, खैरात-जकात निकाल देना, हज को चले जाना तो सभी मुसलमान अपना मजहबी फर्ज समझ कर पूरा करते हैं, लेकिन एक सूफी संत के लिए अल्लाह ही इतनी सी इबादत करना नाकाफी है। वह केवल तीस रोजे से संतुष्ट नहीं होता, बल्कि पूरे 365 दिन भूखे रहना पसंद करता है। वह एक या दो हज नहीं बल्कि अपनी आध्यामिक शक्ति से सैकड़ों हज करने में विश्वास रखता है। एक सूफी शायर ने कहा है कि दिन बदस्त आवर कि हज्जे अकबरस्त यानि किसी दीन-दुरूखी के दिन को रख लेना या उसे खुश कर देना एक बड़े हज के समान है।  इस नेक काम को हर सूफी संत बढ़-चढ़ कर अंजाम देता है। इसी कारण उसकी मान्यता यही रहती है कि उसे अल्लाह ने इस जमीन पर भेजा ही इसलिए है कि वह दीन-दुरूखियों की ही सेवा करता रहे। सूफी मत की सबसे प्रबल अवधारणा ही यही है कि सभी धर्मों का प्रारंभ आत्मिक व आध्यात्मिक चिंतन से है। जब धर्म आत्मिक केन्द्र से हट जाते हैं तो उनमें केवल आडंबर और औपचारिकताएं शेष रह जाती हैं। वे धार्मिक उन्माद, कट्टरता और सांप्रदायिकता के रूप में ही प्रकट होती हैं। सूफी मत की मान्यता है कि एक आत्मविहीन धर्म पूरे सामाजिक संतुलन को बिगाड़ देता है। इसी असंतुलन की वजह से ही समाज में विद्वेष फैलता है और सांप्रदायिक दंगे भी इसी के देन हैं। सूफी मत के अनुसार किसी भी धर्म की पूर्ण परिभाषा और आत्मा उसके अध्यात्मिक रूप में ही निहित है, औपचारिकता में नहीं। यही वजह है कि दार्शनिक दृष्टि से गरीब नवाज के सूफी दर्शन और भारत के प्राचीन एकेश्वरवाद, एकात्म में पर्याप्त समानता है।

सोमवार, 6 जनवरी 2025

साइकिल की सीट देख कर कर दिया पीठ दर्द का इलाज

आजकल छोटी से छोटी बीमारी का इलाज भी बिना टेस्ट के नहीं होता। एक जमाना था जब हमारे यहां के वैद्य नाड़ी देख कर बीमारी का पता लगा लेते थे। मगर, आज कोई डॉक्टर बीमार की दास्तां सुन कर इलाज कर दे तो उसे क्या कहेंगे? बेशक, ऐसे डॉक्टर को लंबे अनुभव से शरीर विज्ञान की गहरी समझ हो गई होगी। ऐसे अनुभवी और बेमिसाल डॉक्टर थे डॉ. एन. सी. मलिक। उनके बारे में यह किस्सा शहर के बुद्धिजीवियों में कहा-सुना जाता रहा है।

सत्तर के दशक की बात है। एक बार तोषनीवाल इंडस्ट्रीज में काम करने वाले पी. भट्टाचार्य उनके पास गए। तकलीफ ये बताई कि उनकी पीठ में छह माह से दर्द है। कई इलाज करवाए। मगर ठीक नहीं हुआ। सारी दास्तां सुन कर डॉक्टर साहब ने उनसे पूछा- आप कैसे आए हैं? उन्होंने बताया- साइकिल से। डाक्टर साहब ने चलो बाहर, मुझे दिखाओ। बाहर जा कर डॉक्टर साहब ने सीधे साइकिल की सीट को चैक किया। उस जमाने में चमड़े की कड़क सीट हुआ करती थी। वहीं खड़े-खड़े भट्टाचार्य जी से कहा- आपको कोई बीमारी नहीं है, जा कर मैकेनिक से सीट के नीचे की स्प्रिंग चैंज करवा लो। भट्टाचार्य जी तो हक्के-बक्के रह गए। चंद दिन बाद आ कर उन्होंने रिपोर्ट दी कि कमर का दर्द पूरी तरह से गायब हो गया है। है न दिलचस्प वाकया।

इस किस्से की पुष्टि उनके सुपुत्र जाने-माने इंटरनेशनल टेबल टेनिस अंपायर श्री रणजीत मलिक ने भी की। एक किस्सा खुद उन्होंने बताया। वो ये कि एक बार वे कॉलेज जाने से पहले जेब खर्ची लेने के लिए पिताश्री के क्लीनिक में गए तो वहां एक आदमी बहुत कराह रहा था। साथ में आए व्यक्ति ने डॉक्टर साहब को बताया कि पिछले एक माह से सिर में तेज दर्द है। कई डाक्टरों को दिखाया, मगर कोई राहत नहीं मिली। राहत तो दूर बीमारी तक का पता नहीं लग रहा। इस पर डॉक्टर साहब ने बीमार के अटेंडेंट से कहा- जा कर किसी नाई से नाक के बाल कटवाओ। अटेंडेंट भौंचक्क सा खड़ा रहा। इस पर डॉक्टर साहब ने कहा- अरे भाई, जैसा मैं कह रहा हूं, करो। जो इलाज करवाते करवाते तंग आ गया हो, वह इस उपाय को भी करने को राजी हो गया। आधे घंटे बाद आ कर मरीज ने डॉक्टर साहब के पैर पकड़ लिए। वह ठीक हो गया था। रणजीत जी ने पिताश्री से इस वाकये का राज पूछा। इस पर डॉक्टर साहब ने बताया कि आम तौर पर नाक के बाल बाहर की ओर आते हैं, जिसे कि हम काट देते हैं। इस आदमी के नाक के बाल अंदर की तरफ चले गए थे, इसी कारण इसके सिर में दर्द रहता था। है न कमाल का डायग्रोस और लाजवाब इलाज।

श्री मलिक ने बताया कि एक बार एक मरीज पिताश्री को दिखाने आया। मरीज ने फीस पूछी। पता लगा कि फीस पांच सौ रुपए है। इस पर उस बीमार ने अपना बटुआ निकाल कर कहा कि वह गरीब आदमी है, उसके पास केवल नब्बे रुपए ही हैं। इस पर पिताश्री ने उससे कहा कि दवाई ले लो और ये नब्बे रुपए भी रख लो। उन्होंने बताया कि वे गरीबों का मुफ्त इलाज किया करते थे। गरीब मरीजों के लिए वे भगवान का ही रूप थे। गरीब गांव वाले इलाज के एवज में सब्जियां भेंट कर जाते थे।

डॉक्टर साहब का देहावसान 87 वर्ष की उम्र में 16 अक्टूबर 2000 को हुआ।

श्री मलिक ने डाक्टर साहब के बारे में कुछ और जानकारियां दीं, जो कि उनको द संस्कृति स्कूल में कार्यरत श्री राजेन्द्र प्रसाद शर्मा ने उनसे साझा कीं। श्री शर्मा की ही लेखनी में संस्मरण हूबहू आपके समक्ष प्रस्तुत है-

1. यह घटना 1976 की है। उस समय मेरे पिताजी की पोस्टिंग पुलिस हॉस्पिटल में कंपाउंडर के पद पर थी। एक सज्जन, जो कि शास्त्री नगर में रहते थे, की वृद्ध माताजी अस्वस्थ चल रही थीं। उस समय के अच्छे फिजीशियन डॉक्टर आर. एन. माथुर का इलाज चल रहा था। उसके तहत उनके ड्रिप पिताजी द्वारा लगाई जा रही थी। दो दिन तक ड्रिप बराबर चली, लेकिन तीसरे दिन उनको जबरदस्त रिएक्शन हो गया। पिताजी के पास जो भी एंटी डोज थे, वो देकर हालत को काबू किया गया। साथ ही उनको सलाह दी कि वे डॉक्टर माथुर को दिखाएं। उन्होंने भी एंटी रिएक्शन का जो भी ट्रीटमेंट था, वो दिया, लेकिन उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ। फिर उन्होंने डॉक्टर एम. एस. माथुर, जो कि अच्छे फिजिशियन माने जाते थे, से इलाज करवाया, लेकिन फिर भी रिएक्शन खत्म नहीं हुआ। आखिर एक दिन वो पापा से सलाह करने आए। पापा ने उनको सलाह दी कि वो डॉक्टर मलिक साहब को दिखाए। उस समय डॉक्टर साहब हरिनगर, शास्त्री नगर में निवास करते थे। डॉक्टर साहब अपने डेकोरम का पूरा ध्यान रखते थे। डॉक्टर साहब से जब उन सज्जन ने घर पर चल कर देखने को कहा तो डॉक्टर साहब ने उनसे अपने डेकोरम के अनुसार टैक्सी लेकर आने को कहा। उन दिनों शहर में गिनी-चुनी टैक्सी हुआ करती थी। टैक्सी लाई गई। डॉक्टर मलिक साहब ने पेशेंट को देख कर एनाल्जिन लिख कर दी। पहले दिन, दिन में तीन बार, दूसरे दिन दो बार व तीसरे दिन एक बार देकर बंद करने की हिदायत दी। साथ ही कहा कि सिर्फ एनाल्जिन ही देनी है, उसका कोई भी सब्सीट्यूट नहीं होना चाहिए। उन सज्जन ने अपना सिर पीट लिया और यह सोच कर तीन दिन तक गोली नहीं दी कि मेरी मां को कोई जुकाम-बुखार-बदन दर्द थोड़े ही है। तीसरे दिन वो पापा के पास झगड़े के मूड से आए कि उन्होंने कहाकि कैसा अच्छा डॉक्टर बतलाया, जो इतना उनका खर्चा भी करवा दिया और दवा के नाम पर केवल एनाल्जिन दे दी। पापा ने उनको समझाया कि अगर मलिक साहब ने लिखी है तो सोच समझ कर लिखी है, वो देकर तो देखें। दूसरे दिन से एनाल्जिन चालू की गई और उनको आश्चर्य तब हुआ जब पहले दिन ही रिएक्शन का आधा असर खत्म हो गया और वो माताजी तीन दिन एनाल्जिन लेकर बिल्कुल स्वस्थ हो गईं।


2. यह घटना 1959 की है। मेरे पिताजी अभी का जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय, जो कि तब विक्टोरिया हॉस्पिटल हुआ करता था, में कंपाउंडर के पद पर कार्यरत थे। उस समय उनके पास हॉस्पिटल के स्टोर का चार्ज था। स्टोर की ऑडिट करने के लिए टीम आई हुई थी। एक दिन टीम के इंचार्ज ने पापा को बताया कि उनके बहुत तेज घबराहट, बेचौनी आदि हो रही है और ये समस्या उनको पिछले काफी सालों से है। उन्होंने कई डॉक्टर्स को दिखा कर इलाज लिया, लेकिन फर्क नहीं पड़ा। पिताजी ने उनसे कहा कि वे घबराए नहीं दोपहर में डॉक्टर मलिक अपने चेंबर में आएंगे, तब उनको दिखा देंगे। डॉक्टर मलिक उस समय विक्टोरिया हॉस्पिटल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे। डॉक्टर मलिक साहब को दिखाया गया। उन्होंने केवल उनसे उनकी मेडिकल हिस्ट्री पूछी और पिताजी से बोले इनका यूरीन टेस्ट करवा कर लाओ। यूरीन टेस्ट की रिपोर्ट ले जा कर दिखाई तो वे बोले पेट का एक्सरे करवा कर लाओ। एक्सरे की रिपोर्ट देखने के साथ ही डॉक्टर मलिक बोले, मरना चाहता है क्या, ये इतना बड़ा स्टोन पेट में लेकर क्यों घूम रहा है, इसका जल्द से जल्द ऑपरेशन करवाओ। जब वह सज्जन पेट संबंधी कोई बीमारी नहीं बता रहे थे, कई एक्सपर्ट डॉक्टर्स से इलाज ले चुके, लेकिन कोई भी ठीक से डायग्नोस नहीं कर पाया। ऐसे जानकार डॉक्टर थे मलिक साहब।

डॉक्टर एन. सी. मलिक के चमत्कारिक इलाज के बारे में पिछले ब्लॉग पर प्रतिक्रिया देते हुए दैनिक न्याय परिवार के वरिष्ठ पत्रकार श्री वृहस्पति शर्मा, जो कि आजकल जयपुर निवास करते हैं, ने भी अपना स्वयं का अनुभव शेयर किया है। वह हूबहू आपकी नजरः-

मै स्वयं इसका जीवंत उदाहरण हूं। वर्ष 1979 मे मुझे पेट मे भयंकर बीमारी हुई। कई माह तक परेशान रहा। अजमेर, जयपुर एवं उदयपुर के अनेक डॉक्टर्स को दिखाया। न जाने कितने टेस्ट, एक्स रे  करवाये गये। खाने मे अधिकतर वस्तुएं बंद कर दी गईं। लगता था जीवन का अंत नजदीक है। डॉक्टर्स को कुछ समझ नहीं आ रहा था। अंत मे यह फाइनल रहा कि ऑपरेशन किया जाएगा, तभी पता लगेगा कि वास्तव मे समस्या क्या है? ऑपरेशन से एक दिन पहले मैं एवं पत्नी आगरा गेट गणेश जी एवं हनुमान जी के मंदिर गये। जब हम वहां से आ रहे थे, तब मेरा एक मित्र मिला। उसने मेरी हालत देख कर सारी बात पूछी। मैने उसे सब कुछ बताया और यह भी बताया की कल ऑपरेशन है। उसने मेरे को कहा कि मेरी बात मानो, एक बार डॉक्टर मलिक साहब को दिखा लो। मैने कहा की मैं तो जानता ही नहीं हूं। उसने कहा मै जानता हूं एवं मैं उनके यहां जाता रहता हूं। मैं अपनी सारी जांच रिपोर्ट्स, एक्स रे आदि लेकर डाक्टर मलिक के यहां भगवान का नाम लेकर गया। डॉक्टर साहब ने दो मिनट मेरी बात सुनी। मैने मेरी फाइल उनके आगे रखी। सच कहता हूं उन्होंने उसके हाथ भी नहीं लगाया। इसके अलावा उन्होंने सभी डॉक्टर्स के लिये जो शब्द यूज किए एवं जो गालियां दीं, मैं उनका यहां उल्लेख नहीं कर सकता। डॉक्टर साहब ने मुझे कहा कि जेन्टल मैन, तुम एक दम ठीक हो जाओगे। उन्होंने मुझे 10 दिन की दवा लिखी, जो शायद 15 रुपए की आई। जब मैने खाने के लिये पूछा तो उन्होंने कहा सब कुछ खाओ। उन्होंने यह भी कहा की 10 दिन के बाद आने की आवश्यकता नहीं है। सच कहता हूं, आधा तो मैं उसी वक्त ठीक हो गया। 10 दिन बाद मैं बिलकुल ठीक हो गया और आज तक मुझे फिर वो समस्या नहीं हुई।

 

रविवार, 5 जनवरी 2025

नेहरू जी की जियारत के वक्त शैखुल मशाएख हज़रत सैयद इनायत हुसैन थे दीवान

हाल ही जब भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री जवाहरलाल नेहरू के 1949 की दरगाह जियारत का वीडियो आपसे साझा किया तो पूर्व दीवान दादा शैखुल मशाएख हज़रत सैयद इनायत हुसैन व वालिद पूर्व दीवान सैयद सौलत हुसैन की औलाद ख्वाजा सैयद गयासुद्दीन चिश्ती ने जानकारी जोडी कि नेहरू जी के साथ खडे उनके दादाजी तत्कालीन दीवान शैखुल मशाएख हज़रत सैयद इनायत हुसैन हैं। 

प्रसंगवश बता दें कि सैयद इनायत हुसैन साहब ने दारूल उलूम मोईनिया उस्मानिया से आलिम फाज़िल की डिग्री 7 अगस्त 1924 को हासिल की। उसके बाद हिकमत की तालीम हासिल करने के लिए मुमबा-उत-तिब (तिब्बिया) कॉलेज, लखनऊ गये। वहां से आपसे कामिलुल तिब (हकीम) व जराहत की सनद मार्च 1926 में हासिल की। बाद में अजमेर तशरीफ लाकर खानकाह शरीफ, कमानी गेट के पास अपना दवाखाना खोला। कई मरीज अपनी गुरबत ज़ाहिर कर देते तो आप दवा तक के पैसे न लेकर उसका मुफ्त इलाज कर देते थे। सन् 1947 में देश विभाजन होने पर तत्कालीन दीवान सैयद आले रसूल अली खां के पाकिस्तान चले जाने पर सन् 1948 में दरगाह ख़्वाजा साहब के 34वें दीवान बने और अपने अख्लाक (व्यवहार) से लोगों का दिल जीत लिया। आपके हिन्दुस्तान भर में हज़ारों की तादाद में मुरीद थे। खास तौर से हैदराबाद, बॉम्बे, कोलकाता, कटक आदि में आपने खानकाहें कायम कीं और चिश्तिया सिलसिले को फरोग दिया। सन् 1959 में दिल का दौरा पडऩे से आपका इन्तेकाल हुआ। सोलह खम्बे के पास गुम्बद ख़्वाजा हुसैन अजमेरी में आपका मज़ार है।


शनिवार, 4 जनवरी 2025

केन्द्र सरकार दरगाह कमेटी व नाजिम को लेकर गंभीर नहीं

ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह की अंदरूनी व्यवस्थाओं को देखने वाली दरगाह कमेटी और उसके प्रशासनिक मुखिया नाजिम को लेकर गंभीर नहीं है। दरगाह ख्वाजा साहब एक्ट के तहत गठित इस कमेटी को एक ढर्रे की तरह चलाया जा रहा है, जबकि इसमें सदस्यों से लेकर नाजिम तक की नियुक्ति में अतिरिक्त सावधानी की जरूरत है। 

सरकार की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कमेटी के प्रशासनिक मुखिया व कमेटी के सदस्यों की नियुक्ति में अत्यधिक लेटलतीफी बरती जाती है। ऐसे अनेक मौके रहे हैं, जबकि नाजिम की अनुपस्थिति में कार्यवाहक नाजिम से ही काम चलाया गया है। स्थिति यह आ गई कि 813वां उर्स नाजिम व कमेटी के अभाव में संपन्न होने जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से पेश की गई चादर के दौरान कमेटी की ओर से इस्तकबाल करने वाला कोई नहीं था। अल्पसंख्यक मंत्रालय के अधिकारी ने उपस्थित हो कर औपचारिकता निभाई।  

सरकार की मनमर्जी देखिए कि जब अब तक यहां नौकरी कर रहे सरकारी अधिकारी की नियुक्ति का नियम है और यही परंपरा भी रही है, उसके बावजूद इस पद पर सेवानिवृत्त आईएएस को नियुक्त कर दिया जाता है। जबकि यहां पूर्णकालिक अधिकारी की जरूरत है। जरूरत इसलिए है कि यह उस दरगाह का प्रबंध देखने वाली कमेटी का प्रशासनिक मुखिया है, जो पूरी दुनिया में सूफी मत मानने वालों का सबसे बड़ा मरकज है। इतना ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के चलते अत्यंत संवेदनशील स्थान है। आतंकियों के निशाने पर है और एक बार तो यहां बम ब्लास्ट तक हो चुका है।

बेशक प्रतिदिन आने वाले जायरीन की सुविधा के मद्देनजर सरकार गंभीर रहती है, उसके लिए बजट भी आवंटित होता है, मगर दरगाह कमेटी व नाजिम को लेकर सरकार एक ढर्रे पर ही चल रही है। वस्तुस्थिति ये है कि यह कमेटी, विशेष रूप से नाजिम न केवल दरगाह की दैनिक व्यवस्थाओं को अंजाम देते हैं, अपितु खादिमों व दरगाह दीवान के बीच आए दिन होने वाले विवाद में भी मध्यस्थ की भूमिका उन्हें निभानी होती है। यह काम कोई पूर्णकालिक अधिकारी ही कर सकता है। होना तो यह चाहिए कि इस पद पर नियुक्ति ठीक उसी तरह से की जाए, जिस तरह आरएएस व आईएएस अधिकारियों तबादला नीति के तहत की जाती है। उसमें विशेष रूप से यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि वह दबंग हो। एक सेवानिवृत्त अधिकारी में कितनी ऊर्जा होती है, यह बताने की जरूरत नहीं है, जबकि यहां ऊर्जावान अधिकारी की जरूरत है। ऐसा अधिकारी ही यहां की व्यवस्थाओं को ठीक ढ़ंग से अंजाम दे सकता है।

अफसोसनाक बात है कि इस ओर केन्द्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय कत्तई गंभीर नहीं है। यही वजह है कि जब भी कोई नाजिम अपना कार्यकाल पूरा करके जाता है या इस्तीफा दे देता है तो लंबे समय तक यह पद खाली ही पड़ा रहता है। कार्यवाहक नाजिम से काम चलाया जाता है, जिसके पास न तो प्रशासनिक अनुभव होता है और न ही उतने अधिकार होते हैं।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

ख्वाजा साहब ने की भारत में सूफी मत की शुरुआत

सुपरिचित इतिहासविद् व पत्रकार श्री शिव शर्मा ने दरगाह शरीफ व ख्वाजा साहब के जीवन और सूफी मत पर गहन अध्ययन किया है। कुछ साल पहले उन्होंने सूफी मत विषय पर एक आलेख भेजा था। वह अजमेरनामा में प्रकाशित किया गया था। इन दिनों ख्वाजा साहब का उर्स चल रहा है। प्रसंगवश आप भी पढियेः- अजमेर स्थित सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर रोज हजारों की तादाद में उनके अकीदतमंद तशरीफ लाते हैं। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती किसी एक समाज और जाति के न होकर हर जाति और समुदाय के बीच शांति और एकता के दूत के रूप में माने जाते हैं। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के चाहने वाले उनको हिंदल वली व गरीब नवाज जैसे नामों से भी पुकारते हैं। मान्यता के अनुसार ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म ईरान में 536 हिजऱी संवत् अर्थात 1141 ईस्वी पूर्व पर्शिया के सीस्तान में हुआ। रिवायतों में कहा गया है कि ईरान के चश्त शहर से चिश्तिया शब्द निकला है।

चिश्तिया जिसे (सूफी) तरीका भी कहा जाता है, उसकी शुरुआत अबू इसहाक ने की थी। लेकिन भारत में इस तरीके की शुरुआत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने की थी। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने भारत में आकर अजमेर को अपनी कर्मस्थली बनाया। कहा जाता है पीर, मुरीदी का सिलसिला ख्वाजा साहब के जमाने से ही आगे बढ़ा। बताया जाता है कि रजब की 6 तारीख 633 हिजरी 1233 ईस्वी को आपका विसाल हुआ। ख्वाजा साहब के पोते ख्वाजा हुसैन चिश्ती अजमेरी ने सज्जादानशीन व मुतवल्ली का सिलसिला जारी रखा। बताया जाता है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन साहब के तकरीबन एक हज़ार खलीफ़ा और लाखों मुरीद थे। कई पंथो के सूफ़ी भी इनसे आकर मिलते और चिश्तिया तरीके से जुड़ जाते और शांति का एकता का संदेश देते। उनके मुरीदों में कुतबुद्दीन बख्तियार काकी, बाबा फरीद, निज़ामुद्दीन औलिया, हजऱत अहमद अलाउद्दीन, साबिर कलियरी, अमीर खुसरो नसीरुद्दीन चिराग दहलवी, बन्दे नवाज़, अशरफ जहांगीर सिम्नानी और अता हुसैन फ़ानी जैसी हस्तियां थीं।

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गुरुवार, 2 जनवरी 2025

अनेक शहंशाहों ने हाजिरी दी ख्वाजा के दरबार में

ख्वाजा गरीब नवाज के 813वें उर्स के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 4 जनवरी को चादर भेजेंगे। केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू उनकी तरफ से चादर लेकर दरगाह आएंगे। इस मौके पर ख्याल आता है कि दुनिया में कितने ही राजा, महाराजा, बादशाहों के दरबार लगे और उजड़ गए, मगर ख्वाजा साहब का दरबार आज भी शान-ओ-शोकत के साथ जगमगा रहा है। उनकी दरगाह में मत्था टेकने वालों की तादात दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। गरीब नवाज के दर पर न कोई अमीर है न गरीब। न यहां जात-पात है, न मजहब की दीवारें। हर आम-ओ-खास यहां आता है। हिंदुस्तान के अनेक शहंशाहों ने बार-बार यहां आ कर हाजिरी दी है।

बादशाह अकबर शहजादा सलीम के जन्म के बाद सन् 1570 में यहां आए थे। अपने शासनकाल में 25 साल के दरम्यान उन्होंने लगभग हर साल यहां आ कर हाजिरी दी। बादशाह जहांगीर अजमेर में सन् 1613 से 1616 तक यहां रहे और उन्होंने यहां नौ बार हाजिरी दी। गरीब नवाज की चौखट पर 11 सितंबर 1911 को  विक्टोरिया मेरी क्वीन ने भी हाजिरी दी। इसी प्रकार देश के अनेक राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रियों ने यहां जियारत कर साबित कर दिया है कि ख्वाजा गरीब नवाज शहंशहों के शहंशाह हैं। 

ख्वाजा साहब के दरगार में मुस्लिम शासकों ने सजदा किया तो हिंदू राजाओं ने भी सिर झुकाया है।

हैदराबाद रियासत के महाराजा किशनप्रसाद पुत्र की मुराद लेकर यहां आए और आम आदमी की तरह सुबकते रहे। ख्वाजा साहब की रहमत से उन्हें औलाद हुई और उसके बाद पूरे परिवार के साथ यहां आए। उन्होंने चांदी के चंवर भेंट किए, सोने-चांदी के तारों से बनी चादर पेश की और बेटे का नाम रखा ख्वाजा प्रसाद।

जयपुर के मानसिंह कच्छावा तो ख्वाजा साहब की नगरी में आते ही घोड़े से उतर जाते थे। वे पैदल चल कर यहां आ कर जियारत करते, गरीबों को लंगर बंटवाते और तब जा कर खुद भोजन करते थे। राजा नवल किशोर ख्वाजा साहब के मुरीद थे और यहां अनेक बार आए। मजार शरीफ का दालान वे खुद साफ करते थे। एक ही वस्त्र पहनते और फकीरों की सेवा करते। रात में फर्श पर बिना कुछ बिछाए सोते थे। उन्होंने ही भारत में कुरआन का पहला मुद्रित संस्करण छपवाया। जयपुर के राजा बिहारीमल से लेकर जयसिंह तक कई राजाओं ने यहां मत्था टेका, चांदी के कटहरे का विस्तार करवाया। मजार के गुंबद पर कलश चढ़ाया और खर्चे के लिए जागीरें भेंट कीं। महादजी सिंधिया जब अजमेर में शिवालय बनवा रहे थे तो रोजाना दरगाह में हाजिरी देते थे। अमृतसर गुरुद्वारा का एक जत्था यहां जियारत करने आया तो यहां बिजली का झाड़ दरगाह में पेश किया। इस झाड़ को सिख श्रद्धालु हाथीभाटा से नंगे पांव लेकर आए। जोधपुर के महाराज मालदेव, मानसिंह व अजीत सिंह, कोटा के राजा भीम सिंह, मेवाड़ के महाराणा पृथ्वीराज आदि का जियारत का सिलसिला इतिहास की धरोहर है। बादशाह जहांगीर के समय राजस्थानी के विख्यात कवि दुरसा आढ़ा भी ख्वाजा साहब के दर पर आए। जहांगीर ने उनके एक दोहे पर एक लाख पसाव का नकद पुरस्कार दिया, जो उन्होंने दरगाह के खादिमों और फकीरों में बांट दिया।

गुरु नानकदेव सन् 1509 में ख्वाजा के दर आए। मजार शरीफ के दर्शन किए, दालान में कुछ देर बैठ कर ध्यान किया और पुष्कर चले गए।

अंग्रेजों की खिलाफत का आंदोलन चलाते हुए महात्मा गांधी सन् 1920 में अजमर आए। उनके साथ लखनऊ के फिरंगी महल के मौलाना अब्दुल बारी भी आए थे। मजार शरीफ पर मत्था टेकने के बाद गांधीजी ने दरगाह परिसर में ही अकबरी मस्जिद में आमसभा को संबोधित किया था। उनके भाषण एक अंश था- हम सब भारतीय हैं, हमें अंग्रेजों की गुलामी से देश को आजाद कराना है, लेकिन शांति से, अहिंसा से। आप संकल्प करें... दरगाह की पवित्र भूमि पर आजादी के लिए प्रतिज्ञा करें... ख्वाजा साहब का आशीर्वाद लें। इसके बाद वे खादिम मोहल्ले में भी गए। स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने भी दरगाह की जियारत की और यहां दालान में सभा को संबोधित किया। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू व उनकी बहिन विजय लक्ष्मी पंडित और संत विनोबा भावे भी यहां आए थे।

देश की पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी भी कई बार दरगाह आईं। उनके साथ राजीव गांधी व संजय भी आए, मगर बाद में राजीव गांधी अकेले भी आए। इसी प्रकार सोनिया गांधी भी दरगाह जियारत कर चुकी हैं। देश के अन्य प्रधानमंत्री, राज्यपाल व मुख्यमंत्री आदि भी यहां आते रहते हैं। पाकिस्तान व बांग्लादेश के प्रधानमंत्री भी यहां आ कर दुआ मांग चुके हैं।

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बुधवार, 1 जनवरी 2025

अजमेर नगर निगम के चुनाव कब होंगे?

राज्य में सभी स्वायत्तशासी संस्थाओं व पंचायतों के चुनाव एक साथ करवाने की कवायद के बीच यह कौतुहल बना हुआ है कि अजमेर नगर निगम के चुनाव कब होंगे? कुछ लोगों का मानना है कि अगर अन्य निकायों के साथ चुनाव करवाए गए तो जुलाई-अगस्त में ही चुनाव हो जाएंगे, जबकि निगम का कार्यकाल दिसम्बर तक है। यानि छह माह पहले ही चुनाव हो जाएंगे। दुबारा चुनाव लडने के इच्छुक पार्षद व नए दावेदार इसी के तहत तैयारियां कर रहे हैं। लॉटरी की वजह से वार्डों में आरक्षण परिवर्तन होता है तो उसका विकल्प तलाश रहे हैं। दूसरी ओर कुछ जानकारों का अनुमान है कि मौजूदा निगम बोर्ड का कार्यकाल कम नहीं किया जाएगा, क्योंकि अगर कार्यकाल घटाया गया तो कुछ पार्षद कोर्ट चले जाएंगे कि वे तो पूरे पांच साल के लिए चुन कर आए थे। सरकार नहीं चाहेगी कि इस प्रकार की कोई स्थिति आए। यानि चुनाव नियत समय पर ही होंगे। अलबत्ता, इस बात की भी संभावना है कि चुनाव कुछ और विलंब से हों। ऐसे में मौजूदा बोर्ड का कार्यकाल समाप्त होने पर चुनाव होने तक प्रशासक नियुक्त किया जाएगा।

इसके अतिरिक्त इस बात की संभावना है कि पार्षदों का मनोनयन नहीं होगा। भला साल भर के लिए मनोनीत पार्षद कौन बनना चाहेगा। क्यों कि मनोनीत पार्षद का कार्यकाल बोर्ड के कार्यकाल तक होता है। अर्थात उन नेताओं को एक साल इंतजार करना होगा, जो मनोनीत पार्षद बनना चाहते हैं। जानकारी है कि मनोनयन के प्रस्ताव सरकार को भेजे जा चुके हैं। वैसे यह बात तर्कपूर्ण लगती है कि चुनाव हो जाने के बाद ही स्थिति साफ होगी कि कौन कौन नेता पार्षद बनने से वंचित रह गए हैं, उन्हें मनोनीत पार्षद बनाया जाएगा।

जहां तक अजमेर विकास प्राधिकरण का सवाल है, उसके बारे में भी यही कयास है कि फिलवक्त अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं होगी। हालांकि इसके लिए पैनल बन चुका है, मगर नियुक्ति को लेकर संशय बना हुआ है। संभव है कि परिस्थिति विशेष ऐसी बन जाए कि प्राधिकरण अध्यक्ष की घोषणा निगम चुनाव से पहले हो जाए।