मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

इसे कहते हैं लोकप्रियता

 दैनिक भास्कर के 25 फरवरी 2025 के अंक में देखा कि एक साथ एक ही शख्स के प्रति ढेर सारे श्रद्धांजलि संदेष छपे हैं। चकित रह गया। मैने अपनी समझ में आज तक ऐसा साथ इतने लोगों की ओर से श्रद्धांजलि संदेश नहीं देखे। वह भी पांचवी पुण्यतिथि पर। निश्चित ही वे बहुत लोकप्रिय हैं। वे हैं स्वर्गीय श्री परशोत्तम दास गिदवानी उर्फ पषु भाई। सुपरिचित व्यवसायी। विरले ही ऐसे होते हैं, जिन्हें इतनी शिद्दत से लोग याद किया करते हैं। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल भी उनको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

125 साल पहले बना था अजमेर का गांधी भवन

अजमेर में स्थित गांधी भवन प्रसिद्ध स्मारक है। गांधी भवन 125 साल पहले ट्रैवर टाउन हॉल के नाम से बनवाया गया था! बताया जाता है कि 1895 ई. से 1900 ई. के बीच अजमेर मेरवाड़ा के चीफ कमिश्नर जी एच ट्रेवर की याद में गांधी भवन का निर्माण करवाया गया था। उस वक्त उसका नाम ट्रैवर टाउन हॉल रखा गया था। 1905 में पुरातत्वविद श्री गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने विक्टोरिया हॉल पुस्तकालय नाम से पुस्तकालय की स्थापना की। आजादी के बाद इसका नाम गांधी भवन पुस्तकालय रखा गया। प्रदेश के 88 दानदाताओं ने धन इकट्ठा करके गांधी भवन का निर्माण करवाया था। उस वक्त 5 रुपए की भी बहुत कीमत थी। गांधी भवन के लिए चंदा देने वालों की सूची में 5 रुपए का चंदा देने वालों के भी नाम हैं। 88 दानदाताओं ने कुल बीस हजार की रकम इकट्ठा करके गांधी भवन का निर्माण कराया था। सर्वाधिक 3 हजार रुपए दो महाराजाओं ने दिए, जिनमें उदयपुर के महाराणा और जोधपुर के तत्कालीन शासकों के नाम शामिल हैं। अलवर और बीकानेर के तत्कालीन शासकों ने भी 15-15 सौ रुपए का दान दिया था। साथ ही जैसलमेर के शासक ने 1 हजार और किशनगढ़ के शासक ने 5 सौ रुपए दिए थे।

अजमेर के इतिहास के बारे खासी जानकारी रखने वाले श्री नारायण सिंह के अनुसार इस भवन के लिए भूमि अजमेर के प्रसिद्ध जनाब अल्लाहरखा साहब ने दान में दी थी। नगर पालिका ने भवन और बगीचा बनवाया। इस बगीचे में महात्मा गांधी की मूर्ति स्थापित है। गांधी भवन के पीछे एक सरकारी स्कूल बना हुआ है। गांधी भवन में वाचनालय में देश में प्रकाशित विभिन्न दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और पत्रिकाएं निशुल्क पढऩे की सुविधा उपलब्ध कराई गई। गांधी भवन के बड़े हॉल में कई गणमान्य व्यक्ति व्याख्यान देने आते थे। मैंने यहां एक मर्तबा फिल्म अभिनेता महिपाल (पारसमणि, वीर भीमसेन में अभिमन्यु का रोल करने वाले) को हूबहू सामने देखा था। वर्ष 1960-70 के दशकों में गांधी भवन का बगीचा बड़ी साइज का था, जो अब छोटा कर दिया गया है। संभवत सड़क चौड़ी करने का ही उद्देश्य रहा होगा।
गांधी भवन में शाम को आठ बजे बच्चों वाली लायब्रेरी वाले कमरे की खिड़की पर बड़ा सा लाउडस्पीकर लगा कर आकाशवाणी के समाचारों का प्रसारण किया जाता था। इन समाचारों को सुनने के लिए जन साधारण की भीड़ से बगीचा भर जाता था।
गांधी भवन के बगीचे में एक बार वार्ड मेम्बरों की लंबी हड़ताल चली थी और पूरा शहर देखने आता था, जैसे कोई मेला लगा हो। अब भी यह शहर का सर्वाधिक व्यस्त रहने वाला चौराहा है।

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

जिंदादिल पुलिस अधिकारी श्री बलराज खोसला नहीं रहे

रिटायर्ड पुलिस उप अधीक्षक श्री बलराज सिंह खोसला पुत्र स्वर्गीय श्री दीवान सिंह खोसला का रविवार, 16 फरवरी को निधन हो गया। उनकी गिनती ईमानदार पुलिस अधिकारियों में तो होती ही थी, वे एक प्रखर बुद्धिजीवी भी थे। बहुत जिंदादिल व ऊर्जावान इंसान थे। चेहरे पर स्मित मुस्कान उनके व्यक्तित्व की पहचान थी। तनिक विनोदपूर्ण थे। उनकी भाषा शैली में अव्यवस्था के प्रति व्यंग्य झलकता था। विशेष रूप से अजमेर के हालात को लेकर वे बहुत चिंतित रहते थे। वे काफी समय तक सीआईडी में भी रहे, इस कारण उनके जेहन में गोपनीय जानकारियां थीं। कानून व्यवस्था व आंतरिक सुरक्षा के बारे में गहरी जानकारी थी। अजमेर में सांप्रदायिक सौहार्द्र कायम रखने में उनकी महति भूमिका थी। उन्हें यह भलीभांति जानकारी थी कि अजमेर की समस्याओं की जड कहां है? सीआईडी में रहने की वजह से वे बहुत रिजर्व नेचर के थे, लेकिन कुछ बुद्धिजीवियों चर्चा करते थे और अपना खास नजरिया रखते थे। पिछले कई वर्षों से मेरे संपर्क में थे। अजमेर सहित राज्य व देश के ज्वलंत विषयों पर उनसे कई बार लंबी चर्चा होती रही। मैने कई बार आग्रह किया अपनी जानकारियां व अनुभव लाइव शेयर करें, मगर वे संकोच कर जाते थे। अलबत्ता, उन्होंने मुझे कई आर्टिकल लिखने के लिए विषय साझा किए। अफसोस, उनके जैसा अनुभवी अधिकारी बहुत सी उपयोगी जानकारियां अपने जेहन में रख कर विदा हो गया। उनका देहावसान अजमेर के लिए अपूरणीय क्षति है। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनको अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

-तेजवाणी गिरधर

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रविवार, 16 फ़रवरी 2025

सिंधी पत्रकारिता के स्तम्भ श्री हरीश वरियानी नहीं रहे

देश में सिंधी पत्रकारिता जगत के जाने-माने हस्ताक्षर श्री हरीश वरियानी का रविवार, 16 फरवरी 2025 को निधन हो गया। सिंधी भाषा, साहित्य व संस्कृति के संरक्षण व संवर्द्धन में उनका अमूल्य योगदान रहा है। वे सिंधी भाषा के दैनिक हिंदू के संपादक थे। सिंधी भाषा का दैनिक अखबार प्रकाशित करना बेहद कठिन था, मगर उनके दिल में सिंधी भाषा की सेवा का अदम्य जज्बा था। उन्होंने अनेक सिंधी लेखकों को प्रोत्साहित किया। पुरुषार्थ, कड़ी मेहनत और लगन से उन्होंने अपने आपको को पत्रकारिता के क्षेत्र में अग्रणी स्तम्भ के रूप में स्थापित किया। वे बहुत जिंदादिल व हंसमुख इंसान थे। अभिवादन में ओम नमः शिवाय बोलना उनकी पहचान थी। समाज को दिए अविस्मरणीय योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। वे सिंधी समाज के प्रेरणा स्तंभ थे, जिनसे पूरे समाज को ऊर्जा मिलती रही। वे सिंधु जागृति मंच के समन्वयक थे। सिंधी समाज महासमिति, अजमेर ने उनको सिंध रत्न अलंकरण से सम्मानित किया।

उनका जन्म 30 मई 1949 को सिन्ध के नसरपुर में श्री धर्मदास वर्यानी के घर हुआ। उन्होंने श्रमजीवी कॉलेज से 1968 में बीए किया। 29 मई 1975 को विवाह हुआ। सन् 1975 से 1983 तक कचहरी रोड स्थित बाइडिंग वर्क और अजमेर आर्ट प्रिंटर्स में मुद्रण का कार्य संभाला। कपड़े का व्यवसाय भी किया। 1975 में आपके परिवार ने सिंधी दैनिक अखबार हिन्दू शुरू किया। इसके अहमदाबाद व मुम्बई में भी संस्करण हैं। 1981 से 2006 तक आप द्वारा, उसके बाद आपके परिवार द्वारा संत कंवरराम साप्ताहिक का प्रकाशन किया जा रहा है। सितम्बर 2009 से दैनिक हिन्दू का जयपुर संस्करण भी प्रारंभ किया। जयपुर से 2012 में कंचन केसरी हिन्दी दैनिक आरम्भ किया है। वे अजमेर जिला पत्रकार संघ एवं अजयमेरू जिला पत्रकार संघ, अजमेर सिंधी सेंट्रल महासमिति, वैशाली सिंधी समाज व वैशाली नगर स्थित हेमू कालाणी पार्क समिति, तोपदड़ा स्थित झूलेलाल धर्मशाला ट्रस्ट, सिंधु दीप संस्था में महत्वपूर्ण पदों पर रहे। तीन बार राजस्थान सिंधी अकादमी के सदस्य रहे। आकाशवाणी, जयपुर पर उनकी अनेक वार्ताएं प्रसारित हुईं। उनके सुपुत्र श्री कमल वरियानी उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर सिंधी भाषा की सेवा करते रहे हैं। जाहिर है आगे भी वे उस मशाल को प्रज्ज्वलित रखेंगे।

अजमेर में चौरसियावास रोड स्थित श्रीनिवास कॉलोनी निवासी 75 वर्षीय श्री वरियानी पिछले कुछ समय से बीमार थे और जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के आईसीयू में अंतिम सांस ली। उनके निधन से सिंधी समाज व पत्रकार जगत में दुख की लहर छा गई। उनकी अंतिम यात्रा सोमवार को उनके निवास से आंतेड स्थित श्मशान के लिए सुबह 11 बजे रवाना होगी। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनके निधन पर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करता है।


शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

प्रथम राजा अजयपाल का स्मारक क्यों नहीं बनाया?

अजमेर के सुपरिचित बुद्धिजीवी श्री नारायण सिंह ने अजमेर के प्रथम राजा अजयपाल का स्मारक बनाने पर जोर दिया है। उन्होंने सवाल किया है कि अजमेर के नेता राजा अजयपाल का स्मारक बनाना क्यों भूल गये? क्या अजमेर के नेताओं को अजमेर के प्रथम राजा अजयपाल से अनुराग नहीं है? ज्ञातव्य है कि पिछले कुछ वर्शों में अमुक अमुक जाति, धर्म के मतदाताओं के साधने के लिए महाराजा दाहरसेन स्मारक, वीरांगना झलकारी बाई स्मारक, पृथ्वीराज चौहान स्मारक, महाराणा प्रताप स्मारक, विवेकानंद स्मारक और कई सर्किल तो बनाए गए, मगर किसी भी राजनेता को अजमेर के प्रथम राजा अजयपाल का स्मारक बनाने का ख्याल नहीं आया। पुष्कर घाटी में महाराणा प्रताप का स्मारक बनाया गया है, जब कि वहां पर अजमेर के राजा अजयपाल का स्मारक बनाना चाहिए था। पर्यटन की दृष्टि से पुष्कर घाटी में सांझी छत बनाई गई, जिसका कोई उपयोग नहीं हो पाया, उसके बजाय वहां अजयपाल की अश्वारोही प्रतिमा स्थापित की जानी चाहिए। माना कि जो भी स्मारक बनाए गए हैं, उनका महत्व है, मगर राजा अजयपाल का भी महत्व कम नहीं है। माना कि अजमेर के निकट ही अजयपाल का मंदिर है, वह पर्यटन स्थल है, मगर वहां आम आदमी का पैर नहीं पडता। इसलिए अजयपाल को महत्व देने के लिए अजमेर में ही उनका स्मारक बनाया जाना चाहिए।

https://youtu.be/JENwdEG2Zm4

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

औंकारसिंह लखावत सिंधी हैं?

औंकारसिंह लखावत सिंधी हैं? आपको यह जानकर निश्चित ही आश्चर्य होगा कि राजस्थान पुरा धरोहर प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत मूलतः सिंधी हैं। यह तथ्य किसी अन्य ने नहीं, अपितु स्वयं लखावत ने उद्घाटित किया। इतना ही नहीं उन्होंने खुद के सिंधी होने पर गर्व भी अभिव्यक्त किया।

दरअसल स्वामी न्यूज के एमडी कंवलप्रकाश किशनानी की पहल पर सिंधुपति महाराजा दाहरसेन विकास व समारोह समिति की ओर से महाराजा दाहरसेन के 1308वें बलिदान दिवस की पूर्व संध्या पर फेसबुक लाइव पर अंतरराष्ट्रीय ऑन लाइन परिचर्चा आयोजित की गई थी। ज्ञातव्य है कि अजमेर में महाराजा दाहरसेन के नाम पर एक बड़ा स्मारक बनाने का श्रेय लखावत के खाते में दर्ज है। तब वे तत्कालीन नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष थे। जब उन्होंने यह स्मारक बनवाया, तब अधिसंख्य सिंधियों तक को यह पता नहीं था कि महाराज दाहरसेन कौन थे? लखावत ने दाहरसेन की जीवनी का गहन अध्ययन करने के बाद यह निश्चय किया कि आने वाली पीढियों को प्रेरणा देने के लिए ऐसे महान बलिदानी महाराजा का स्मारक बनाना चाहिए।

लखावत परिचर्चा के दौरान अपने धारा प्रवाह उद्बोधन में बहुत विस्तार से दाहरसेन के व्यक्तित्व व कृतित्व तथा सिंध के इतिहास की जानकारी दी। इसी दरम्यान प्रसंगवश उन्होंने बताया कि इन दिनों वे अपने पुरखों के बारे में पुस्तक लिख रहे हैं। प्राचीन पांडुलिपियों का अध्ययन करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके पूर्वज पाराकरा नामक स्थान के थे। जब और अध्ययन किया तो पता लगा कि पाराकरा सिंध में ही था। अर्थात वे मूलतः सिंधी ही हैं। उन्होंने इस बात पर खुशी जाहिर की कि उनके पूर्वज सिंध के थे और वे अपने आपको सिंधी होने पर गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अपनी बात रखते हुए उन्होंने चुटकी भी ली कि उनका मन्तव्य न तो राजनीति करना है और न ही वे टिकट मांगने जा रहे हैं।

बेशक, लखावत का रहस्योद्धाटन करने का मकसद कोई राजनीति करना नहीं होगा, मगर उनके सिंधी होने का तथ्य राजनीतिक हलके में चौंकाने वाला है। साथ ही रोचक भी। ऐसा प्रतीत होता है कि मूलतः सिंधी होने के कारण ही उनकी अंतरात्मा में सिंध के महाराजा दाहरसेन का स्मारक बनवाने का भाव जागृत हुआ होगा। दाहरसेन स्मारक बनवा कर अपने पूर्वजों व महाराजा दाहरसेन के ऋण से उऋण होने पर वे कितने कृतकृत्य हुए होंगे, इसका अनुभव वे स्वयं ही कर सकते हैं।

यहां यह स्पष्ट करना उचित ही होगा कि सिंधी कोई जाति या धर्म नहीं है। विभाजन के वक्त भारत में आए सिंधी हिंदू हैं और सिंधियों में भी कई जातियां हैं। जैसे राजस्थान में रहने वाले विभिन्न जातियों के लोग राजस्थानी कहलाते हैं, गुजरात में रहने वाले सभी जातियों के लोग गुजराती कहे जाते हैं, वैसे ही सिंध में रहने वाले और उनकी बाद की पीढियों के सभी जातियों के लोग भी सिंधी कहलाए जाते हैं। अतः लखावत के सिंधी होने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अजमेर नगर निगम के मेयर पद के चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार कमल बाकोलिया को उनके पिताश्री स्वतंत्रता सैनानी स्वर्गीय हरीशचंद्र जटिया के सिंध से होने का राजनीतिक लाभ हासिल हुआ था।

लखावत खुद को सिंधी बताते हुए कितने गद् गद् थे, इसको जानने के लिए आप निम्नांकित लिंक पर जा कर पूरी परिचर्चा यूट्यूब पर देख सकते हैं

https://www.youtube.com/watch?v=2rpcVNnMccA

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

ढ़ाई प्याला शराब पीती है देवी मां

ये सुनी-सुनाई बात नहीं। आंखों देखी है। काली माता की एक मूर्ति ढ़ाई प्याला शराब पीती है। यह नागौर जिले में मुख्यालय से 105 किलोमीटर दूर, रियां तहसील में, मेड़ता से जैतारण जाने वाले मार्ग पर स्थित गांव भंवाल के एक मंदिर में है। इसकी गिनती राजस्थान के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में होती है। इसकी बहुत मान्यता है। मंदिर तक जाने के लिए मेड़ता रोड में हर वक्त वाहन उपलब्ध रहते हैं।

तकरीबन तीस साल पहले मैंने स्वयं ने इस मंदिर के दर्शन किए थे। कुछ मित्रों के साथ एक जीप में मुझे वहां जाने का मौका मिला। वहां के नियम के मुताबिक, जिन भी मित्रों के पास बीड़ी-सिगरेट या तम्बाकू था, उसे मंदिर के बाहर ही रख दिया। चमड़े के बेल्ट व पर्स भी बाहर ही रखे। हमने शराब की एक बोतल के साथ मंदिर में प्रवेश किया। जब हमारा नंबर आया तो पुजारी ने हमसे बोतल लेकर उसे खोला और उनके पास मौजूद चांदी एक प्याले में शराब भरी। वह प्याला उन्होंने मूर्ति के होठों पर रखा। देखते ही देखते प्याला खाली हो गया। फिर दूसरा प्याला पेश किया। वह भी खाली हो गया। तीसरे प्याले में से आधा ही खाली हुआ। विशेष बात ये थी कि हम तो इस नजारे को थोड़ी दूर से देख रहे थे, मगर जब भी पुजारी प्याला मूर्ति के होंठों पर रखता तो खुद का मुंह हमारी ओर कर लेता। अर्थात वह स्वयं इस दृश्य को नहीं देख रहा था। कदाचित यह परंपरा रही हो कि पुजारी इस चमत्कार को बेहद नजदीक से नहीं देखता हो। हमारे लिए यह वाकई चमत्कार ही था। हमने जब पुजारी से इस बाबत पूछा कि यह कैसा चमत्कार है, तो उसने बताया कि कुछ बुद्धिजीवी और विज्ञान के विद्यार्थियों ने इसका रहस्य जानने की कोशिश की कि कहीं कोई तकनीक तो नहीं, मगर उन्हें भी चमत्कार को देख कर दातों तले अंगुली दबाने को विवश होना पड़ा। 


ऐसा नहीं कि मूर्ति हर व्यक्ति की शराब की बोतल ग्रहण कर रही हो। कुछ ऐसे भी थे, जिनकी बोतल देवी ने स्वीकार नहीं की। उनके बारे में बताया गया कि या तो अपनी जेब में चमड़े का पर्स या तम्बाकू पदार्थ लेकर गए थे, या फिर उनकी श्रद्धा में कहीं कोई कमी थी। इसे इस रूप में भी लिया जा रहा था कि देवी मां जिनकी मनोकामना पूर्ण करना चाहती हैं, केवल उनके हाथों लाई शराब ही ग्रहण करती हैं। 

मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी पता करने पर बताया गया कि भंवाल माता की मूर्ति खेजड़ी के एक पेड़ के नीचे प्रकट हुई थी। बताया जाता है कि इस स्थान पर राजा की फौज ने लूट के माल के साथ डाकुओं की घेराबंदी कर ली थी। इस पर उन्होंने काली मां को याद किया तो मां ने स्वयं प्रकट हो कर डाकुओं को भेड़-बकरियों के झुंड में तब्दील कर दिया। इस तरह से डाकू बच गए। उन्होंने ही लूट के माल से यहां मंदिर बनवाया था। वहां मौजूद शिलालेख के अनुसार मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 1119 में हुआ था। यह पुरातन स्थापत्य कला से पत्थरों को जोड़ कर बनाया गया था। यात्रियों के विश्राम के लिए बैंगाणी परिवार ने मंदिर के पास ही एक धर्मशाला बनवा रखी है।

इस मंदिर की एक और खासियत है कि तकरीबन 800 साल पुराने इस मंदिर को किसी धर्मात्मा या सज्जन ने नहीं, बल्कि डाकुओं ने बनवाया था।

मंदिर के गृभगृह में माता की दो मूर्तियां हैं। दायीं ओर ब्रह्माणी माता, जिन्हें मीठा प्रसाद चढ़ाते हैं। यह लड्डू या पेड़े या श्रद्धानुसार कुछ भी हो सकता है। बायीं ओर दूसरी प्रतिमा काली माता की है, जिनको शराब चढ़ाई जाती है।

-तेजवाणी गिरधर

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सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

प्रखर साहित्यकार हैं श्री मंगलसेन सिंगला

रेलवे में राजभाषा अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त अधिकारी मंगलसेन सिंगला अंग्रेजी के साथ-साथ साहित्यिक हिंदी के विद्वान एवं समालोचक हैं। हिंदी भाषा के मूर्धन्य विद्वान हैं। हिंदी के अतिरिक्त अंग्रजी पर भी उनकी गहरी पकड है। वे कुछ समय तक दैनिक न्याय में अनुवादक के रूप में सेवाएं दे चुके हैं। 

वे स्वभाव से दार्शनिक हैं। उनका एक स्वरचित काव्य संग्रह और श्री गीतमृत पद्मावली नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। अर्थशास्त्र का भी उन्होंने गहन अध्ययन किया है। उनकी सोच है कि आयकर को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने इस विषय की विस्तृत व्याख्या करते हुए समझाया है कि आयकर खत्म कर देने से अर्थव्यवस्था कैसे और मजबूत होगी। बाकायदा एक पुस्तिका बना कर उसे सरकार को भेज कर उस पर गौर करने का आग्रह किया है। वे अग्रवाल समाज, अजमेर, लोक स्वराज्य मंच, अम्बिकापुर (छत्तीसगढ़), सेवानिवृत्त रेल अधिकारी संस्था, अजमेर और सीनियर सिटिजंस सोसाइटी, अजमेर से जुड़े हुए हैं। उनका जन्म 13 फरवरी 1932 को श्री रामानंद के घर हुआ। उन्होंने विशारद (अंग्रेजी), बी.ए. (अंग्रेजी) और एम.ए. (हिंदी) की डिग्रियां हासिल की हैं।

उनकी तीक्ष्ण समालोचना का उदाहरण देखिए। उनसे जब अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक के लिए अपना परिचय भेजने का आग्रह किया तो उन्होंने अपने परिचय के साथ एक टिप्पणी भेज कर इस गाइड बुक के अंग्रेजी नामकरण को अरुचिकर बताया। साथ ही इसे भाषा, संस्कृति व इतिहास जैसे गंभीर विषयों के साथ खिलवाड़ की संज्ञा भी दी है। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनकी दीर्घायु व स्वास्थ्य की कामना करता है। 

शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

भूख भी एक यज्ञ है, समय पर आहुति दीजिए

बात तकरीबन 1990 की है। दैनिक न्याय में एक लेख प्रकाशित होने पर तत्कालीन प्रबंध संपादक स्वर्गीय श्री विश्वविभूति विदेह के विरुद्ध मुकदमा दर्ज हुआ। जैसा कि अखबार मालिकों के साथ कई बार हो जाता है। पुलिस उन्हें हिरासत में लेने को आई। शाम कोई सात बजे का समय था। हालांकि अखबार जगत के लिए इस प्रकार के मुकदमे व गिरफ्तारी कोई खास बात नहीं, मगर परिवार की महिलाओं के लिए तो यह बड़ी बात थी। महिलाएं रुआंसी थी। प्रधान संपादक स्वर्गीय बाबा श्री विश्वदेव शर्मा के भोजन का समय हो गया था। उसमें विलंब होने लगा तो वे बोले, अरे भाई भोजन परोस दो। बाबा की धर्मपत्नी, जिन्हें सब अम्मा जी कहा करते थे, बोलीं कि मेरे बेटे को गिरफ्तार करके ले जा रहे हैं और आपको लगी है खाने की। इस पर बाबा बोले के ये महज भूख व खाने की बात नहीं है। भोजन करना एक यज्ञ ही है। आमाशय में प्रकृति प्रदत्त अग्नि प्रज्ज्वलित है और उसे आहुति देना जरूरी है। अन्यथा विकृति उत्पन्न होगी। गिरफ्तारी व जमानत पर रिहाई आदि एक सामान्य घटनाक्रम है, मगर पेट का यज्ञ ज्यादा जरूरी है। वह समय पर ही होना चाहिए। ऐसे थे बिंदास व नियम के पक्के थे बाबा। कहने की जरूरत नहीं है कि वे पक्के आर्य समाजी थे। जिन्होंने उन्हें निकट से देखा है, वे मेरी बात की ताईद करेंगे। उस वक्त मुझ सहित अन्य को भी लगा कि क्या बाबा कुछ वक्त भूख पर नियंत्रण नहीं कर सकते, मगर बाद में विचार करने पर लगा कि वे सही कह रहे थे।

चलो, भोजन करना भी एक यज्ञ है, यह बाबा का नजरिया हो सकता है, मगर यदि स्वास्थ्य के लिहाज से भी देखें तो जिस नियत वक्त पर भूख लगती है, तब आमाशय में भोजन को पचाने वाले रसायनों का स्राव शुरू हो जाता है। भूख लगती ही उन रसायनों के कारण है। अगर हम भोजन नहीं करते तो वे रसायन आमाशय को नुकसान पहुंचाते हैं। हो सकता है कि हम यह कह कर उपहास उड़ाएं कि क्या भूख पर काबू नहीं कर सकते? बेशक काबू कर सकते हैं, मगर फिर हमें उसके शरीर पर पडने वाले दुष्प्रभाव के लिए भी तैयार रहना चाहिए।

मैने देखा है कि सरकारी कर्मचारी तो लंच टाइम होने पर समय पर भोजन कर लेते हैं, मगर व्यापारियों को ऐसी कोई सुविधा नहीं। लंच टाइम पर भी ग्राहकी लगी रहती है। मैने ऐसे कई व्यापारी देखे हैं, जो भोजन की नियमितता का पूरा ख्याल रखते हैं और कितनी भी ग्राहकी हो, टाइम पर ही भोजन करते हैं। गुजरात में तो कई व्यापारी लंच टाइम पर दुकान मंगल कर घर जा कर भोजन करते हैं और तनिक आराम करने के बाद दुकान खोलते हैं।

 

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025

अजमेर के वजूद में है रेलवे का अहम किरदार

माना जाता है कि अजमेर का वजूद दरगाह, पुष्कर और कुछ राज्य स्तरीय दफ्तरों के साथ रेलवे की वजह से है। इनके सिवाय अजमेर कुछ भी नहीं। उसमें भी यहां की अर्थव्यवस्था का एक केन्द्र यदि रेलवे को कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। रेलवे में काम कर रहे तकरीबन दस हजार कर्मचारियों का करीब सत्तर करोड़ रुपए का सालाना वेतन यहां की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है। जाहिर तौर पर बाजार पर इसका असर दिखाई देता है। इतना ही नहीं रेलवे के कबाड़ ने भी यहां की आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित किया है। कई लोगों ने रेलवे के कबाड़ को खरीदने के धंधे को अपनाया और आज वे करोड़पति हैं। वही पैसा अन्य व्यवसायों में खर्च होने के कारण यहां की आर्थिक प्रगति का हिस्सा बना है। देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुुंबई को जोडऩे वाली यहां की रेलवे लाइन जाहिर तौर पर यहां के व्यापार की रीढ़ की हड्डी है। 

सब जानते हैं कि अजमेर में रेलवे का सफर काफी पुराना है। आजादी से पहले राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहे अजमेर में अंग्रेजों ने रेलवे के विकास पर विशेष ध्यान दिया। अजमेर में रेलवे का इतिहास कितना पुराना है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अजमेर सबसे पहले आगरा से रेल मार्ग से सन् 1875 में जोड़ा गया और सन् 1876 में ही बॉम्बे बड़ौदा एंड सेंट्रल इंडियन रेलवे कंपनी ने यहां मीटरगेज सिस्टम के लोकोमोटिव वर्कशॉप की स्थापना कर दी थी। इसको वर्कशॉप पश्चिम रेलवे का प्रमुख व उत्तर पश्चिम रेलवे का सबसे बड़ा कारखाना होने का गौरव हासिल है। भारतीय रेलवे के करीब एक सौ साठ साल के इतिहास में सन् 1885 को स्वर्णाक्षरों में लिखा गया, जब यहां देश का पहला लोकोमोटिव (इंजन) बनाया गया। अब यह नई दिल्ली में नेशनल रेल म्यूजियम में अजमेर का नाम रोशन कर रहा है। इसी वर्कशॉप से पहले व दूसरे विश्व युद्ध में कलपुर्जे व युद्ध सामग्री अफ्रीका व ऐशियाई देशों में भेजी गई। यह वर्कशॉप बाद में वक्त की रफ्तार के साथ बदला और 1979 में यहां पहला डीजल इंजन रखरखाव के लिए अजमेर आया। भाप के आखिरी इंजन सन् 1985 में दुरुस्त कर भेजा गया। इसी प्रकार मई 1997 में पहला ब्रॉडगेज वैगन यहां दुरुस्त कर भेजा गया और अप्रैल 2000 में पहली मीटरगेज ड्यूमेटिक ट्रैक मशीन व जून 2001 में ब्रॉडगेज यूनिमेट ट्रेक मशीन की मरम्मत की गई। 

केरिज व लोको कारखाने के ढ़लाईखाने भारतीय रेल की शान रहे हैं। उसे लोकोमोटिव सेंट्रल वर्कशॉप ऑफ दी राजपूताना-मालवा रेलवे, अजमेर कहा जाता था। केरिज कारखाने में स्टील ढ़ालने का विशाल ढ़लाईखाना भिलाई के इस्पात कारखाने के समकक्ष माना जाता था। केरिज का ढ़लाईखाना तो वर्षों पहले बंद हो गया, लोको का ब्रेक ब्लॉक्स बनाने वाला ढ़लाई कारखाना भी सिमटता चला गया। हालांकि यहां स्थापित रेलवे मंडल कार्यालय जोन मुख्यालय बनने की सर्वाधिक पात्रता रखता था, परंतु राजनीतिक कारणों से इसे वह दर्जा हासिल नहीं हो पाया और जोन मुख्यालय जयपुर में स्थपित हो गया। 

-तेजवाणी गिरधर 7742067000

अजमेर एट ए ग्लांस से साभार

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

अजमेर को राष्ट्रीय जैन तीर्थ स्थल बनाने की मांग के मायने?

सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह के दीवान हजरत जैनुल आबेदीन अली खान ने जैसे ही अजमेर को राष्ट्रीय स्तर पर जैन तीर्थ स्थल घोषित करने की मांग प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से की है, एक नई बहस छिड गई है। उसके अनेक पहलु हैं। जहां तक निरपेक्ष रूप से मांग का सवाल है तो लोकतंत्र में अपनी राय जाहिर करने अथवा मांग रखने का सभी को अधिकार है। दूसरा यह मांग सकारात्मक है, नकारात्मक नहीं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि किसी समय में अजमेर में जैन संस्कृति का बोलबाला था। उसके बाकायदा प्रमाण मौजूद हैं। बेशक दीवान साहब की मांग को सद्भाव बढाने की दिशा में एक बडा कदम कहा जा सकता है। अगर जैन समाज मांग करे तो उसमें कुछ भी अनूठा नहीं होता, लेकिन ख्वाजा साहब के वंशज ऐसा प्रस्ताव रखें तो वह चौंकाता तो है। अब लोग कयास लगा रहे हैं कि या तो दीवान साहब ने जैन समाज के प्रतिनिधियों के सामने सद्भाव स्वरूप ऐसा कह दिया होगा, या फिर बहुत सोच समझ कर ऐसा किया। उनकी इस मांग के गहरे निहितार्थ होने ही चाहिएं। वो इसलिए कि वे बहुत महत्वपूर्ण पद पर बैठे हैं। जो लोग उन्हें नजदीक से जानते हैं, उनको पता है कि वे कितने तीक्ष्ण बुद्धि हैं और विवेकपूर्ण व तर्कसंगत बात करते हैं। एक अर्थ में कानून की किताब ही हैं। उन्हें यह निश्चित की ख्याल में होगा कि वे जिस पद पर बैठ कर ऐसी बात कर रहे हैं, उसे किस अर्थ में लिया जाएगा? उसकी प्रतिध्वनि क्या हो सकती है? उनके दिमाग में चल रही कुकिंग का फिलवक्त अनुमान लगाना मुश्किल है। हो सकता है, अजमेर में सांप्रदायिक सौहार्द्र कायम रखने के लिए सर्वे भवंतु सुखिनः के भाव से उनकी कोई दूरदृष्टि हो। हो सकता है कि वे मौजूदा गरमाहट को डाइल्यूट करना चाहते हों। दिलचस्प बात ये रही कि हिंदू सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने इस बॉल को तुरंत लपक लिया। विष्णु गुप्ता ने अपने बयान में दरगाह दीवान की मांग का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि दरगाह दीवान कम से कम यह मानने को तैयार हो गए कि यह जैनियों का तीर्थ स्थल है। हमने भी दावे में शिव मंदिर होने के साथ जैन मंदिर होने का दावा किया था। इस घोषणा से हमारे केस को मजबूती मिलेगी। एक दिन यह भी सामने आएगा कि दरगाह में भगवान शिव का संकट मोचन मंदिर तोड़कर दरगाह बनाई गई है। अगर अजमेर जैन तीर्थ स्थल घोषित होता है तो मैं चाहता हूं कि सभी हिंदू उसका स्वागत करें। यानि उन्हें इस बात से संतुष्टि है कि गाडी पटरी पर आधी तो आ गई। जाहिर है उनके दिमाग में होगा कि भले ही जैन अलग धर्म है, मगर जैनी सांस्कृतिक दृष्टि से हिंदुओं के करीब हैं, लिहाजा अजमेर को जैन तीर्थ क्षेत्र घोषित करने पर हिंदुओं को कोई बडा ऐतराज नहीं होगा, क्योंकि सनातनी बहुत सहिष्णु हैं। अब तक सभी को आत्मसात करते आए हैं। फिलवक्त खुद्दाम हजरात, मुस्लिम जमात, सनातन धर्मियों आदि की ओर से कोई मजबूत प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। हो सकता है कि उनको लगता हो कि मांग पूरी होने की उम्मीद है नहीं, लिहाजा उसे तूल दिया ही क्यों जाए? कदाचित किंकर्तव्यविमूढता हो या मौन स्वीकृति।

इस प्रकरण को पिछले दिनों जैन संत सुनील सागर जी महाराज के ससंघ तीस साधु संतों के साथ ढाई दिन के झोंपडे का विहार करने से जोड कर देखा जा सकता है। उनके साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता भी उपस्थित थे। एक चबूतरे पर बैठ कर आचार्य सुनील सागर ने कहा कि जिसकी विरासत है, उसे मिलनी चाहिए, लेकिन इसमें कोई विवाद या झगड़ा फसाद न हो। उन्होंने कहा कि यहां संस्कृत पाठशाला व मंदिर के साथ जैन मंदिर भी रहा होगा। मैने नसियांजी में कुछ मूर्तियां देखी तो बताया गया कि वे अढाई दिन का झौंपडा में खुदाई के दौरान मिली थीं। उनके इस बयान का यह अर्थ निकाला गया कि उनके मार्गदर्शन में ढाई दिन के झोपड़े को लेकर कोई व्यूह रचना की जाएगी। दीवान साहब का बयान उनकी मंशा के अनुकूल भी है।

बहरहाल, इस मामले में एक सोच यह भी है कि अजमेर तो दरगाह ख्वाजा साहब व तीर्थराज पुष्कर की वजह से पहले से तीर्थ स्थल है। यहां हिंदू श्रद्धा के साथ व मुस्लिम अकीदत के साथ आते हैं। यानि वे पर्यटक नहीं, बल्कि तीर्थयात्री हैं। अजमेर को विभिन्न संस्कृतियों का संगम बताते हुए अब तो पुष्कर व दरगाह के साथ नारेली तीर्थ, साईं बाबा मंदिर, गिरिजाघर व गुरूद्वारे का नाम भी लिया जाता है। अर्थात यह सभी धर्मों का संयुक्त तीर्थस्थल है। तो इसे अलग से जैन तीर्थ स्थल घोषित करने की जरूरत क्या है?

वैसे एक बात पक्की है कि अजमेर का फैब्रिक मौलिक रूप से ऐसा है कि तमाम आशकाओं के बावजूद यहां का सांप्रदायिक सौहार्द्र का तानाबाना सदैव कायम रहने वाला है।

-तेजवाणी गिरधर

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बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

दरगाह शरीफ में मनाया गया वसंत उत्सव

अजमेर में ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में हर साल मनाया जाने वाला पारंपरिक वसंत उत्सव 4 फरवरी 2025 को हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हुआ। दरगाह के शाही चौकी के कव्वाल असरार हुसैन के परिवार के लोगों ने परंपरा अनुसार बसंत की पेशकश की। यह रस्म दरगाह दीवान की सदारत में अदा की गई। बसंत जुलूस निजाम गेट से शुरू हुआ, जिसमें शाही कव्वालों ने अमीर खुसरो के प्रसिद्ध गीत गाते हुए वसंत का गुलदस्ता लेकर दरगाह की ओर कूच किया। गुलदस्ते को गरीब नवाज की मजार शरीफ पर चढ़ा कर परंपरा का निर्वहन किया गया। यह रस्म गंगा-जमुनी तहजीब और आपसी सौहार्द्र का प्रतीक है।

वसंत उत्सव चिश्ती परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे अमीर खुसरो की विरासत से जोड़ा जाता है। इसका मूल संत हजरत निजामुद्दीन औलिया से जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि जब उनके प्रिय शिष्य हजरत अमीर खुसरो ने वसंत ऋतु में महिलाओं को पीले वस्त्र पहन कर फूल चढ़ाते हुए देखा, तो उन्होंने भी अपने गुरु को खुश करने के लिए यह परंपरा शुरू की। तब से यह सूफी दरगाहों में वसंत मनाने की परंपरा चली आ रही है।


बहुआयामी व्यक्तित्व हैं सुपरिचित श्रमिक नेता व पत्रकार श्री कमल गर्ग

जाने-माने श्रमिक नेता रहे श्री कमल गर्ग ने 5 फरवरी 2025 को जीवन के अस्सी वसंत पूरे कर लिए। वे बहुआयामी व्यक्ति हैं। अजमेर के प्रमुख बुद्धिजीवियों में उनकी गिनती होती है। उनका जन्म 5 फरवरी 1945 को स्वर्गीय श्री किशनस्वरूप गर्ग के घर आंगन में हुआ। प्रथम वर्ष कला इंटर ड्राइंग मुम्बई, जी डी आर्च, फोटोग्राफी में रीजनल कॉलेज से विशेष प्रशिक्षण प्राप्त और औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्र से सिविल नक्शा नवीस डिप्लोमा किए हुए हैं। उन्होंने जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग को सन् 1963 से सेवाएं दीं और जुलाई 2000 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर नगर निगम व नगर सुधार न्यास के अधिकृत तकनीकी विज्ञ (नक्शा स्वीकृत करने हेतु) के रूप में काम शुरू किया। वर्तमान में अनुपम आर्कीटेक्चुरल वर्क्स का संचालन कर रहे हैं। उन्होंने 1965 में राजस्थान जलदाय कर्मचारी संघ का गठन किया और उसके संस्थापक महामंत्री और भारतीय मजदूर संघ के प्रांतीय उपाध्यक्ष रहे हैं। कांग्रेस शासन में दुर्भावनावश उनका तबादला जयपुर कर दिया गया। वहां उन्होंने राजस्थान जलदाय कर्मचारी महासंघ (भारतीय मजदूर संघ) का गठन किया। चित्तौड़ स्थानांतरण किए जाने पर कपासन, बेगूं, प्रतापगढ़, छोटी सादड़ी, बांसवाड़ा आदि में संगठन की गतिविधियों को आगे बढ़ाया। स्वास्थ्य कारणों से पदावनति ले कर अजमेर लौटे और भामसं के प्रांतीय महामंत्री श्री शेखावत से मनमुटाव होने पर भामसं छोड़ा व इंटक में शामिल हो कर इंटक समन्वय समिति के अध्यक्ष रहे। इसके बाद स्वतंत्र संगठन राजस्थान प्रावेधिक कर्मचारी संघ के प्रांतीय अध्यक्ष रहे व जन स्वास्थ्य अभियांत्रिक कर्मचारी संघ के केन्द्रीय मंत्री के रूप में काम किया। उन्होंने अजमेर जलदाय कर्मचारी बचत व साख समिति व अनुपम गृह निर्माण सहकारी समिति के अध्यक्ष पद का कार्यभार भी संभाला। खेलों में उनकी विशेष रुचि है। उन्होंने 1966 में नेहरू स्मृति खेलकूद प्रतियोगिताओं में अजमेर की पहली टीम के मैनेजर के रूप में नेतृत्व किया। लेखन के प्रति भी उनका रुझान रहा और उन्होंने अनेक संगठनों की स्मारिकाओं का संपादन किया। वे अनेक सामाजिक संस्थाओं में भी सक्रिय रूप से भागीदारी निभा रहे हैं। वे वर्तमान में अग्रवाल समाज अजमेर, राजस्थान पेंशनर समाज, व्यापार महासंघ, लोहाखान, पुलिस लाइन्स के संरक्षक, सर्वेश्वर मित्र मंडल, अजमेर के कार्यकारिणी सदस्य और अजयमेरू टाइम्स व केसरपुरा टाइम्स के संपादक हैं। उनके छोटे भाई डॉ सुरेश गर्ग नगर पालिका सेवा के अधिकारी व शहर जिला कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहे हैं। उनके दूसरे छोटे भाई डॉ निर्मल गर्ग वरिष्ठ पत्रकार व कांग्रेस नेता हैं। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल श्री कमल गर्ग की दीर्घायु व स्वस्थ जीवन की कामना करता है।


मंगलवार, 4 फ़रवरी 2025

जैन संस्कृति का वर्चस्व रहा है प्राचीन अजमेर में

आज जब महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह के दीवान सैयद जैनुअल आबेदीन अली खां ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिख कर अजमेर को राष्ट्रीय स्तर पर जैन तीर्थस्थल घोषित करने की मांग की है, तो यकायक अजमेर के इतिहास पर गहरी पकड रखने वाले वरिश्ठ पत्रकार श्री शिव शर्मा के उस लेख का ख्याल आ जाता है, जो उन्होंने कुछ साल पहले लिखा था। उसमें उन्होंने साफ तौर पर लिखा है कि प्राचीन अजमेर में जैन संस्कृति का वर्चस्व रहा है।

वे लिखते हैं कि अजमेर की ऐतिहासिकता लगभग दो हजार ईस्वी पूर्व तक के समय का स्पर्श करती है। अजयमेरू शहर के अन्य नाम भी इतिहास व साहित्य की पुस्तकों में मिलते हैं, यथा अनन्तदेश, चश्मानगरी, पद्मावती नगरी आदि। राजपूताना गजेटियर्स में ही उल्लेख मिलता है कि किसी पद्मसेन नामक राजा ने यहां पद्मावती नगरी बसाई थी। इसका विस्तार पुष्कर, किशनपुरा, नरवर और बड़ली गाँव तक था। लोक समाज में यह बात भी प्रचलित है कि अजमेर से खुण्डियास गांव तक 108 झालरे बजती थी, अर्थात इतने मंदिर थे। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि इन्द्रसेन नाम के जैन राजा ने यहां इन्दर कोट बनवाया जो आज अन्दर कोट के नाम से जाना जाता है।
किशनपुरा और नरवर में आज भी खुदाई के दौरान जो ईंट और स्तम्भ निकलते हैं, वे जैन मंदिरों व भवनों के अवशेष जैसे लगते हैं। अजमेर के क्रिश्चियन गंज के आगे जो जैन आचार्यों की छतरियां हैं, उनमें प्राचीनतम छतरी छठी-सातवीं सदी की हैं। इसी भांति वर्तमान दरगाह बाजार क्षेत्र में पांचवीं-छठी सदी के दौरान वीरम जी गोधा ने विशाल जैन मंदिर बनवाया था और उसमें पंच कल्याणक महोत्सव भी सम्पन्न हुआ। इससे भी प्रमाणित होता है कि यहां उस समय जैन संस्कृति विकसित अवस्था में थी। 760 ईस्वी में भट्टारक धर्म कीर्ति के शिष्य आचार्य हेमचन्द्र का यहां निधन हुआ, जिनकी छतरी आज भी विद्यमान है। सन् 776 ईस्वी में पुनरू एक जैन मंदिर का निर्माण एवं पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। इसके 175 वर्ष बाद वीरम जी गोधा ने श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण व पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कराया। यह मंदिर आज भी गोधा गवाड़ी में स्थित है। बारहवीं सदी में ही यह नगर जैन आचार्य जिनदत्त सूरी की कर्मस्थली रहा। उनका देहान्त भी यहीं हुआ और उस स्थान पर आज विख्यात दादाबाड़ी बनी हुई है। इससे पहले का एक दृष्टान्त है कि अजयराज चौहान ने भी पार्श्वनाथ जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया। अजयराज से पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) के समय तक अजमेर, नरायना व पुष्कर में जैन विद्वानों के अनेक शास्रार्थ होते रहने के उल्लेख भी इतिहास में मिलते हैं। यहां भट्टारकों की पीठ भी स्थापित की गई और लगभग पांच सौ वर्ष में इन जैन विद्वानों ने हजारों ग्रंथों की प्रतिलिपि तैयार की तथा नये ग्रन्थ भी लिखे। ऐसे कई ग्रन्थ सरावगी मौहल्ला स्थित बड़े मंदिर में सुरक्षित बताए जाते हैं।
सन् 1160 ईस्वी में राजा विग्रहराज विशालदेव चौहान ने जैन आचार्य धर्मघोष की सलाह पर यहां एकादशी के दिन पशुवध पर रोक लगा दी। ऐसे ही 1164 ईस्वी में आचार्य जिनचन्द्र सूरी ने अपने गुरु आचार्य जिनदत्त सूरी की याद में सुन्दर स्तम्भ बनवाया। तत्पश्चात् 1171 में यहां जैन समाज ने विशाल पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न कराया। इसके बाद पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) का पतन होते ही अजमेर की हालत भी बिगडने लगी। सल्तनत काल के दौरान तो यहां बहुत अधिक अस्थिरता रही। फिर भी भट्टारकों के द्वारा जैन ग्रंथों का कार्य होता रहा। फिर मुगल मराठा काल में यह नगर 30 से भी अधिक युद्धों का साक्षी बना और सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ गया। अंग्रेजों के समय यहां पुनरू जैन मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ और साथ ही साथ जैन संस्कृति को भी विस्तार मिला और अब नारेली गांव में जो ज्ञानोदय तीर्थ विकसित हो रहा है, वह इस शहर में जैन संस्कृति की सनातन विकास परम्परा का ही चरम उत्कर्ष है।

श्रीमती कमला चन्द्र गोकलानी : सिंधी साहित्य जगत में जिनकी धाक है

हिंदुस्तान के विभाजन होने के दौरान अपनी सभ्यता व संस्कृति की रक्षा के लिए जमीन-जायदाद सब कुछ का त्याग कर सिंध प्रांत से अजमेर आए परिवारों ने अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने आपको स्थापित किया। इन परिवारों की कई शख्सियतों ने अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से सिंधी समाज का नाम रोशन किया। श्रीमती कमला चंद्र गाकलानी उन में शुमार हैं, जिन्होंने कड़ी मेहनत और लगन से देश-विदेश में सिंधी साहित्य जगत में परचम फहराया है। वे युवा साहित्यकारों की प्रेरणा स्रोत हैं।

उनका जन्म 16 जून 1950 को अजमेर में हुआ। उन्होंने एमए-एमएड तक शिक्षा अर्जित की। बाद में राजकीय महाविद्यालय से जून 2010 में पत्रकारिता में डिप्लोमा भी किया। मात्र 18 वर्ष की आयु से अध्यापिका का जीवन आरंभ किया और राजकीय महाविद्यालय में सिंधी विभाग के हैड ऑफ दि डिपार्टमेंट के रूप में 2010 सेवानिवृत्त हुईं। वे मुंबई यूनिवर्सिटी से 1994 में पीएचडी करके भारत की प्रथम सिन्धी लिटिरेचर महिला कहलायीं। सिंधी भाषा के विकास व विस्तार में उनका योगदान हमेशा याद किया जाता रहेगा। उनकी अब तक पचास से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी मूल पुस्तकों का तेलुगू, उर्दू, पंजाबी और हिन्दी में भी अनुवाद हो चुका है। उनके लेख, कहानियां, कविताएं समाचार पत्रों व पत्रिकाओं और साहित्य की पुस्तकों में प्रकाशित होती रहती हैं। भाषा पर अच्छी पकड़ के साथ सुमधुर वाणी से संपन्न श्रीमती गोकलानी अनेकानेक बड़े आयोजनों में मंच संचालन की भूमिका निभाती रही हैं। टीवी व आकाशवाणी में अनेक कार्यक्रम दे चुकी हैं। आपको अनेक बार भारत सरकार द्वारा साहित्य पर पुरस्कार दिए गए हैं, जिनमें एनसीपीएसएल की ओर से दो बार दिए गए राष्ट्रीय अलंकरण शामिल हैं। उनको एनसीपीएसएल की फाउण्डर मेम्बर होने का भी गौरव हासिल है। उनको राष्ट्रीय स्तर का अखिल भारतीय सिंधी बोली अई साहित्य सभा का उच्च पुरस्कार दिया गया है। वे राजस्थान सिंधी अकादमी की पांच बार सदस्य रही हैं। उनको राज्य स्तर पर अनेक बार सम्मानित किया जा चुका है, जिसमें प्रतिष्ठित सामी पुरस्कार शामिल है।

सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

काको आडवाणी, मामो मोटवाणी

काको आडवाणी, मामो मोटवाणी। क्या यह जुमला आपने सुना है? नई पीढी को तो नहीं, मगर पुरानी पीढी के राजनीति के जानकारों को ख्याल में होगा कि यह नारा अजमेर में तब उछाला गया था, जब कांग्रेस ने सन् 1996 के लोकसभा चुनाव में एक लाख सिंधी मतदाताओं के मद्देनजर स्वर्गीय श्री किशन मोटवाणी को भाजपा के स्वर्गीय प्रो रासासिंह रावत के सामने मैदान में उतारा था। कांग्रेस हाईकमान का ख्याल था कि उन्हें कांग्रेस विचारधारा के अनुसूचित जाति व मुस्लिमों के वोट तो मिलेंगे ही, भाजपा मानसिकता के सिंधी वोट भी जातिवाद के नाम पर मिलेंगे। मगर यह प्रयोग विफल हो गया। मोटवानी 38 हजार 132 वोटों से पराजित हो गए। असल में भाजपा व आरएसएस को आशंका थी कि कांग्रेस के सिंधी प्रत्याशी के नाते सिंधी मतदाता उस ओर न झुक जाएं, इसलिए कि काको आडवाणी, मामो मोटवाणी का नारा घर-घर पहुंचा दिया था। पारिवारिक लिहाज से काका मामा से अधिक करीब होता है। यानि सिंधियों के वोट आडवाणी के नाम पर हासिल किए गए। आरएसएस का दाव सफल हो गया। बेशक, कुछ सिंधियों के वोट मोटवाणी को मिले थे, मगर बताते हैं कि उनका प्रतिशत मात्र 15 के आंकडे तक ठहर गया। वो भी इसलिए कि वे सिंधी समाज में काफी सक्रिय थे। साथ ही जाने-माने वकील थे। उन दिनों कुछ सिंधी परिवार परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ जुडे हुए थे। मोटवाणी के बाद कांग्रेस में सिंधी लीडरशिप ठीक से डवलप नहीं हो पाई, नतीजतन कांग्रेस विधारधारा के दूसरी श्रेणी के सिंधी नेताओं की औलादें शनैः शनैः भाजपा से जुड चुकी हैं। बहरहाल, मोटवाणी के चुनाव से यह स्थापित हो गया कि सिंधी मतदाता भाजपा से गहरे जुडे हुए हैं। उन्हें कांग्रेस का सिंधी प्रत्याशी आकर्षित नहीं कर सकता। इसी अवधारणा के चलते कांग्रेस हाईकमान ने अजमेर उत्तर में पिछले चार चुनावों से गैर सिंधी का प्रयोग किया है। हालांकि इसका परिणाम यह है कि इसी के चलते सिंधी मतदाता पूरी तरह से लामबंद हो कर भाजपा के सिंधी प्रत्याशी वासुदेव देवनानी से जुड जाते हैं। जो थोडे बहुत कांग्रेस विचारधारा के हैं, वे भी सिंधीवाद के चलते भाजपा की झोली में गिर जाते हैं। कांग्रेस के प्रति नाराजगी के कारण उनका मतदान प्रतिशत भी बढ जाता है। केवल इसी वजह से कांग्रेस को अजमेर दक्षिण में भी हार का सामना करना पड रहा है।


तारादेवी व मीनाक्षी यादव ने अभी से ठोक दी ताल

हालांकि अजमेर नगर निगम के चुनाव अभी दूर हैं, लेकिन चुनाव लडने के इच्छुक नेता अंदरखाने तैयारी कर रहे हैं। राजस्थान अनुसूचित जाति आयोग के पूर्व सदस्य प्रताप यादव की पत्नी श्रीमती तारा देवी यादव व पुत्री मीनाक्षी यादव ने तो अभी से वार्ड छह व सात में ताल ठोक दी है। ज्ञातव्य है कि पिछले चुनाव में गफलत या साजिश के चलते चुनाव चिन्ह मिल कर भी नहीं मिल पाया था। कांग्रेस के चंद वरिष्ठतम नेताओं में एक प्रताप यादव के परिवार के लिए यह एक गहरी राजनीति चोट थी। राजनीति में इस परिवार की कितनी भागीदारी रही है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यादव दो बार व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती तारा देवी यादव तीन बार पार्षद रही हैं। साजिश का शिकार परिवार मायूस नहीं हुआ। कांग्रेस में लगातार सक्रिय बना रहा। पार्टी के सभी कार्यक्रमों निरंतर उपस्थिति दर्ज करवाई। विशेष रूप से मीनाक्षी यादव ने अतिरिक्त सक्रियता दिखाई। वे प्रदेश महिला कांग्रेस की सचिव हैं। वैसे उनकी तैयारी तो अजमेर दक्षिण विधानसभा सीट के टिकट की दावेदारी करने की है, लेकिन फिलवक्त लक्ष्य में निगम चुनाव को रखा है। हाल ही यादव ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर पत्नी व पुत्री की वार्ड छह व सात से दावेदारी करते हुए ताल ठोक दी है। ज्ञातव्य है कि इन वार्डों में इस परिवार की गहरी पकड है। यादव क्षेत्र की समस्याओं के लिए निरंतर आवाज उठाते रहते हैं।

शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

स्वामी श्री हिरदाराम जी की गाली निहाल कर देती थी

अगर हमें कोई गाली दे तो स्वाभाविक रूप से हमें बुरा लगता है। गुस्सा आता है। मगर क्या आप यह मान सकते हैं कि कोई आपको गाली दे और आप खुश हो जाएं, आल्हादित हो जाएं। जी हां, अजमेर में एक ऐसी महान हस्ती गुजरी है, जिनकी गाली खा कर आदमी खुश हो जाता था। उनकी गाली को प्रसाद के रूप में लेता था। चंद लोगों को ही पता है कि वह शख्सियत थी स्वामी श्री हिरदाराम जी। वे अपने किस्म के अनूठे संत थे। सहज, सरल, अलमस्त, अत्यंत दयालु, आडंबर से कोसों दूर, प्रसिद्धि व सम्मान की तनिक भी चाह नहीं। निःस्वार्थ भाव से प्राणी मात्र की सेवा ही उनकी साधना थी। उनका एक जुमला प्रसिद्ध है- बूढे, बच्चे और बीमार, हैं परमेश्वर के यार, करें भावना से इनकी सेवा, पाएंगे लोक परलोक में सुख अपार। 

पुष्कर में एक छोटे से आश्रम में रहते थे, जिसे हिरदारामजी की कुटिया कहा जाता है। अकाल के दौरान उनकी प्रेरणा से जीव सेवा समिति ने अजमेर जिले में सैकडों प्याऊ खोली थीं। अभाव ग्रस्त गांवों में टैंकरों से पानी की टैंकर सप्लाई किए गए। उनकी ही प्रेरणा से दयाल वीना डायग्नोस्टिक सेंटर व पागारानी हॉस्पीटल संचालित हैं। उनकी स्मृति में अजमेर में हर साल निःशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर और यूरोलॉजी कैम्प आयोजित होते हैं। बैरागढ भोपाल में उनके नाम से जनसेवा के बीसियों प्रोजेक्ट संचालित हैं। ऐसी महान हस्ती के अनुयाइयों के अनूठे अनुभव हैं। वे उनकी कृपा पाने को आतुर रहते थे। उनके आदेश की पालना को तत्पर रहते थे। उनके आशीर्वाद से अनेक श्रद्धालुओं के जीवन परिवर्तित हो गए। अगर वे किसी को सहज भाव में गाली दे देते तो वह अपने आपको धन्य समझता था। ऐसे अनेक प्रसंग हैं कि जिन को उन्होंने गाली दे कर पुकारा वह मालामाल हो गया, निहाल हो गया। कैसी अनूठी कीमिया रही होगी। किसी पर कृपा बरसाने का अनोखा तरीका।