मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025
इसे कहते हैं लोकप्रियता
गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025
125 साल पहले बना था अजमेर का गांधी भवन
गांधी भवन में शाम को आठ बजे बच्चों वाली लायब्रेरी वाले कमरे की खिड़की पर बड़ा सा लाउडस्पीकर लगा कर आकाशवाणी के समाचारों का प्रसारण किया जाता था। इन समाचारों को सुनने के लिए जन साधारण की भीड़ से बगीचा भर जाता था।
गांधी भवन के बगीचे में एक बार वार्ड मेम्बरों की लंबी हड़ताल चली थी और पूरा शहर देखने आता था, जैसे कोई मेला लगा हो। अब भी यह शहर का सर्वाधिक व्यस्त रहने वाला चौराहा है।
मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025
जिंदादिल पुलिस अधिकारी श्री बलराज खोसला नहीं रहे
-तेजवाणी गिरधर
7742067000
रविवार, 16 फ़रवरी 2025
सिंधी पत्रकारिता के स्तम्भ श्री हरीश वरियानी नहीं रहे
उनका जन्म 30 मई 1949 को सिन्ध के नसरपुर में श्री धर्मदास वर्यानी के घर हुआ। उन्होंने श्रमजीवी कॉलेज से 1968 में बीए किया। 29 मई 1975 को विवाह हुआ। सन् 1975 से 1983 तक कचहरी रोड स्थित बाइडिंग वर्क और अजमेर आर्ट प्रिंटर्स में मुद्रण का कार्य संभाला। कपड़े का व्यवसाय भी किया। 1975 में आपके परिवार ने सिंधी दैनिक अखबार हिन्दू शुरू किया। इसके अहमदाबाद व मुम्बई में भी संस्करण हैं। 1981 से 2006 तक आप द्वारा, उसके बाद आपके परिवार द्वारा संत कंवरराम साप्ताहिक का प्रकाशन किया जा रहा है। सितम्बर 2009 से दैनिक हिन्दू का जयपुर संस्करण भी प्रारंभ किया। जयपुर से 2012 में कंचन केसरी हिन्दी दैनिक आरम्भ किया है। वे अजमेर जिला पत्रकार संघ एवं अजयमेरू जिला पत्रकार संघ, अजमेर सिंधी सेंट्रल महासमिति, वैशाली सिंधी समाज व वैशाली नगर स्थित हेमू कालाणी पार्क समिति, तोपदड़ा स्थित झूलेलाल धर्मशाला ट्रस्ट, सिंधु दीप संस्था में महत्वपूर्ण पदों पर रहे। तीन बार राजस्थान सिंधी अकादमी के सदस्य रहे। आकाशवाणी, जयपुर पर उनकी अनेक वार्ताएं प्रसारित हुईं। उनके सुपुत्र श्री कमल वरियानी उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर सिंधी भाषा की सेवा करते रहे हैं। जाहिर है आगे भी वे उस मशाल को प्रज्ज्वलित रखेंगे।
अजमेर में चौरसियावास रोड स्थित श्रीनिवास कॉलोनी निवासी 75 वर्षीय श्री वरियानी पिछले कुछ समय से बीमार थे और जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के आईसीयू में अंतिम सांस ली। उनके निधन से सिंधी समाज व पत्रकार जगत में दुख की लहर छा गई। उनकी अंतिम यात्रा सोमवार को उनके निवास से आंतेड स्थित श्मशान के लिए सुबह 11 बजे रवाना होगी। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनके निधन पर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
शनिवार, 15 फ़रवरी 2025
प्रथम राजा अजयपाल का स्मारक क्यों नहीं बनाया?
https://youtu.be/JENwdEG2Zm4
गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025
औंकारसिंह लखावत सिंधी हैं?
दरअसल स्वामी न्यूज के एमडी कंवलप्रकाश किशनानी की पहल पर सिंधुपति महाराजा दाहरसेन विकास व समारोह समिति की ओर से महाराजा दाहरसेन के 1308वें बलिदान दिवस की पूर्व संध्या पर फेसबुक लाइव पर अंतरराष्ट्रीय ऑन लाइन परिचर्चा आयोजित की गई थी। ज्ञातव्य है कि अजमेर में महाराजा दाहरसेन के नाम पर एक बड़ा स्मारक बनाने का श्रेय लखावत के खाते में दर्ज है। तब वे तत्कालीन नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष थे। जब उन्होंने यह स्मारक बनवाया, तब अधिसंख्य सिंधियों तक को यह पता नहीं था कि महाराज दाहरसेन कौन थे? लखावत ने दाहरसेन की जीवनी का गहन अध्ययन करने के बाद यह निश्चय किया कि आने वाली पीढियों को प्रेरणा देने के लिए ऐसे महान बलिदानी महाराजा का स्मारक बनाना चाहिए।
लखावत परिचर्चा के दौरान अपने धारा प्रवाह उद्बोधन में बहुत विस्तार से दाहरसेन के व्यक्तित्व व कृतित्व तथा सिंध के इतिहास की जानकारी दी। इसी दरम्यान प्रसंगवश उन्होंने बताया कि इन दिनों वे अपने पुरखों के बारे में पुस्तक लिख रहे हैं। प्राचीन पांडुलिपियों का अध्ययन करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके पूर्वज पाराकरा नामक स्थान के थे। जब और अध्ययन किया तो पता लगा कि पाराकरा सिंध में ही था। अर्थात वे मूलतः सिंधी ही हैं। उन्होंने इस बात पर खुशी जाहिर की कि उनके पूर्वज सिंध के थे और वे अपने आपको सिंधी होने पर गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अपनी बात रखते हुए उन्होंने चुटकी भी ली कि उनका मन्तव्य न तो राजनीति करना है और न ही वे टिकट मांगने जा रहे हैं।
बेशक, लखावत का रहस्योद्धाटन करने का मकसद कोई राजनीति करना नहीं होगा, मगर उनके सिंधी होने का तथ्य राजनीतिक हलके में चौंकाने वाला है। साथ ही रोचक भी। ऐसा प्रतीत होता है कि मूलतः सिंधी होने के कारण ही उनकी अंतरात्मा में सिंध के महाराजा दाहरसेन का स्मारक बनवाने का भाव जागृत हुआ होगा। दाहरसेन स्मारक बनवा कर अपने पूर्वजों व महाराजा दाहरसेन के ऋण से उऋण होने पर वे कितने कृतकृत्य हुए होंगे, इसका अनुभव वे स्वयं ही कर सकते हैं।
यहां यह स्पष्ट करना उचित ही होगा कि सिंधी कोई जाति या धर्म नहीं है। विभाजन के वक्त भारत में आए सिंधी हिंदू हैं और सिंधियों में भी कई जातियां हैं। जैसे राजस्थान में रहने वाले विभिन्न जातियों के लोग राजस्थानी कहलाते हैं, गुजरात में रहने वाले सभी जातियों के लोग गुजराती कहे जाते हैं, वैसे ही सिंध में रहने वाले और उनकी बाद की पीढियों के सभी जातियों के लोग भी सिंधी कहलाए जाते हैं। अतः लखावत के सिंधी होने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अजमेर नगर निगम के मेयर पद के चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार कमल बाकोलिया को उनके पिताश्री स्वतंत्रता सैनानी स्वर्गीय हरीशचंद्र जटिया के सिंध से होने का राजनीतिक लाभ हासिल हुआ था।
लखावत खुद को सिंधी बताते हुए कितने गद् गद् थे, इसको जानने के लिए आप निम्नांकित लिंक पर जा कर पूरी परिचर्चा यूट्यूब पर देख सकते हैं
https://www.youtube.com/watch?v=2rpcVNnMccA
मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025
ढ़ाई प्याला शराब पीती है देवी मां
तकरीबन तीस साल पहले मैंने स्वयं ने इस मंदिर के दर्शन किए थे। कुछ मित्रों के साथ एक जीप में मुझे वहां जाने का मौका मिला। वहां के नियम के मुताबिक, जिन भी मित्रों के पास बीड़ी-सिगरेट या तम्बाकू था, उसे मंदिर के बाहर ही रख दिया। चमड़े के बेल्ट व पर्स भी बाहर ही रखे। हमने शराब की एक बोतल के साथ मंदिर में प्रवेश किया। जब हमारा नंबर आया तो पुजारी ने हमसे बोतल लेकर उसे खोला और उनके पास मौजूद चांदी एक प्याले में शराब भरी। वह प्याला उन्होंने मूर्ति के होठों पर रखा। देखते ही देखते प्याला खाली हो गया। फिर दूसरा प्याला पेश किया। वह भी खाली हो गया। तीसरे प्याले में से आधा ही खाली हुआ। विशेष बात ये थी कि हम तो इस नजारे को थोड़ी दूर से देख रहे थे, मगर जब भी पुजारी प्याला मूर्ति के होंठों पर रखता तो खुद का मुंह हमारी ओर कर लेता। अर्थात वह स्वयं इस दृश्य को नहीं देख रहा था। कदाचित यह परंपरा रही हो कि पुजारी इस चमत्कार को बेहद नजदीक से नहीं देखता हो। हमारे लिए यह वाकई चमत्कार ही था। हमने जब पुजारी से इस बाबत पूछा कि यह कैसा चमत्कार है, तो उसने बताया कि कुछ बुद्धिजीवी और विज्ञान के विद्यार्थियों ने इसका रहस्य जानने की कोशिश की कि कहीं कोई तकनीक तो नहीं, मगर उन्हें भी चमत्कार को देख कर दातों तले अंगुली दबाने को विवश होना पड़ा।
ऐसा नहीं कि मूर्ति हर व्यक्ति की शराब की बोतल ग्रहण कर रही हो। कुछ ऐसे भी थे, जिनकी बोतल देवी ने स्वीकार नहीं की। उनके बारे में बताया गया कि या तो अपनी जेब में चमड़े का पर्स या तम्बाकू पदार्थ लेकर गए थे, या फिर उनकी श्रद्धा में कहीं कोई कमी थी। इसे इस रूप में भी लिया जा रहा था कि देवी मां जिनकी मनोकामना पूर्ण करना चाहती हैं, केवल उनके हाथों लाई शराब ही ग्रहण करती हैं।
मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी पता करने पर बताया गया कि भंवाल माता की मूर्ति खेजड़ी के एक पेड़ के नीचे प्रकट हुई थी। बताया जाता है कि इस स्थान पर राजा की फौज ने लूट के माल के साथ डाकुओं की घेराबंदी कर ली थी। इस पर उन्होंने काली मां को याद किया तो मां ने स्वयं प्रकट हो कर डाकुओं को भेड़-बकरियों के झुंड में तब्दील कर दिया। इस तरह से डाकू बच गए। उन्होंने ही लूट के माल से यहां मंदिर बनवाया था। वहां मौजूद शिलालेख के अनुसार मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 1119 में हुआ था। यह पुरातन स्थापत्य कला से पत्थरों को जोड़ कर बनाया गया था। यात्रियों के विश्राम के लिए बैंगाणी परिवार ने मंदिर के पास ही एक धर्मशाला बनवा रखी है।
इस मंदिर की एक और खासियत है कि तकरीबन 800 साल पुराने इस मंदिर को किसी धर्मात्मा या सज्जन ने नहीं, बल्कि डाकुओं ने बनवाया था।
मंदिर के गृभगृह में माता की दो मूर्तियां हैं। दायीं ओर ब्रह्माणी माता, जिन्हें मीठा प्रसाद चढ़ाते हैं। यह लड्डू या पेड़े या श्रद्धानुसार कुछ भी हो सकता है। बायीं ओर दूसरी प्रतिमा काली माता की है, जिनको शराब चढ़ाई जाती है।
-तेजवाणी गिरधर
7742067000
सोमवार, 10 फ़रवरी 2025
प्रखर साहित्यकार हैं श्री मंगलसेन सिंगला
वे स्वभाव से दार्शनिक हैं। उनका एक स्वरचित काव्य संग्रह और श्री गीतमृत पद्मावली नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। अर्थशास्त्र का भी उन्होंने गहन अध्ययन किया है। उनकी सोच है कि आयकर को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाना चाहिए। उन्होंने इस विषय की विस्तृत व्याख्या करते हुए समझाया है कि आयकर खत्म कर देने से अर्थव्यवस्था कैसे और मजबूत होगी। बाकायदा एक पुस्तिका बना कर उसे सरकार को भेज कर उस पर गौर करने का आग्रह किया है। वे अग्रवाल समाज, अजमेर, लोक स्वराज्य मंच, अम्बिकापुर (छत्तीसगढ़), सेवानिवृत्त रेल अधिकारी संस्था, अजमेर और सीनियर सिटिजंस सोसाइटी, अजमेर से जुड़े हुए हैं। उनका जन्म 13 फरवरी 1932 को श्री रामानंद के घर हुआ। उन्होंने विशारद (अंग्रेजी), बी.ए. (अंग्रेजी) और एम.ए. (हिंदी) की डिग्रियां हासिल की हैं।
उनकी तीक्ष्ण समालोचना का उदाहरण देखिए। उनसे जब अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक के लिए अपना परिचय भेजने का आग्रह किया तो उन्होंने अपने परिचय के साथ एक टिप्पणी भेज कर इस गाइड बुक के अंग्रेजी नामकरण को अरुचिकर बताया। साथ ही इसे भाषा, संस्कृति व इतिहास जैसे गंभीर विषयों के साथ खिलवाड़ की संज्ञा भी दी है। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनकी दीर्घायु व स्वास्थ्य की कामना करता है।
शनिवार, 8 फ़रवरी 2025
भूख भी एक यज्ञ है, समय पर आहुति दीजिए
चलो, भोजन करना भी एक यज्ञ है, यह बाबा का नजरिया हो सकता है, मगर यदि स्वास्थ्य के लिहाज से भी देखें तो जिस नियत वक्त पर भूख लगती है, तब आमाशय में भोजन को पचाने वाले रसायनों का स्राव शुरू हो जाता है। भूख लगती ही उन रसायनों के कारण है। अगर हम भोजन नहीं करते तो वे रसायन आमाशय को नुकसान पहुंचाते हैं। हो सकता है कि हम यह कह कर उपहास उड़ाएं कि क्या भूख पर काबू नहीं कर सकते? बेशक काबू कर सकते हैं, मगर फिर हमें उसके शरीर पर पडने वाले दुष्प्रभाव के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
मैने देखा है कि सरकारी कर्मचारी तो लंच टाइम होने पर समय पर भोजन कर लेते हैं, मगर व्यापारियों को ऐसी कोई सुविधा नहीं। लंच टाइम पर भी ग्राहकी लगी रहती है। मैने ऐसे कई व्यापारी देखे हैं, जो भोजन की नियमितता का पूरा ख्याल रखते हैं और कितनी भी ग्राहकी हो, टाइम पर ही भोजन करते हैं। गुजरात में तो कई व्यापारी लंच टाइम पर दुकान मंगल कर घर जा कर भोजन करते हैं और तनिक आराम करने के बाद दुकान खोलते हैं।
शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025
अजमेर के वजूद में है रेलवे का अहम किरदार
सब जानते हैं कि अजमेर में रेलवे का सफर काफी पुराना है। आजादी से पहले राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहे अजमेर में अंग्रेजों ने रेलवे के विकास पर विशेष ध्यान दिया। अजमेर में रेलवे का इतिहास कितना पुराना है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अजमेर सबसे पहले आगरा से रेल मार्ग से सन् 1875 में जोड़ा गया और सन् 1876 में ही बॉम्बे बड़ौदा एंड सेंट्रल इंडियन रेलवे कंपनी ने यहां मीटरगेज सिस्टम के लोकोमोटिव वर्कशॉप की स्थापना कर दी थी। इसको वर्कशॉप पश्चिम रेलवे का प्रमुख व उत्तर पश्चिम रेलवे का सबसे बड़ा कारखाना होने का गौरव हासिल है। भारतीय रेलवे के करीब एक सौ साठ साल के इतिहास में सन् 1885 को स्वर्णाक्षरों में लिखा गया, जब यहां देश का पहला लोकोमोटिव (इंजन) बनाया गया। अब यह नई दिल्ली में नेशनल रेल म्यूजियम में अजमेर का नाम रोशन कर रहा है। इसी वर्कशॉप से पहले व दूसरे विश्व युद्ध में कलपुर्जे व युद्ध सामग्री अफ्रीका व ऐशियाई देशों में भेजी गई। यह वर्कशॉप बाद में वक्त की रफ्तार के साथ बदला और 1979 में यहां पहला डीजल इंजन रखरखाव के लिए अजमेर आया। भाप के आखिरी इंजन सन् 1985 में दुरुस्त कर भेजा गया। इसी प्रकार मई 1997 में पहला ब्रॉडगेज वैगन यहां दुरुस्त कर भेजा गया और अप्रैल 2000 में पहली मीटरगेज ड्यूमेटिक ट्रैक मशीन व जून 2001 में ब्रॉडगेज यूनिमेट ट्रेक मशीन की मरम्मत की गई।
केरिज व लोको कारखाने के ढ़लाईखाने भारतीय रेल की शान रहे हैं। उसे लोकोमोटिव सेंट्रल वर्कशॉप ऑफ दी राजपूताना-मालवा रेलवे, अजमेर कहा जाता था। केरिज कारखाने में स्टील ढ़ालने का विशाल ढ़लाईखाना भिलाई के इस्पात कारखाने के समकक्ष माना जाता था। केरिज का ढ़लाईखाना तो वर्षों पहले बंद हो गया, लोको का ब्रेक ब्लॉक्स बनाने वाला ढ़लाई कारखाना भी सिमटता चला गया। हालांकि यहां स्थापित रेलवे मंडल कार्यालय जोन मुख्यालय बनने की सर्वाधिक पात्रता रखता था, परंतु राजनीतिक कारणों से इसे वह दर्जा हासिल नहीं हो पाया और जोन मुख्यालय जयपुर में स्थपित हो गया।
-तेजवाणी गिरधर 7742067000
अजमेर एट ए ग्लांस से साभार
गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025
अजमेर को राष्ट्रीय जैन तीर्थ स्थल बनाने की मांग के मायने?
इस प्रकरण को पिछले दिनों जैन संत सुनील सागर जी महाराज के ससंघ तीस साधु संतों के साथ ढाई दिन के झोंपडे का विहार करने से जोड कर देखा जा सकता है। उनके साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता भी उपस्थित थे। एक चबूतरे पर बैठ कर आचार्य सुनील सागर ने कहा कि जिसकी विरासत है, उसे मिलनी चाहिए, लेकिन इसमें कोई विवाद या झगड़ा फसाद न हो। उन्होंने कहा कि यहां संस्कृत पाठशाला व मंदिर के साथ जैन मंदिर भी रहा होगा। मैने नसियांजी में कुछ मूर्तियां देखी तो बताया गया कि वे अढाई दिन का झौंपडा में खुदाई के दौरान मिली थीं। उनके इस बयान का यह अर्थ निकाला गया कि उनके मार्गदर्शन में ढाई दिन के झोपड़े को लेकर कोई व्यूह रचना की जाएगी। दीवान साहब का बयान उनकी मंशा के अनुकूल भी है।
बहरहाल, इस मामले में एक सोच यह भी है कि अजमेर तो दरगाह ख्वाजा साहब व तीर्थराज पुष्कर की वजह से पहले से तीर्थ स्थल है। यहां हिंदू श्रद्धा के साथ व मुस्लिम अकीदत के साथ आते हैं। यानि वे पर्यटक नहीं, बल्कि तीर्थयात्री हैं। अजमेर को विभिन्न संस्कृतियों का संगम बताते हुए अब तो पुष्कर व दरगाह के साथ नारेली तीर्थ, साईं बाबा मंदिर, गिरिजाघर व गुरूद्वारे का नाम भी लिया जाता है। अर्थात यह सभी धर्मों का संयुक्त तीर्थस्थल है। तो इसे अलग से जैन तीर्थ स्थल घोषित करने की जरूरत क्या है?
वैसे एक बात पक्की है कि अजमेर का फैब्रिक मौलिक रूप से ऐसा है कि तमाम आशकाओं के बावजूद यहां का सांप्रदायिक सौहार्द्र का तानाबाना सदैव कायम रहने वाला है।
-तेजवाणी गिरधर
7742067000
बुधवार, 5 फ़रवरी 2025
दरगाह शरीफ में मनाया गया वसंत उत्सव
वसंत उत्सव चिश्ती परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे अमीर खुसरो की विरासत से जोड़ा जाता है। इसका मूल संत हजरत निजामुद्दीन औलिया से जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि जब उनके प्रिय शिष्य हजरत अमीर खुसरो ने वसंत ऋतु में महिलाओं को पीले वस्त्र पहन कर फूल चढ़ाते हुए देखा, तो उन्होंने भी अपने गुरु को खुश करने के लिए यह परंपरा शुरू की। तब से यह सूफी दरगाहों में वसंत मनाने की परंपरा चली आ रही है।
बहुआयामी व्यक्तित्व हैं सुपरिचित श्रमिक नेता व पत्रकार श्री कमल गर्ग
मंगलवार, 4 फ़रवरी 2025
जैन संस्कृति का वर्चस्व रहा है प्राचीन अजमेर में
किशनपुरा और नरवर में आज भी खुदाई के दौरान जो ईंट और स्तम्भ निकलते हैं, वे जैन मंदिरों व भवनों के अवशेष जैसे लगते हैं। अजमेर के क्रिश्चियन गंज के आगे जो जैन आचार्यों की छतरियां हैं, उनमें प्राचीनतम छतरी छठी-सातवीं सदी की हैं। इसी भांति वर्तमान दरगाह बाजार क्षेत्र में पांचवीं-छठी सदी के दौरान वीरम जी गोधा ने विशाल जैन मंदिर बनवाया था और उसमें पंच कल्याणक महोत्सव भी सम्पन्न हुआ। इससे भी प्रमाणित होता है कि यहां उस समय जैन संस्कृति विकसित अवस्था में थी। 760 ईस्वी में भट्टारक धर्म कीर्ति के शिष्य आचार्य हेमचन्द्र का यहां निधन हुआ, जिनकी छतरी आज भी विद्यमान है। सन् 776 ईस्वी में पुनरू एक जैन मंदिर का निर्माण एवं पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। इसके 175 वर्ष बाद वीरम जी गोधा ने श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण व पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कराया। यह मंदिर आज भी गोधा गवाड़ी में स्थित है। बारहवीं सदी में ही यह नगर जैन आचार्य जिनदत्त सूरी की कर्मस्थली रहा। उनका देहान्त भी यहीं हुआ और उस स्थान पर आज विख्यात दादाबाड़ी बनी हुई है। इससे पहले का एक दृष्टान्त है कि अजयराज चौहान ने भी पार्श्वनाथ जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया। अजयराज से पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) के समय तक अजमेर, नरायना व पुष्कर में जैन विद्वानों के अनेक शास्रार्थ होते रहने के उल्लेख भी इतिहास में मिलते हैं। यहां भट्टारकों की पीठ भी स्थापित की गई और लगभग पांच सौ वर्ष में इन जैन विद्वानों ने हजारों ग्रंथों की प्रतिलिपि तैयार की तथा नये ग्रन्थ भी लिखे। ऐसे कई ग्रन्थ सरावगी मौहल्ला स्थित बड़े मंदिर में सुरक्षित बताए जाते हैं।
सन् 1160 ईस्वी में राजा विग्रहराज विशालदेव चौहान ने जैन आचार्य धर्मघोष की सलाह पर यहां एकादशी के दिन पशुवध पर रोक लगा दी। ऐसे ही 1164 ईस्वी में आचार्य जिनचन्द्र सूरी ने अपने गुरु आचार्य जिनदत्त सूरी की याद में सुन्दर स्तम्भ बनवाया। तत्पश्चात् 1171 में यहां जैन समाज ने विशाल पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न कराया। इसके बाद पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) का पतन होते ही अजमेर की हालत भी बिगडने लगी। सल्तनत काल के दौरान तो यहां बहुत अधिक अस्थिरता रही। फिर भी भट्टारकों के द्वारा जैन ग्रंथों का कार्य होता रहा। फिर मुगल मराठा काल में यह नगर 30 से भी अधिक युद्धों का साक्षी बना और सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़ गया। अंग्रेजों के समय यहां पुनरू जैन मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ और साथ ही साथ जैन संस्कृति को भी विस्तार मिला और अब नारेली गांव में जो ज्ञानोदय तीर्थ विकसित हो रहा है, वह इस शहर में जैन संस्कृति की सनातन विकास परम्परा का ही चरम उत्कर्ष है।
श्रीमती कमला चन्द्र गोकलानी : सिंधी साहित्य जगत में जिनकी धाक है
उनका जन्म 16 जून 1950 को अजमेर में हुआ। उन्होंने एमए-एमएड तक शिक्षा अर्जित की। बाद में राजकीय महाविद्यालय से जून 2010 में पत्रकारिता में डिप्लोमा भी किया। मात्र 18 वर्ष की आयु से अध्यापिका का जीवन आरंभ किया और राजकीय महाविद्यालय में सिंधी विभाग के हैड ऑफ दि डिपार्टमेंट के रूप में 2010 सेवानिवृत्त हुईं। वे मुंबई यूनिवर्सिटी से 1994 में पीएचडी करके भारत की प्रथम सिन्धी लिटिरेचर महिला कहलायीं। सिंधी भाषा के विकास व विस्तार में उनका योगदान हमेशा याद किया जाता रहेगा। उनकी अब तक पचास से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी मूल पुस्तकों का तेलुगू, उर्दू, पंजाबी और हिन्दी में भी अनुवाद हो चुका है। उनके लेख, कहानियां, कविताएं समाचार पत्रों व पत्रिकाओं और साहित्य की पुस्तकों में प्रकाशित होती रहती हैं। भाषा पर अच्छी पकड़ के साथ सुमधुर वाणी से संपन्न श्रीमती गोकलानी अनेकानेक बड़े आयोजनों में मंच संचालन की भूमिका निभाती रही हैं। टीवी व आकाशवाणी में अनेक कार्यक्रम दे चुकी हैं। आपको अनेक बार भारत सरकार द्वारा साहित्य पर पुरस्कार दिए गए हैं, जिनमें एनसीपीएसएल की ओर से दो बार दिए गए राष्ट्रीय अलंकरण शामिल हैं। उनको एनसीपीएसएल की फाउण्डर मेम्बर होने का भी गौरव हासिल है। उनको राष्ट्रीय स्तर का अखिल भारतीय सिंधी बोली अई साहित्य सभा का उच्च पुरस्कार दिया गया है। वे राजस्थान सिंधी अकादमी की पांच बार सदस्य रही हैं। उनको राज्य स्तर पर अनेक बार सम्मानित किया जा चुका है, जिसमें प्रतिष्ठित सामी पुरस्कार शामिल है।
सोमवार, 3 फ़रवरी 2025
काको आडवाणी, मामो मोटवाणी
तारादेवी व मीनाक्षी यादव ने अभी से ठोक दी ताल
शनिवार, 1 फ़रवरी 2025
स्वामी श्री हिरदाराम जी की गाली निहाल कर देती थी
पुष्कर में एक छोटे से आश्रम में रहते थे, जिसे हिरदारामजी की कुटिया कहा जाता है। अकाल के दौरान उनकी प्रेरणा से जीव सेवा समिति ने अजमेर जिले में सैकडों प्याऊ खोली थीं। अभाव ग्रस्त गांवों में टैंकरों से पानी की टैंकर सप्लाई किए गए। उनकी ही प्रेरणा से दयाल वीना डायग्नोस्टिक सेंटर व पागारानी हॉस्पीटल संचालित हैं। उनकी स्मृति में अजमेर में हर साल निःशुल्क नेत्र चिकित्सा शिविर और यूरोलॉजी कैम्प आयोजित होते हैं। बैरागढ भोपाल में उनके नाम से जनसेवा के बीसियों प्रोजेक्ट संचालित हैं। ऐसी महान हस्ती के अनुयाइयों के अनूठे अनुभव हैं। वे उनकी कृपा पाने को आतुर रहते थे। उनके आदेश की पालना को तत्पर रहते थे। उनके आशीर्वाद से अनेक श्रद्धालुओं के जीवन परिवर्तित हो गए। अगर वे किसी को सहज भाव में गाली दे देते तो वह अपने आपको धन्य समझता था। ऐसे अनेक प्रसंग हैं कि जिन को उन्होंने गाली दे कर पुकारा वह मालामाल हो गया, निहाल हो गया। कैसी अनूठी कीमिया रही होगी। किसी पर कृपा बरसाने का अनोखा तरीका।