प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल के रूप में अजमेर शहर को एक साथ स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री मिलने पर हर शहरवासी में खुशी है कि अब शहर को बेहतर विकास होगा। दोनों में प्रतिस्पद्र्धा रहेगी काम करवाने की। दोनों ही चाहेंगे कि वे अपने-अपने खाते में बेहतर से बेहतर काम दर्ज करें। एक साथ दो मंत्रियों के होने का एक लाभ ये भी हो सकता है कि अगर वे विकास के किसी मुद्दे पर एक राय हो जाएं तो मुख्यमंत्री को उनकी माननी ही होगी। मगर दूसरी ओर बताया जाता है कि दोनों के एक साथ बराबर का मंत्री बनने के कारण प्रशासनिक हलके में सन्नाटा है। अफसर ये जानते हैं कि दोनों के बीच तालमेल का अभाव है और टकराव बना ही रहता है। ऐसे में अब किसकी मानेंगे और किसकी नहीं। यदि किसी मुद्दे पर एक मंत्री की राय एक है और दूसरे की दूसरी तो बेचारे अफसर क्या करेंगे। एक को राजी करो तो दूसरा राजी। यानि कि उनका तो मरण ही है। मगर दूसरी ओर कुछ का मानना है कि इस मनभेद का फायदा भी उठाया जा सकता है। चालाक अफसर इसका फायदा भी उठा सकते हैं। वे एक को दूसरे की भिन्न राय का हवाला देते हुए हाथ खड़े कर देंगे। वे सीधे मुख्यमंत्री तक बात पहुंचा कर मार्गदर्शन मांग लेंगे। जो कुछ भी हो, सकारात्मक सोच वाले तो यही सोचते हैं कि एक साथ दो मंत्री होने के कारण अजमेर के दिन फिरेंगे।
सोमवार, 27 अक्टूबर 2014
अजमेरनामा ने तीन दिन पहले ही बता दिया था कि 27 तक हर हाल में मंत्रीमंडल विस्तार होगा
राज्य मंत्रीमंडल के लंबे समय से प्रतीक्षित विस्तार का आखिर हो ही गया। इस बारे में कई बार चर्चा होती रही कि विस्तार अब होगा, तब होगा, मगर हर बार किसी न किसी वजह से वह टलता ही रहा, मगर अब स्थिति ऐसी आ गई कि तुरत-फुरत में विस्तार का कार्यक्रम आयोजित करना पड़ा। इस बारे में अजमेरनामा ने तीन दिन पहले 24 अक्टूबर को ही यह जानकारी आपसे शेयर कर दी थी कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को आगामी 27 अक्टूबर तक विस्तार करना ही होगा। संभवत: अजमेरनामा राज्य का एक मात्र ऐसा मीडिया रहा, जिसने यह आकलन प्रस्तुत किया था।
अपुन ने बताया था कि असल में यूं तो वसुंधरा राजे के पास आगामी 15 नवंबर तक का समय था। तब नसीराबाद से विधायक बनने के बाद इस्तीफा देकर सांसद बने प्रो. सांवरलाल जाट के बिना विधायक रहते मंत्री बने रहने को छह माह पूरे होने हैं। इस बात की कोई संभावना भी नहीं थी कि उन्हें फिर से विधानसभा का चुनाव लडय़ा जाए। अगर विधायक रखना ही था तो इस्तीफा ही क्यों दिलवाते। खैर, चूंकि 15 नवंबर तक जाट को इस्तीफा देना ही होगा और उनके इस्तीफा देते ही न्यूनमत 12 मंत्रियों की बाध्यता आ जाएगी, यानि कि तब तक उन्हें मंत्रीमंडल का विस्तार करना ही होगा। मगर इस बीच समस्या ये आ गई कि राज्य में कुछ स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए आचार संहिता 28 अक्टूबर को लागू हो जाएगी और तब वे मंत्रीमंडल का विस्तार नहीं कर पाएंगी, इस कारण अब यह लगभग पक्का ही है कि 27 अक्टूबर तक किसी भी सूरत में मंत्रीमंडल का विस्तार कर दिया जाएगा। हालांकि बाद में जानकारी ये भी आई कि आचार संहिता इसमें आड़े नहीं आएगी, मगर जैसे ही 27 को विस्तार का कार्यक्रम तय हुआ, यही माना जाएगा कि आचार संहिता की वजह से ही ऐसा किया गया।
इसमें भी एक पेच बताया गया था। वो ये कि भाजपा हाईकमान की इच्छा थी कि फिलहाल जाट के इस्तीफा देने के साथ सिर्फ एक-दो नए मंत्री बना दिए जाएं और पूरा विस्तार बाद में किया जाए, मगर जानकारी ये है कि वसुंधरा ठीक से विस्तार करना चाहती थीं। आखिर उनकी बात मान ली गई। मंत्रियों की शपथ के बाद अब कुछ लोग ये भी मान रहे हैं कि वसुंधरा राजे पूरी तरह से संघ में दबाव में नहीं रहीं और उन्हें कुछ स्वतंत्रता दी गई थी। विशेष रूप से इस लिए कि इसमें वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी को शामिल नहीं किया गया, जो कि संघ खेमे से हैं और वसुंधरा के धुर विरोधी हैं। बहरहाल, मंत्रीमंडल का बहुप्रतीक्षित विस्तार हो चुका है, प्याज की छिलके बाद में धीरे-धीरे खुलते रहेंगे।
-तेजवानी गिरधर
अपुन ने बताया था कि असल में यूं तो वसुंधरा राजे के पास आगामी 15 नवंबर तक का समय था। तब नसीराबाद से विधायक बनने के बाद इस्तीफा देकर सांसद बने प्रो. सांवरलाल जाट के बिना विधायक रहते मंत्री बने रहने को छह माह पूरे होने हैं। इस बात की कोई संभावना भी नहीं थी कि उन्हें फिर से विधानसभा का चुनाव लडय़ा जाए। अगर विधायक रखना ही था तो इस्तीफा ही क्यों दिलवाते। खैर, चूंकि 15 नवंबर तक जाट को इस्तीफा देना ही होगा और उनके इस्तीफा देते ही न्यूनमत 12 मंत्रियों की बाध्यता आ जाएगी, यानि कि तब तक उन्हें मंत्रीमंडल का विस्तार करना ही होगा। मगर इस बीच समस्या ये आ गई कि राज्य में कुछ स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए आचार संहिता 28 अक्टूबर को लागू हो जाएगी और तब वे मंत्रीमंडल का विस्तार नहीं कर पाएंगी, इस कारण अब यह लगभग पक्का ही है कि 27 अक्टूबर तक किसी भी सूरत में मंत्रीमंडल का विस्तार कर दिया जाएगा। हालांकि बाद में जानकारी ये भी आई कि आचार संहिता इसमें आड़े नहीं आएगी, मगर जैसे ही 27 को विस्तार का कार्यक्रम तय हुआ, यही माना जाएगा कि आचार संहिता की वजह से ही ऐसा किया गया।
इसमें भी एक पेच बताया गया था। वो ये कि भाजपा हाईकमान की इच्छा थी कि फिलहाल जाट के इस्तीफा देने के साथ सिर्फ एक-दो नए मंत्री बना दिए जाएं और पूरा विस्तार बाद में किया जाए, मगर जानकारी ये है कि वसुंधरा ठीक से विस्तार करना चाहती थीं। आखिर उनकी बात मान ली गई। मंत्रियों की शपथ के बाद अब कुछ लोग ये भी मान रहे हैं कि वसुंधरा राजे पूरी तरह से संघ में दबाव में नहीं रहीं और उन्हें कुछ स्वतंत्रता दी गई थी। विशेष रूप से इस लिए कि इसमें वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी को शामिल नहीं किया गया, जो कि संघ खेमे से हैं और वसुंधरा के धुर विरोधी हैं। बहरहाल, मंत्रीमंडल का बहुप्रतीक्षित विस्तार हो चुका है, प्याज की छिलके बाद में धीरे-धीरे खुलते रहेंगे।
-तेजवानी गिरधर
शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014
नसीराबाद के असली विधायक तो सुनिल गुर्जर हैं
भले ही हाल में हुई नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में कानूनी तौर पर कांग्रेस के रामनारायण गुर्जर चुनाव जीत कर विधायक बने हों, मगर जानने वाले जानते हैं कि न केवल चुनाव अभियान के दौरान बल्कि चुनाव संपन्न होने के बाद असल भूमिका उनके ही पुत्र सुनिल गुर्जर अदा कर रहे हैं।
बेशक चुनाव के दौरान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के निर्देश पर पूर्व मंत्री मास्टर भंवरलाल ने चुनाव संचालन का जिम्मा संभाल रखा था, मगर निचले स्तर पर काम करने वालों को पता है कि पूरी रणनीति पर सुनिल गुर्जर की ही पकड़ बनी हुई थी। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस चुनाव में जीत के पीछे पायलट की बिसात काम आई और खुद गुर्जर की छवि ने भी अहम किरदार निभाया, मगर सच ये है कि पल-पल पर पकड़ और खर्च से लेकर पूरे तोड़बट्टे पर सुनिल का ही रोल था। यहां तक कि मतदान के दिन प्रतिबंध के बाद भी इलाके में विचरण कर रही अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल से सुनिल ने ही भिड़ंत ली थी, नतीजन उन्हें मैदान छोड़ कर भागना पड़ा था। सुनिल की भूमिका को हाल ही नसीराबाद में संपन्न कार्यकर्ता रैली में खुद सचिन ने भी स्वीकार किया।
जानकारी के अनुसार रामनारायण गुर्जर के विधायक बनने के बाद ज्ञात रूप से वे ही विधायकी कर रहे हैं, मगर हर फैसले पर सुनिल की मुहर लगना जरूरी होता है। नसीराबाद में हुए कार्यकर्ता सम्मेलन पर भी सुनिल ने ही पकड़ बना रखी थी। ऊपर मंच पर भले ही रामनारायण गुर्जर बैठे थे, मगर जनता के बीच बैठने की व्यवस्था से लेकर खाने के इंतजाम पर सुनिल की नजर थी। वैसे भी रामनारायण गुर्जर बेहद सरल हैं, ऐसे में राजनीति की बारीकियों पर सुनिल को ही नजर रखनी होगी और यही उनकी ट्रेनिंग का पार्ट होगी।
बेशक चुनाव के दौरान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के निर्देश पर पूर्व मंत्री मास्टर भंवरलाल ने चुनाव संचालन का जिम्मा संभाल रखा था, मगर निचले स्तर पर काम करने वालों को पता है कि पूरी रणनीति पर सुनिल गुर्जर की ही पकड़ बनी हुई थी। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस चुनाव में जीत के पीछे पायलट की बिसात काम आई और खुद गुर्जर की छवि ने भी अहम किरदार निभाया, मगर सच ये है कि पल-पल पर पकड़ और खर्च से लेकर पूरे तोड़बट्टे पर सुनिल का ही रोल था। यहां तक कि मतदान के दिन प्रतिबंध के बाद भी इलाके में विचरण कर रही अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल से सुनिल ने ही भिड़ंत ली थी, नतीजन उन्हें मैदान छोड़ कर भागना पड़ा था। सुनिल की भूमिका को हाल ही नसीराबाद में संपन्न कार्यकर्ता रैली में खुद सचिन ने भी स्वीकार किया।
जानकारी के अनुसार रामनारायण गुर्जर के विधायक बनने के बाद ज्ञात रूप से वे ही विधायकी कर रहे हैं, मगर हर फैसले पर सुनिल की मुहर लगना जरूरी होता है। नसीराबाद में हुए कार्यकर्ता सम्मेलन पर भी सुनिल ने ही पकड़ बना रखी थी। ऊपर मंच पर भले ही रामनारायण गुर्जर बैठे थे, मगर जनता के बीच बैठने की व्यवस्था से लेकर खाने के इंतजाम पर सुनिल की नजर थी। वैसे भी रामनारायण गुर्जर बेहद सरल हैं, ऐसे में राजनीति की बारीकियों पर सुनिल को ही नजर रखनी होगी और यही उनकी ट्रेनिंग का पार्ट होगी।
शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014
अजमेर शहर कांग्रेस अध्यक्ष बनना चाहते हैं बाकोलिया
अजमेर नगर निगम के मेयर कमल बाकोलिया शहर कांग्रेस अध्यक्ष बनने की ख्वाहिश रखते हैं। चर्चा है कि उन्होंने इसके लिए जयपुर के चक्कर लगाना भी शुरू कर दिया है। असल में उनके साथ दिक्कत ये है कि मौजूदा पद से हटन के प्रथम नागरिक की बजाय आम नागरिक हो जाने वाले हैं। दुबारा मेयर बन नहीं सकते, क्योंकि इस बार यह पद सामान्य वर्ग के लिए है। ऐसे में पार्षद का चुनाव लडऩे का तो कोई मतलब ही नहीं। यानि कि नगर निगम चुनाव के बाद वे बेकार हो जाएंगे। अगर उनके पास कोई सांगठनिक पद नहीं हुआ तो राजनीतिक कैरियर का क्या होगा? इस कारण इसी जुगत में लगे हैं कि किसी प्रकार शहर कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएं। नगर निगम मेयर रहते उनकी परफोरमेंस के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट उन्हें इस पद के लायक समझते हैं या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। वैसे जानकारी यह भी है कि फिलवक्त समाजसेवी व उद्योगपति हेमंत भाटी पर ही यह पद संभालने का दबाव है, देखने वाली बात ये है कि वे इसे स्वीकार करते हैं या फिर अपने किसी साथी पर हाथ धरते हैं।
शहर भाजपा अध्यक्ष यादव पर है चारों ओर से दबाव
नवनियुक्त शहर भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव पर कार्यकारिणी के गठन को लेकर चारों ओर से दबाव है। संभवत: वे पहले ऐसे अध्यक्ष हैं, जिन पर इतना दबाव है। गनीमत ये है कि वे कूल माइंडेड हैं, इस कारण तनाव में नहीं आ रहे।
असल में पूर्व में विधायक द्वय प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल शहर भाजपा संगठन पर इतने हावी रहे हैं कि उनके अतिरिक्त अन्य नेताओं की पसंद कम ही चलती थी। चूंकि पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत इन दोनों विधायकों की आपसी सहमति से बने थे, इस कारण उन्होंने ज्यादा दिमाग लगाया ही नहीं और दोनों की ओर से दी गई लिस्ट में दिए गए नामों को ही ज्यादा तरजीह दी। दोनों विधायक इतने हावी रहे हैं कि पूर्व में जब शिवशंकर हेड़ा अध्यक्ष थे तो नगर निगम चुनाव में अधिसंख्य उनकी ही पसंद के दावेदारों को टिकट मिले। हेड़ा की तो कुछ चली ही नहीं।
बहरहाल, अब हालात अलग हैं। बेशक आज भी दोनों विधायक अपना दमखम रखे हुए हैं, मगर चूंकि अरविंद यादव की नियुक्ति राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र यादव की मेहरबानी से हुई है, इस कारण जाहिर तौर पर उनकी पसंदगी-नापसंदगी भी काउंट करेगी। इसके अतिरिक्त राजस्थान पुराधरोहर प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकारसिंह लखावत व पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत भी टांग अड़ाएंगे ही। चूंकि यादव पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा के करीबी रहे हैं, इस कारण उनकी सिफारिश भी रोल अदा करेगी। कुल मिला कर स्थिति ये है कि यादव पर एकाधिक नेताओं का दबाव है। लोग मजाक में यह तक कहने से नहीं चूकते कि अध्यक्ष होते हुए भी अपनी खास पसंद के किसी कार्यकर्ता को भी स्थान दे पाएंगे या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। बताया जाता है कि सभी ने अपनी पसंद की लिस्ट दे दी है और अब उस पर मंथन चल रहा है। वैसे माना ये जाता है कि यादव युवाओं की अच्छी टीम बनाने में कामयाब हो जाएंगे। ठंडे दिमाग के होने के कारण विवाद होने की आशंका कम है। उसकी एक वजह ये है कि उन पर सांसद यादव का वरदहस्त है, इस कारण कोई ज्यादा चूं-चपड़ करने की हिमाकम कर नहीं पाएगा।
असल में पूर्व में विधायक द्वय प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल शहर भाजपा संगठन पर इतने हावी रहे हैं कि उनके अतिरिक्त अन्य नेताओं की पसंद कम ही चलती थी। चूंकि पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत इन दोनों विधायकों की आपसी सहमति से बने थे, इस कारण उन्होंने ज्यादा दिमाग लगाया ही नहीं और दोनों की ओर से दी गई लिस्ट में दिए गए नामों को ही ज्यादा तरजीह दी। दोनों विधायक इतने हावी रहे हैं कि पूर्व में जब शिवशंकर हेड़ा अध्यक्ष थे तो नगर निगम चुनाव में अधिसंख्य उनकी ही पसंद के दावेदारों को टिकट मिले। हेड़ा की तो कुछ चली ही नहीं।
बहरहाल, अब हालात अलग हैं। बेशक आज भी दोनों विधायक अपना दमखम रखे हुए हैं, मगर चूंकि अरविंद यादव की नियुक्ति राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र यादव की मेहरबानी से हुई है, इस कारण जाहिर तौर पर उनकी पसंदगी-नापसंदगी भी काउंट करेगी। इसके अतिरिक्त राजस्थान पुराधरोहर प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकारसिंह लखावत व पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत भी टांग अड़ाएंगे ही। चूंकि यादव पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा के करीबी रहे हैं, इस कारण उनकी सिफारिश भी रोल अदा करेगी। कुल मिला कर स्थिति ये है कि यादव पर एकाधिक नेताओं का दबाव है। लोग मजाक में यह तक कहने से नहीं चूकते कि अध्यक्ष होते हुए भी अपनी खास पसंद के किसी कार्यकर्ता को भी स्थान दे पाएंगे या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। बताया जाता है कि सभी ने अपनी पसंद की लिस्ट दे दी है और अब उस पर मंथन चल रहा है। वैसे माना ये जाता है कि यादव युवाओं की अच्छी टीम बनाने में कामयाब हो जाएंगे। ठंडे दिमाग के होने के कारण विवाद होने की आशंका कम है। उसकी एक वजह ये है कि उन पर सांसद यादव का वरदहस्त है, इस कारण कोई ज्यादा चूं-चपड़ करने की हिमाकम कर नहीं पाएगा।
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