बुधवार, 4 जुलाई 2018
गुरुवार, 3 मई 2018
क्या अनादि सरस्वती टिकट की इतनी गंभीर दावेदार हैं?
शहर के जाने-माने राजनीतिक व प्रशासनिक पंडित एडवोकेट राजेश टंडन ने एक बार फिर सोशल मीडिया में साध्वी अनादि सरस्वती का नाम आगामी विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर की सीट के लिए उछाल दिया है। चूंकि वे पेशे से पत्रकार नहीं हैं, इस कारण उनके शब्द विन्यास में पत्रकारिता की बारीक नक्काशी नहीं होती, मगर जो भी अनगढ़ शैली में कंटेंट होता है, उस पर गौर करना ही होता है। खबर में ही व्यंग्य, चुटकी व तंज का अनूठा पुट डाल देते हैं, जिससे वह रोचक बन पड़ती है। अनादि सरस्वती के बारे में उनकी पोस्ट का पोस्टमार्टम करने का इसलिए जी चाहता है कि उनके पास शहर व राज्य के कई महत्वपूर्ण राजनीतिक व प्रशासनिक तथ्य होते हैं। कदाचित वे एक मात्र ऐसे बुद्धिजीवी हैं, जो न केवल हर ताजा हलचल पर नजर रखते हैं, अपितु सोशल मीडिया पर शाया भी करते हैं।
खैर, पहले उनकी पोस्ट पर नजर डालते हैं:-
जय हो मां अनादि सरस्वती जी की, इस बार अजमेर नॉर्थ से विधानसभा का चुनाव भाजपा के टिकट पर लडऩे की सर्वत्र चर्चा है, आलाकमान की मंजूरी व मजबूरी, दोनों ही हैं, जातीय समीकरण भी पक्ष में हैं, और पार्टी का नीतिगत निर्णय है, साधु सन्यासियों को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने हैं, हिंदुत्व का कार्ड फिर से खेलना है, इसलिये अनादि सरस्वती को भाजपा के हर समारोह में मंचासीन किया जाता है, योजनाबद्ध तरीके से, और आलाकमान व संघनिष्ठों के आदेश से, स्वयं अनादि जी में भी ग्लो व ग्लैमर है, आकर्षक व मोहक तथा कुशल वक्ता हैं और वाक पटु हैं और साथ ही वे स्वयं कुशल ऑर्गेनाइजर हैं तथा आजकल कई बड़े-बड़े आयोजक एव राजनीतिज्ञ साथ लग गये हैं, शुभकामनाएं।
देखा, कितने दिलकश अंदाज में उन्होंने अपनी बात कही है। अव्वल तो अपुन यह साफ कर दें कि खुद अनादि सरस्वती ने कहीं भी यह नहीं दर्शाया है कि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा है भी या नहीं। वे कुशल वक्ता व वाक् पटु तो हैं, मगर वाचाल नहीं, सीमित बोलती हैं, इस कारण कहीं भी ये पकड़ में नहीं आया कि वे राजनीति की दिशा में जा रही हैं। हां, उनके एक्ट से यह अनुमान जरूर लगाया जा सकता है कि संघ उनको प्रोजेक्ट करने के मूड में है। हालांकि संघ वालों के मन को भांपना देवताओं भी बस में भी नहीं, मगर जिस तरह से पिछले दिनों वे संघ व भाजपा पोषित मंचों के अतिरिक्त सामाजिक मंचों पर दिखाई दी हैं, उससे उनके साइलेंट एजेंड पर शक होता है। वे मूलत: आध्यात्म के क्षेत्र से हैं और पिछले कुछ वर्षों से यकायक जिस तरह से छा कर गिनी-चुनी संभ्रांत शख्सियतों में शुमार हुई हैं, वह वाकई चौंकाने वाला है। विद्वता एक मूल वजह है, लोकप्रिय होने की, मगर उनका खूबसूरत व्यक्तित्व भी हर किसी को अपनी ओर खींचता है। महिला होने का एडवांटेज तो है ही।
टंडन जी ने जिन तथ्यों को आधार बनाया है, उनमें थोड़ा दम है। एक तो वे सिंधी हैं और अजमेर उत्तर की सीट पर भाजपा सदैव किसी सिंधी को प्रत्याशी बनाती रही है। वे महिला भी कोटा पूरा करती हैं, जिसके प्रति आम तौर पर मतदाता का सहज रुझान होता है। खूबसूरती सोने में सुहागा है। वे इस कारण भी सुपरिचित हैं, क्योंकि फेसबुक व वाटृस ऐप पर छायी रहती हैं। पिछले कुछ दिनों से संघनिष्ठों से उनकी नजदीकी यह भान कराती है कि उनकी विचारधारा हिंदुत्व को पोषित करती है। जैसा कि नजर आ रहा है कि भाजपा इस बार फिर हिंदुत्व का एजेंडा आगे ला सकती है, क्योंकि एंटीइंकंबेंसी फैक्टर तगड़ा काम कर रहा है, ऐसे में किसी साध्वी को अगर मैदान में उतारा जाता है तो उसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं होगी।
मगर सवाल ये कि अगर संघ वाकई उन पर काम कर रहा है तो मौजूदा विधायक व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का क्या होगा? क्या संघ पत्ता बदलने के मूड में है? क्या देवनानी का टिकट काटना इतना आसान है? क्या देवनानी इतनी आसानी से सीट छोड़ देंगे? जानकारी तो ये है कि पिछले दिनों भी जब अनादि का नाम अफवाहों में आया था तो जैसा कि राजनीति में होता है, कुछ लोगों ने उनकी कुंडली के रहस्य जुटाना शुरू कर दिए थे। कहते हैं न कि अगर आपको अपने पुरखों के बारे में जानकारी न हो तो अपना नाम टिकट की दावेदारी में पेश कर दो, लोग आपकी सात पीढ़ी की कारगुजारियों को ढूंढ़ निकालेंगे। यही वजह है कि संघ ने कहीं भी यह अहसास नहीं कराया कि उसका अनादि के बारे में क्या दृष्टिकोण है। मगर टंडन जी ने जिस तरह से लिखा है कि अनादि सरस्वती को भाजपा के हर समारोह में मंचासीन किया जाता है, योजनाबद्ध तरीके से, तो कान खड़े होते हैं। हो सकता है कि यह कयास मात्र हो, मगर इस खबर में रोचकता तो है, लिहाजा इसकी पॉलिश कर आपकी सेवा में प्रस्तुत की है।
खैर, पहले उनकी पोस्ट पर नजर डालते हैं:-
जय हो मां अनादि सरस्वती जी की, इस बार अजमेर नॉर्थ से विधानसभा का चुनाव भाजपा के टिकट पर लडऩे की सर्वत्र चर्चा है, आलाकमान की मंजूरी व मजबूरी, दोनों ही हैं, जातीय समीकरण भी पक्ष में हैं, और पार्टी का नीतिगत निर्णय है, साधु सन्यासियों को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने हैं, हिंदुत्व का कार्ड फिर से खेलना है, इसलिये अनादि सरस्वती को भाजपा के हर समारोह में मंचासीन किया जाता है, योजनाबद्ध तरीके से, और आलाकमान व संघनिष्ठों के आदेश से, स्वयं अनादि जी में भी ग्लो व ग्लैमर है, आकर्षक व मोहक तथा कुशल वक्ता हैं और वाक पटु हैं और साथ ही वे स्वयं कुशल ऑर्गेनाइजर हैं तथा आजकल कई बड़े-बड़े आयोजक एव राजनीतिज्ञ साथ लग गये हैं, शुभकामनाएं।
देखा, कितने दिलकश अंदाज में उन्होंने अपनी बात कही है। अव्वल तो अपुन यह साफ कर दें कि खुद अनादि सरस्वती ने कहीं भी यह नहीं दर्शाया है कि उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा है भी या नहीं। वे कुशल वक्ता व वाक् पटु तो हैं, मगर वाचाल नहीं, सीमित बोलती हैं, इस कारण कहीं भी ये पकड़ में नहीं आया कि वे राजनीति की दिशा में जा रही हैं। हां, उनके एक्ट से यह अनुमान जरूर लगाया जा सकता है कि संघ उनको प्रोजेक्ट करने के मूड में है। हालांकि संघ वालों के मन को भांपना देवताओं भी बस में भी नहीं, मगर जिस तरह से पिछले दिनों वे संघ व भाजपा पोषित मंचों के अतिरिक्त सामाजिक मंचों पर दिखाई दी हैं, उससे उनके साइलेंट एजेंड पर शक होता है। वे मूलत: आध्यात्म के क्षेत्र से हैं और पिछले कुछ वर्षों से यकायक जिस तरह से छा कर गिनी-चुनी संभ्रांत शख्सियतों में शुमार हुई हैं, वह वाकई चौंकाने वाला है। विद्वता एक मूल वजह है, लोकप्रिय होने की, मगर उनका खूबसूरत व्यक्तित्व भी हर किसी को अपनी ओर खींचता है। महिला होने का एडवांटेज तो है ही।
टंडन जी ने जिन तथ्यों को आधार बनाया है, उनमें थोड़ा दम है। एक तो वे सिंधी हैं और अजमेर उत्तर की सीट पर भाजपा सदैव किसी सिंधी को प्रत्याशी बनाती रही है। वे महिला भी कोटा पूरा करती हैं, जिसके प्रति आम तौर पर मतदाता का सहज रुझान होता है। खूबसूरती सोने में सुहागा है। वे इस कारण भी सुपरिचित हैं, क्योंकि फेसबुक व वाटृस ऐप पर छायी रहती हैं। पिछले कुछ दिनों से संघनिष्ठों से उनकी नजदीकी यह भान कराती है कि उनकी विचारधारा हिंदुत्व को पोषित करती है। जैसा कि नजर आ रहा है कि भाजपा इस बार फिर हिंदुत्व का एजेंडा आगे ला सकती है, क्योंकि एंटीइंकंबेंसी फैक्टर तगड़ा काम कर रहा है, ऐसे में किसी साध्वी को अगर मैदान में उतारा जाता है तो उसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं होगी।
मगर सवाल ये कि अगर संघ वाकई उन पर काम कर रहा है तो मौजूदा विधायक व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का क्या होगा? क्या संघ पत्ता बदलने के मूड में है? क्या देवनानी का टिकट काटना इतना आसान है? क्या देवनानी इतनी आसानी से सीट छोड़ देंगे? जानकारी तो ये है कि पिछले दिनों भी जब अनादि का नाम अफवाहों में आया था तो जैसा कि राजनीति में होता है, कुछ लोगों ने उनकी कुंडली के रहस्य जुटाना शुरू कर दिए थे। कहते हैं न कि अगर आपको अपने पुरखों के बारे में जानकारी न हो तो अपना नाम टिकट की दावेदारी में पेश कर दो, लोग आपकी सात पीढ़ी की कारगुजारियों को ढूंढ़ निकालेंगे। यही वजह है कि संघ ने कहीं भी यह अहसास नहीं कराया कि उसका अनादि के बारे में क्या दृष्टिकोण है। मगर टंडन जी ने जिस तरह से लिखा है कि अनादि सरस्वती को भाजपा के हर समारोह में मंचासीन किया जाता है, योजनाबद्ध तरीके से, तो कान खड़े होते हैं। हो सकता है कि यह कयास मात्र हो, मगर इस खबर में रोचकता तो है, लिहाजा इसकी पॉलिश कर आपकी सेवा में प्रस्तुत की है।
बुधवार, 25 अप्रैल 2018
तिराहे पर खड़े हैं शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी
-तेजवानी गिरधर-
अजमेर उत्तर से लगातार तीन बार जीत चुके शिक्षा राज्यमंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का टिकट यूं तो आगामी विधानसभा चुनाव में कटना कठिन सा प्रतीत होता है, मगर राजनीति के जानकारों का मानना है कि चौथे चुनाव के मौके पर वे तिराहे पर खड़े हैं, जहां उन्हें तय करना होगा कि आगे की राजनीतिक यात्रा किस रास्ते में ले जायी जाए।
जैसा कि सर्वविदित है कि हाल ही संपन्न हुए लोकसभा उपचुनाव में अजमेर संसदीय क्षेत्र की आठों सीटों पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था, उसी कारण संसदीय क्षेत्र के सातों मौजूदा भाजपा विधायकों के टिकट पर तलवार लटक गई है। हालांकि सातों के टिकट काट दिए जाएंगे, ऐसा अनुमान लगाना बेमानी है, मगर इतना तय है कि उपचुनाव के परिणाम के बाद भाजपा मौजूदा विधायकों को टिकट देने से पहले सभी समीकरणों को हर दृष्टिकोण से आंकना चाहेगी। ऐसे में किस का टिकट कटेगा और किस का बचेगा, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जहां तक प्रो. देवनानी का सवाल है तो आम धारणा यही है कि वे येन-केन-प्रकारेण टिकट तो ले ही आएंगे। उसकी अहम वजह है उनकी आरएसएस में गहरी पेठ। राजनीतिक जानकार ये भी मानते हैं कि इस बार टिकट वितरण में आरएसएस का पलड़ा भारी रहेगा, ऐसे वे कोई जुगाड़ बैठा ही लेंगे। वैसे भी भाजपा की आरएसएस लॉबी के जो प्रथम दस भाजपा नेता हैं, उनमें देवनानी शामिल हैं। यही वजह है कि उनकी टिकट कटना मुश्किल होगा। बात अगर उनके टिकट कटने की है तो उसकी बड़ी वजह ये है कि स्थानीय स्तर पर भाजपा की एक बड़ी लॉबी उनके खिलाफ है। यूं तो वह लॉबी मूलत: गैर सिंधीवाद की पोषक है, मगर विशेष रूप से उनके निशाने पर देवनानी हैं। यह कह कर कि अब देवनानी का जनाधार नहीं रहा है या उनका जीतना मुश्किल है, वह लॉबी गैर सिंधी को टिकट देने पर दबाव बनाएगी। उसके दबाव के बाद भी यही माना जाता है कि देवनानी का टिकट कटना आसान काम नहीं है। यह बात दीगर है कि वे खुद ही आत्मविश्वास खो दें और पीछे हट जाएं, तो बात अलग है।
जानकारी के अनुसार देवनानी को शिफ्ट करने पर कहीं न कहीं विचार हुआ जरूर है। यही वजह है कि पिछले दिनों भाजपा के अंदरखाने उनको प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाने की चर्चा हुई थी। संभव है कि वसुंधरा उनको यह पद देने पर सहमत नहीं रही हों, मगर खुद देवनानी की रुचि भी इसमें कम ही रही होगा। जाहिर सी बात है कि जो सत्ता का मजा चख चुका हो, वह काहे को संगठन का काम संभालेगा। संभव है कि देवनानी ने हाईकमान के सामने यह तर्क दिया हो कि संघ के शैक्षिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में वे तभी समर्थ होंगे, जबकि वे सत्ता में रहें।
पता चला है कि देवनानी ने राज्यसभा में जाने का भी विकल्प रखा था, मगर राज्य के तीन राज्यसभा सदस्यों के चुनाव का गणित ही ऐसा बैठा कि उनका नंबर नहीं आ पाया। उनका क्या, वसुंधरा की पहली पसंद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी तक को चांस नहीं मिला। राज्यसभा में जाने की देवनानी की मंशा कदाचित इस कारण रही होगी कि केन्द्र में पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवानी को हाशिये पर डाल दिए जाने के बाद एक भी सिंधी भाजपा नेता नहीं है। अगर देवनानी को राज्यसभा में जाने का मौका मिल जाता तो वे उस कमी को पूरा करने की कोशिश कर सकते थे।
हालांकि राजनीति में कभी भी कुछ भी संभव है, मगर फिलहाल देवनानी तिराहे पर तो खड़े हैं। एक मात्र सुरक्षित विकल्प विधानसभा चुनाव लडऩा है, मगर अब वह पहले जैसा आसान नहीं रह गया है। एक तो केन्द्र व राज्य सरकार के खिलाफ एंटी इंकंबेंसी फैक्टर, दूसरा स्थानीय स्तर पर भाजपा के एक धड़े के भितरघात करने की आशंका। इसके अतिरिक्त माना जा रहा है कि इस बार कोई न कोई गैर सिंधी भाजपाई निर्दलीय रूप से मैदान में जरूर उतरेगा, जिसका मकसद खुद जीतना कम, देवनानी को हराना अधिक होगा। ऐसे में चौथी बार भी आत्मविश्वास से भरे देवनानी को बहुत जोर आएगा। अगर आठ माह बाद बनी स्थितियां देवनानी को अनुकूल नहीं लगीं तो संभव है कि वे क्विट कर जाएं और नई राजनीतिक संभावनाएं तलाशने को मजबूर हो जाएं।
अजमेर उत्तर से लगातार तीन बार जीत चुके शिक्षा राज्यमंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का टिकट यूं तो आगामी विधानसभा चुनाव में कटना कठिन सा प्रतीत होता है, मगर राजनीति के जानकारों का मानना है कि चौथे चुनाव के मौके पर वे तिराहे पर खड़े हैं, जहां उन्हें तय करना होगा कि आगे की राजनीतिक यात्रा किस रास्ते में ले जायी जाए।
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तेजवानी गिरधर |
जानकारी के अनुसार देवनानी को शिफ्ट करने पर कहीं न कहीं विचार हुआ जरूर है। यही वजह है कि पिछले दिनों भाजपा के अंदरखाने उनको प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष बनाने की चर्चा हुई थी। संभव है कि वसुंधरा उनको यह पद देने पर सहमत नहीं रही हों, मगर खुद देवनानी की रुचि भी इसमें कम ही रही होगा। जाहिर सी बात है कि जो सत्ता का मजा चख चुका हो, वह काहे को संगठन का काम संभालेगा। संभव है कि देवनानी ने हाईकमान के सामने यह तर्क दिया हो कि संघ के शैक्षिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में वे तभी समर्थ होंगे, जबकि वे सत्ता में रहें।
पता चला है कि देवनानी ने राज्यसभा में जाने का भी विकल्प रखा था, मगर राज्य के तीन राज्यसभा सदस्यों के चुनाव का गणित ही ऐसा बैठा कि उनका नंबर नहीं आ पाया। उनका क्या, वसुंधरा की पहली पसंद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अशोक परनामी तक को चांस नहीं मिला। राज्यसभा में जाने की देवनानी की मंशा कदाचित इस कारण रही होगी कि केन्द्र में पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवानी को हाशिये पर डाल दिए जाने के बाद एक भी सिंधी भाजपा नेता नहीं है। अगर देवनानी को राज्यसभा में जाने का मौका मिल जाता तो वे उस कमी को पूरा करने की कोशिश कर सकते थे।
हालांकि राजनीति में कभी भी कुछ भी संभव है, मगर फिलहाल देवनानी तिराहे पर तो खड़े हैं। एक मात्र सुरक्षित विकल्प विधानसभा चुनाव लडऩा है, मगर अब वह पहले जैसा आसान नहीं रह गया है। एक तो केन्द्र व राज्य सरकार के खिलाफ एंटी इंकंबेंसी फैक्टर, दूसरा स्थानीय स्तर पर भाजपा के एक धड़े के भितरघात करने की आशंका। इसके अतिरिक्त माना जा रहा है कि इस बार कोई न कोई गैर सिंधी भाजपाई निर्दलीय रूप से मैदान में जरूर उतरेगा, जिसका मकसद खुद जीतना कम, देवनानी को हराना अधिक होगा। ऐसे में चौथी बार भी आत्मविश्वास से भरे देवनानी को बहुत जोर आएगा। अगर आठ माह बाद बनी स्थितियां देवनानी को अनुकूल नहीं लगीं तो संभव है कि वे क्विट कर जाएं और नई राजनीतिक संभावनाएं तलाशने को मजबूर हो जाएं।
रविवार, 11 फ़रवरी 2018
अनिता भदेल की जगह कौन होंगे दावेदार?
पहले नगर निगम चुनाव में अजमेर दक्षिण क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशियों के बुरी तरह पराजित होने और अब लोकसभा उपचुनाव में भारी अंतर से भाजपा प्रत्याशी रामस्वरूप लांबा के हार जाने के बाद इस इलाके की विधायक और महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल की टिकट पर तलवार लटक गई है। ऐसे में उनकी जगह कौन-कौन टिकट के दावेदार होंगे, इसको लेकर कानाफूसी होने लगी है।
अगर भाजपा इस बार भी कोली कार्ड खेलने के मूड में रही तो नगर निगम चुनाव में मेयर का चुनाव हारे डॉ. प्रियशील हाड़ा पर दाव लगाया जा सकता है। हालांकि आरएसएस ने एक बंदा भी तैयार कर लिया है, जो कि गुपचुप तरीके से काम पर लगा हुआ है। संभावना ये बताई जा रही है कि भाजपा किसी कोली को टिकट देने से बच सकती है, क्योंकि कोली वोट बैंक पर कांग्रेस नेता हेमंत भाटी ने कब्जा कर लिया है। ऐसे में अगर भाजपा ने इस बार रेगर कार्ड खेलने की सोची तो मौजूदा जिला प्रमुख वंदना नोगिया की किस्मत चेत सकती है। चूंकि उन पर शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का वरदहस्त है, इस कारण उनके टिकट की गंभीरता चुनाव के वक्त देवनानी की पावर पर निर्भर करेगी। यूं पूर्व कांग्रेस विधायक बाबूलाल सिंगारियां, जो कि भाजपा में शामिल हो चुके हैं, का भी दावा बताया जा रहा है। उन पर मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का हाथ है, मगर चूंकि यह सीट आरएसएस कोटे की मानी जाती है, इस कारण सिंगारियां को टिकट मिलने पर थोड़ा संशय है।
अगर भाजपा इस बार भी कोली कार्ड खेलने के मूड में रही तो नगर निगम चुनाव में मेयर का चुनाव हारे डॉ. प्रियशील हाड़ा पर दाव लगाया जा सकता है। हालांकि आरएसएस ने एक बंदा भी तैयार कर लिया है, जो कि गुपचुप तरीके से काम पर लगा हुआ है। संभावना ये बताई जा रही है कि भाजपा किसी कोली को टिकट देने से बच सकती है, क्योंकि कोली वोट बैंक पर कांग्रेस नेता हेमंत भाटी ने कब्जा कर लिया है। ऐसे में अगर भाजपा ने इस बार रेगर कार्ड खेलने की सोची तो मौजूदा जिला प्रमुख वंदना नोगिया की किस्मत चेत सकती है। चूंकि उन पर शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का वरदहस्त है, इस कारण उनके टिकट की गंभीरता चुनाव के वक्त देवनानी की पावर पर निर्भर करेगी। यूं पूर्व कांग्रेस विधायक बाबूलाल सिंगारियां, जो कि भाजपा में शामिल हो चुके हैं, का भी दावा बताया जा रहा है। उन पर मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का हाथ है, मगर चूंकि यह सीट आरएसएस कोटे की मानी जाती है, इस कारण सिंगारियां को टिकट मिलने पर थोड़ा संशय है।
शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018
अब मान रहे हैं कि लांबा कमजोर प्रत्याशी थे
अजमेर सीट के लिए हुए लोकसभा उपचुनाव में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने भले ही भाजपा प्रत्याशी रामस्वरूप लांबा को भोला मगर सच्चा इंसान बता कर तारीफ की हो, मगर हारने के बाद अब भाजपा नेता ही अपने फीड बैक में उन्हें कमजोर प्रत्याशी बता रहे हैं। कानाफूसी है कि हारने के अनेक कारणों में भाजपा विधायक एक कारण ये भी गिना रहे हैं। उनका कहना है कि लांबा भले ही साफ सुथरी छवि के हैं, मगर जातीय समीकरण के लिहाज से वे कमजोर साबित हुए। उनकी बात सही भी है।
यह बात सच है कि लांबा की हार में केन्द्र व राज्य सरकार के प्रति जनता की नाराजगी ने अपना पूरा असर दिखाया, मगर यह भी सच ही है कि जातीय समीकरण लांबा के पक्ष में नहीं बन पाया। एक ओर जहां ब्राह्मण पहली बार कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. रघु शर्मा के पक्ष में लामबंद हुए, वहीं राजपूत भी आनंदपाल प्रकरण के कारण भाजपा के खिलाफ चले गए। ये दोनों भाजपा के वोट बैंक थे। जब इनमें ही सेंध पड़ गई तो भला लांबा जीत कैसे सकते थे। हालांकि लांबा को प्रत्याशी बनाते वक्त ऐसा समीकरण बनने की आशंका भाजपा हाईकमान को थी, मगर वह जाटों के सबसे बड़े वोट बैंक को खोना नहीं चाहती थी। नतीजा सामने है। असल में भाजपा के लिए लांबा मजबूरी बन गए थे। एक तो किसी जाट को ही टिकट देना जरूरी था, दूसरा उसमें भी लांबा का पलड़ा अन्य जाटों के मुकाबले भारी था। यानि भाजपा ने यह चाल मजबूरी में चली, मगर इसी मात मिलनी थी और मिली भी।
यह बात सच है कि लांबा की हार में केन्द्र व राज्य सरकार के प्रति जनता की नाराजगी ने अपना पूरा असर दिखाया, मगर यह भी सच ही है कि जातीय समीकरण लांबा के पक्ष में नहीं बन पाया। एक ओर जहां ब्राह्मण पहली बार कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. रघु शर्मा के पक्ष में लामबंद हुए, वहीं राजपूत भी आनंदपाल प्रकरण के कारण भाजपा के खिलाफ चले गए। ये दोनों भाजपा के वोट बैंक थे। जब इनमें ही सेंध पड़ गई तो भला लांबा जीत कैसे सकते थे। हालांकि लांबा को प्रत्याशी बनाते वक्त ऐसा समीकरण बनने की आशंका भाजपा हाईकमान को थी, मगर वह जाटों के सबसे बड़े वोट बैंक को खोना नहीं चाहती थी। नतीजा सामने है। असल में भाजपा के लिए लांबा मजबूरी बन गए थे। एक तो किसी जाट को ही टिकट देना जरूरी था, दूसरा उसमें भी लांबा का पलड़ा अन्य जाटों के मुकाबले भारी था। यानि भाजपा ने यह चाल मजबूरी में चली, मगर इसी मात मिलनी थी और मिली भी।
गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018
क्या भाजपा करेगी अजमेर उत्तर में गैर सिंधी का प्रयोग?
हाल ही हुए लोकसभा उपचुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी के आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट पर संशय के बादल मंडरा रहे हैं। हालांकि समझा यही जाता है कि देवनानी इतने चतुर हैं कि आखिर तक अपना कब्जा नहीं छोड़ेंगे, मगर उनका टिकट कटने की उम्मीद में कुछ गैर सिंधी नेता दावा कर सकते हैं। इनमें सबसे पहला नाम है अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष शिव शंकर हेड़ा का। उन्होंने काफी समय से इसका ताना बाना बुनना शुरू कर दिया था। अगर सिद्धांतत: भाजपा गैर सिंधी का प्रयोग करती ही तो संभव है आखिर में खुद देवनानी अपने सबसे करीबी अजमेर नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत पर हाथ रख दें। यूं मसूदा विधायक श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पति युवा नेता भंवर सिंह पलाड़ा भी दमदार दावेदारी ठोक सकते हैं। अगर गैर सिंधी पर विचार की तनिक भी स्थिति बनी तो फेहरिश्त लंबी हो सकती है। अब तक देहात की राजनीति करने वाले प्रो. बी. पी. सारस्वत भी पीछे नहीं रहने वाले। गाहे-बगाहे संघ के महानगर प्रमुख सुनील दत्त जैन का भी नाम उछलता रहा है।
अगर देवनानी का टिकट कटने की नौबत आई और सिंधी को ही टिकट देने का मानस रहा तो सबसे प्रबल दावेदार कंवल प्रकाश किशनानी ही होंगे। यह सीट चूंकि संघ के खाते की है, इस कारण उन्हें वहां से हरी झंडी हासिल करनी होगी। हालांकि संघ की कार्यशैली ऐसी रही है कि वह अचानक ऐसा नाम सामने ले आता है, जिसे कोई जानता तक नहीं, मगर बदले राजनीतिक हालात में चेहरे की लोकप्रियता का भी ध्यान रख सकता है।
अगर देवनानी का टिकट कटने की नौबत आई और सिंधी को ही टिकट देने का मानस रहा तो सबसे प्रबल दावेदार कंवल प्रकाश किशनानी ही होंगे। यह सीट चूंकि संघ के खाते की है, इस कारण उन्हें वहां से हरी झंडी हासिल करनी होगी। हालांकि संघ की कार्यशैली ऐसी रही है कि वह अचानक ऐसा नाम सामने ले आता है, जिसे कोई जानता तक नहीं, मगर बदले राजनीतिक हालात में चेहरे की लोकप्रियता का भी ध्यान रख सकता है।
बुधवार, 7 फ़रवरी 2018
भाजपाई दिग्गज धराशायी, उनके भविष्य पर भी सवालिया निशान
अजमेर। केन्द्रीय पंचायत से लेकर स्थानीय ग्रामीण पंचायत तक भाजपा का मजबूत कब्जा होने के बावजूद अजमेर में भाजपा का किला धराशायी हो गया। कांग्रेस ने न केवल आठों विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल की, अपितु आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अपने आप को भाजपा के मुकाबले खड़ा कर लिया। भाजपा के लिए अफसोसनाक बात ये रही कि दो राज्य मंत्रियों व दो संसदीय सचिवों को मिला कर सात विधायकों, एक प्राधिकरण अध्यक्ष के अतिरिक्त नगर निगम और पालिकाओं में भाजपा के बोर्ड, अजमेर विकास प्राधिकरण में भाजपा से जुड़े अध्यक्ष, भाजपा की जिला प्रमुख और पंचायतों में प्रतिनिधियों की मजबूत सेना भी नकारा साबित हो गई। इससे यह साफ हो गया कि आम आदमी किस कदर भाजपा के मंत्रियों और जनप्रतिनिधियों से नाराज है। इसके अतिरिक्त जिन लोकलुभावन जुमलों व नारों के दम पर केन्द्र व राज्य में भाजपा काबिज हुई, उस पर खरी नहीं उतरी। महंगाई, बेराजगारी व आर्थिक मंदी से त्रस्त जनता में गुस्से का अंडर करंट कितना तगड़ा था, इसका अनुमान भाजपा हाईकमान नहीं लगा पाया। अगर ये मान भी लिया जाए कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे व मंत्रियों ने सरकार की योजनाओं को खूब गिनाया और नाराज लोगों को राजी करने का भरपूर प्रयास किया, मगर वह सब का सब बेकार हो गया। हालांकि भाजपा के पास स्मार्ट सिटी का मजबूत पत्ता था, मगर धरातल पर कोई ठोस कार्य नहीं होने की वजह से वह कारगर नहीं रहा। दूसरी ओर कांग्रेस लोगों को यह समझाने में कामयाब रही कि पूर्व सांसद व केन्द्रीय राज्य मंत्री सचिन पायलट ने जिस तरह से विकास कार्य करवाए, उसी प्रकार वे और रघु शर्मा आगे भी करवाने को तत्पर रहेंगे। भाजपा ने पन्ना प्रमुख और विस्तारकों की लंबी चौड़ी फौज तो बनाई, जो कि अपने आप में वाकई एक नया प्रयोग था, मगर पहली बार मेरा बूथ मेरा गौरव का फार्मूला लेकर आई कांग्रेस सफल हो गई।
असल में भाजपा की हार में जातीय समीकरण ने भी अपनी भूमिका निभाई। एक ओर जहां ग्रामीण क्षेत्रों में यह चुनाव जाट बनाम गैर जाट में बंट गया, वहीं ब्राह्मणों के रघु शर्मा के पक्ष में लामबंद होने व राजपूतों की सरकार से नाराजगी ने भाजपा का सारा तानाबाना छिन्न भिन्न कर दिया। सूत्र तो यहां तक बताते हैं कि भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस ने भी निष्क्रियता बरती। कदाचित इसके पीछे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हाथ रहा हो, क्योंकि वे आरंभ से वसुंधरा को हटा कर अपने हिसाब से जाजम बिछाना चाहते थे।
सभी मौजूदा विधायकों के टिकट खतरे में
ताजा हार के बाद संसदीय क्षेत्र के सभी सात भाजपा विधायकों के टिकट खतरे में पड़ गए हैं। हालांकि पहले ये माना जा रहा था कि आगामी विधानसभा चुनाव में शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी, संसदीय सचिवद्वय शत्रुघ्न गौतम व रावत के टिकट तो पक्के होंगे, मगर अब सभी के टिकट पर तलवार लटक गई है। अगर भाजपा हाईकमान ने एक सौ से अधिक विधायकों के टिकट काटने की रणनीति बनाए तो संभव है सात में से इक्का-दुक्का ही टिकट हासिल कर पाए।
रामस्वरूप लांबा का भविष्य क्या होगा?
अजमेर के भूतपूर्व सांसद व केन्द्रीय राज्य मंत्री रहे स्वर्गीय प्रो. सांवरलाल जाट के उत्तराधिकारी के रूप में लोकसभा उपचुनाव लड़े रामस्वरूप लांबा के हारने से शुरुआत में ही उनके राजनीतिक भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया है, बावजूद इसके मौजूदा जातीय समीकरण के चलते वे आगामी विधानसभा चुनाव में नसीराबाद सीट के प्रबल दावेदार रहेंगे।
ज्ञातव्य है कि पूर्व में इस सीट से लांबा के पिताश्री विधायक थे, मगर उनसे इस्तीफा दिलवा कर लोकसभा चुनाव लड़वाया गया। वे जीते भी। खाली हुई सीट पर पूर्व जिला प्रमुख सरिता गेना को चुनाव लड़वाया गया, मगर वे हार गईं। इस कारण आगामी विधानसभा चुनाव में उनका दावा कमजोर रहेगा। अब चूंकि लांबा उपचुनाव में हार गए हैं, ऐसे में स्वाभाविक है कि वे अपना भविष्य नसीराबाद में ही देखेंगे। यह सीट जाट व गुर्जर बहुल है। गत लोकसभा के चुनाव में भाजपा को यहां से 10 हजार 992 मतों की बढ़त मिली थी, लेकिन इस उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार ने 1 हजार 530 मतों की बढ़त हासिल की है। हालांकि लंाबा को अपने ही घर में मात मिली है, मगर यह अंतर ज्यादा नहीं है। ऐसे में आगामी विधानसभा चुनाव में यहां से वे ही भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार होंगे। और निश्चित रूप से स्वर्गीय जाट की लॉबी इसके लिए पूरा दबाव भी बनाएगी।
रघु शर्मा के लिए सुरक्षित हो गई केकड़ी सीट
हालांकि अभी यह भविष्य के गर्भ में छिपा है कि हाल ही सांसद बने डॉ. रघु शर्मा अपने नए प्रोफाइल को बरकरार रखते हुए आगामी लोकसभा चुनाव लड़ते हैं या खुद को राजस्थान की राजनीति के लिए ही सुरक्षित रखते हैं, मगर इतना तय है कि अगर उनकी इच्छा हुई और हाईकमान ने इजाजत दे दी तो वे आगामी विधानसभा चुनाव में केकड़ी सीट से ही चुनाव लड़ सकते हैं।
ज्ञातव्य है कि पिछला चुनाव उन्होंने केकड़ी से लड़ा था, मगर तब वे 8 हजार 863 वोटों से हार गए थे। असल में उन्होंने इससे पूर्व केकड़ी में विधायक रहते हुए कई काम करवाए थे, इस कारण मोदी लहर के बाद भी यही माना जा रहा था कि वे जीत जाएंगे, मगर ऐसा हुआ नहीं। हार के बाद भी वे लगातार केकड़ी में सक्रिय रहे। हाल ही उन्हें लोकसभा का चुनाव लड़वाया गया और वे इसमें कामयाब रहे। न केवल केकड़ी, अपितु अजमेर संसदीय क्षेत्र की सभी आठों सीटों पर कांग्रेस को बढ़त हासिल हुई। विशेष रूप से केकड़ी में रिकॉर्ड 34 हजार 790 मतों से जीत हासिल की है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि केकड़ी में उन्होंने कितनी मजबूत पकड़ बना रखी है। उन्होंने मजबूत भाजपा विधायक व संसदीय सचिव शत्रुघ्न गौतम की चूलें हिला कर रख दी हैं। ऐसे में यदि रघु की इच्छा हुई कि वे आगे इसी सीट से चुनाव लड़ें तो एक मात्र प्रबल दावेदार होंगे।
असल में भाजपा की हार में जातीय समीकरण ने भी अपनी भूमिका निभाई। एक ओर जहां ग्रामीण क्षेत्रों में यह चुनाव जाट बनाम गैर जाट में बंट गया, वहीं ब्राह्मणों के रघु शर्मा के पक्ष में लामबंद होने व राजपूतों की सरकार से नाराजगी ने भाजपा का सारा तानाबाना छिन्न भिन्न कर दिया। सूत्र तो यहां तक बताते हैं कि भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस ने भी निष्क्रियता बरती। कदाचित इसके पीछे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का हाथ रहा हो, क्योंकि वे आरंभ से वसुंधरा को हटा कर अपने हिसाब से जाजम बिछाना चाहते थे।
सभी मौजूदा विधायकों के टिकट खतरे में
ताजा हार के बाद संसदीय क्षेत्र के सभी सात भाजपा विधायकों के टिकट खतरे में पड़ गए हैं। हालांकि पहले ये माना जा रहा था कि आगामी विधानसभा चुनाव में शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी, संसदीय सचिवद्वय शत्रुघ्न गौतम व रावत के टिकट तो पक्के होंगे, मगर अब सभी के टिकट पर तलवार लटक गई है। अगर भाजपा हाईकमान ने एक सौ से अधिक विधायकों के टिकट काटने की रणनीति बनाए तो संभव है सात में से इक्का-दुक्का ही टिकट हासिल कर पाए।
रामस्वरूप लांबा का भविष्य क्या होगा?
अजमेर के भूतपूर्व सांसद व केन्द्रीय राज्य मंत्री रहे स्वर्गीय प्रो. सांवरलाल जाट के उत्तराधिकारी के रूप में लोकसभा उपचुनाव लड़े रामस्वरूप लांबा के हारने से शुरुआत में ही उनके राजनीतिक भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया है, बावजूद इसके मौजूदा जातीय समीकरण के चलते वे आगामी विधानसभा चुनाव में नसीराबाद सीट के प्रबल दावेदार रहेंगे।
ज्ञातव्य है कि पूर्व में इस सीट से लांबा के पिताश्री विधायक थे, मगर उनसे इस्तीफा दिलवा कर लोकसभा चुनाव लड़वाया गया। वे जीते भी। खाली हुई सीट पर पूर्व जिला प्रमुख सरिता गेना को चुनाव लड़वाया गया, मगर वे हार गईं। इस कारण आगामी विधानसभा चुनाव में उनका दावा कमजोर रहेगा। अब चूंकि लांबा उपचुनाव में हार गए हैं, ऐसे में स्वाभाविक है कि वे अपना भविष्य नसीराबाद में ही देखेंगे। यह सीट जाट व गुर्जर बहुल है। गत लोकसभा के चुनाव में भाजपा को यहां से 10 हजार 992 मतों की बढ़त मिली थी, लेकिन इस उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार ने 1 हजार 530 मतों की बढ़त हासिल की है। हालांकि लंाबा को अपने ही घर में मात मिली है, मगर यह अंतर ज्यादा नहीं है। ऐसे में आगामी विधानसभा चुनाव में यहां से वे ही भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार होंगे। और निश्चित रूप से स्वर्गीय जाट की लॉबी इसके लिए पूरा दबाव भी बनाएगी।
रघु शर्मा के लिए सुरक्षित हो गई केकड़ी सीट
हालांकि अभी यह भविष्य के गर्भ में छिपा है कि हाल ही सांसद बने डॉ. रघु शर्मा अपने नए प्रोफाइल को बरकरार रखते हुए आगामी लोकसभा चुनाव लड़ते हैं या खुद को राजस्थान की राजनीति के लिए ही सुरक्षित रखते हैं, मगर इतना तय है कि अगर उनकी इच्छा हुई और हाईकमान ने इजाजत दे दी तो वे आगामी विधानसभा चुनाव में केकड़ी सीट से ही चुनाव लड़ सकते हैं।
ज्ञातव्य है कि पिछला चुनाव उन्होंने केकड़ी से लड़ा था, मगर तब वे 8 हजार 863 वोटों से हार गए थे। असल में उन्होंने इससे पूर्व केकड़ी में विधायक रहते हुए कई काम करवाए थे, इस कारण मोदी लहर के बाद भी यही माना जा रहा था कि वे जीत जाएंगे, मगर ऐसा हुआ नहीं। हार के बाद भी वे लगातार केकड़ी में सक्रिय रहे। हाल ही उन्हें लोकसभा का चुनाव लड़वाया गया और वे इसमें कामयाब रहे। न केवल केकड़ी, अपितु अजमेर संसदीय क्षेत्र की सभी आठों सीटों पर कांग्रेस को बढ़त हासिल हुई। विशेष रूप से केकड़ी में रिकॉर्ड 34 हजार 790 मतों से जीत हासिल की है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि केकड़ी में उन्होंने कितनी मजबूत पकड़ बना रखी है। उन्होंने मजबूत भाजपा विधायक व संसदीय सचिव शत्रुघ्न गौतम की चूलें हिला कर रख दी हैं। ऐसे में यदि रघु की इच्छा हुई कि वे आगे इसी सीट से चुनाव लड़ें तो एक मात्र प्रबल दावेदार होंगे।
शनिवार, 13 जनवरी 2018
मुद्दों के लिहाज से भाजपा के लिए भारी है उपचुनाव
अजमेर लोकसभा क्षेत्र के उपचुनाव के लिए प्रत्याशियों के नामांकन के बाद उनकी व्यक्तिगत छवि के अतिरिक्त जातीय व राजनीतिक समीकरण अपनी भूमिका निभाएंगे, मगर यदि मुद्दों की बात करें तो यह उपचुनाव भाजपा के लिए भारी रहेगा।
इस उपचुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों की बात करें तो महंगाई एक बड़ा मुद्दा है। महंगाई को ही सबसे बड़ा मुद्दा बना कर केन्द्र में मोदी सरकार काबिज हुई थी, मगर उसके सत्तारूढ़ होने के बाद महंगाई और अधिक बढ़ गई है, इस कारण यह मुद्दा इस बार भाजपा को भारी पडऩे वाला है।
इसी प्रकार नोट बंदी की वजह से व्यापार जगत से लेकर आमजन को जो परेशानी हुई, उसका प्रभाव इस चुनाव पर पड़ता साफ दिखाई देता है। इसे मोदी सरकार की एक बड़ी नाकामी के रूप में माना जाता है। नाकामी इसलिए कि जिस कालेधन को बाहर लाने की खातिर नोटबंदी लागू की गई, वह तनिक भी निकल कर नहीं आया। और यही वजह है कि पिछली बार मोदी लहर का जो व्यापक असर था, वह इस बार पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। हालांकि भाजपा अब भी मोदी के नाम पर ही वोट मांगने वाली है।
इसी प्रकार आननफानन में जीएसटी लागू किए जाने से व्यापारी बेहद त्रस्त है। भाजपा मानसिकता का व्यापारी भी मोदी सरकार के इस कदम की आलोचना कर रहा है। मोदी सरकार के प्रति यह गुस्सा कांग्रेस के लिए वोट के रूप में तब्दील होगा, इसको लेकर मतैक्य हो सकता है। उसकी एक बड़ी वजह ये है कि वर्तमान में केन्द्र व राज्य में भाजपा की ही सरकार है और ऐसे में व्यापारी मुखर होने से बचेगा।
मोदी सरकार की परफोरमेंस अपेक्षा के अनुरूप न होने व वसुंधरा राजे की सरकार की नकारा वाली छवि भी भाजपा को नुकसान पहुंचा सकती है। इसमें ऐंटी इन्कम्बेंसी को भी शामिल किया जा सकता है। इतना ही नहीं राज्य कर्मचारियों, शिक्षकों व चिकित्सकों के अतिरिक्त बेरोजगार युवाओं में भी राज्य सरकार के प्रति गहरी नाराजगी है।
बात अगर स्थानीय मुद्दों की करें तो विकास एक विचारणीय मुद्दा है। कांग्रेस के पास यह मुद्दा सबसे अधिक प्रभावोत्पादक है। उसकी वजह ये है कि अजमेर संसदीय क्षेत्र से सांसद व केन्द्रीय राज्य मंत्री रहे मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के कार्यकाल में अभूतपूर्व विकास कार्य हुए, जिनमें प्रमुख रूप से हवाई अड्डे का शिलान्यास, केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना सहित अनेक रेल सुविधाएं बढ़ाना शामिल है। वस्तुत: पूर्व भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत के पांच बार यहां से सांसद रहने के बाद भी उनके कार्यकाल में कोई विकास कार्य नहीं हुआ। निवर्तमान भाजपा सांसद स्वर्गीय प्रो. सांवर लाल जाट का कार्यकाल भी उपलब्धि शून्य माना जाता है। जमीनी स्तर पर आम जनमानस में भी यह धारणा है कि सचिन पायलट विकास पुरुष हैं। लोगों को मलाल है कि पिछली बार मोदी लहर के चलते वे पराजित हो गए। हालांकि विकास का यह मुद्दा विशेष रूप से सचिन पायलट के उम्मीदवार होने पर अधिक कारगर होता।
दूसरी ओर भाजपा प्रत्याशी के पास केवल मोदी के नाम पर केन्द्र प्रवर्तित योजनाओं के आधार पर वोट मांगने की गुंजाइश है। आंकड़ों के नाम पर राज्य सरकार की योजनाओं को गिनाया तो जा सकेगा, मगर आम धारणा है कि वसुंधरा राजे का यह कार्यकाल अपेक्षा के विपरीत काफी निराशाजनक रहा है। किशनगढ़ हवाई अड्डे की ही बात करें तो भले ही इसका शुभारंभ वसुंधरा ने किया और इसे अपने खाते में गिनाने की कोशिश की, मगर आम धारणा है कि अगर सचिन पायलट कोशिश न करते तो यह धरातल पर ही नहीं आता।
स्थानीय जातीय समीकरण की बात करें तो भाजपा की यह मजबूरी ही है कि उसे जाट प्रत्याशी ही देना पड़ा, क्योंकि यह सीट प्रो. सांवरलाल जाट के निधन से खाली हुई है। इसके अतिरिक्त जाट वोट बैंक भी तकरीबन दो लाख से अधिक है, जिसे भाजपा नाराज नहीं करना चाहती थी। भाजपा के पक्ष में यह एक बड़ा फैक्टर है। मगर इसमें भी एक पेच ये है कि प्रो. जाट के तुलना में उनक पुत्र रामस्वरूप लांबा की छवि कमजोर है। शहरी क्षेत्र में जाट फैक्टर नहीं है, मगर ग्रामीण इलाकों में गैर जाटों के लामबंद होने की संभावना है।
जहां तक गुर्जर वोट बैंक का सवाल है, वह सचिन पायलट के प्रभाव की वजह से कांग्रेस को मिलेगा। यूं परंपरागत रूप से रावत वोट बैंक भाजपा का रहा है, मगर किसी प्रभावशाली रावत नेता के अभाव में भाजपा को उसका पूरा लाभ मिलेगा, इसमें तनिक संदेह है। लगातार छह चुनावों में प्रो. रासासिंह रावत के भाजपा प्रत्याशी होने के कारण रावत वोट एकमुश्त व अधिकाधिक मतदान प्रतिशत के रूप में भाजपा को मिलता था, मगर अब वह स्थिति नहीं है। वैसे भी परिसीमन के दौरान रावत बहुल मगरा इलाका अजमेर संसदीय क्षेत्र से हटा दिया गया था, इस कारण उनके तकरीबन पचास हजार वोट कम हो गए हैं। वैश्य व सिंधी वोट बैंक परंपरागत रूप से भाजपा के पक्ष में माना जाता है, जबकि मुस्लिम व अनुसूचित जाति का वोट बैंक कांग्रेस की झोली में गिना जाता है। परंपरागत रूप से भाजपा का पक्षधर रहा राजपूत समाज कुख्यात आनंदपाल प्रकरण की वजह से नाराज है। उसे सरकार हल नहीं कर पाई है। ब्राह्मण वोट बैंक के कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में लामबंद होने के आसार हैं। कुल मिला कर मौजूदा मुद्दों की रोशनी में यह उपचुनाव भाजपा के लिए कठिन है, भले ही केन्द्र व राज्य में उसकी सरकार है, जिसका दुरुपयोग होने की पूरी आशंका है।
-तेजवानी गिरधर
इस उपचुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों की बात करें तो महंगाई एक बड़ा मुद्दा है। महंगाई को ही सबसे बड़ा मुद्दा बना कर केन्द्र में मोदी सरकार काबिज हुई थी, मगर उसके सत्तारूढ़ होने के बाद महंगाई और अधिक बढ़ गई है, इस कारण यह मुद्दा इस बार भाजपा को भारी पडऩे वाला है।
इसी प्रकार नोट बंदी की वजह से व्यापार जगत से लेकर आमजन को जो परेशानी हुई, उसका प्रभाव इस चुनाव पर पड़ता साफ दिखाई देता है। इसे मोदी सरकार की एक बड़ी नाकामी के रूप में माना जाता है। नाकामी इसलिए कि जिस कालेधन को बाहर लाने की खातिर नोटबंदी लागू की गई, वह तनिक भी निकल कर नहीं आया। और यही वजह है कि पिछली बार मोदी लहर का जो व्यापक असर था, वह इस बार पूरी तरह से समाप्त हो चुका है। हालांकि भाजपा अब भी मोदी के नाम पर ही वोट मांगने वाली है।
इसी प्रकार आननफानन में जीएसटी लागू किए जाने से व्यापारी बेहद त्रस्त है। भाजपा मानसिकता का व्यापारी भी मोदी सरकार के इस कदम की आलोचना कर रहा है। मोदी सरकार के प्रति यह गुस्सा कांग्रेस के लिए वोट के रूप में तब्दील होगा, इसको लेकर मतैक्य हो सकता है। उसकी एक बड़ी वजह ये है कि वर्तमान में केन्द्र व राज्य में भाजपा की ही सरकार है और ऐसे में व्यापारी मुखर होने से बचेगा।
मोदी सरकार की परफोरमेंस अपेक्षा के अनुरूप न होने व वसुंधरा राजे की सरकार की नकारा वाली छवि भी भाजपा को नुकसान पहुंचा सकती है। इसमें ऐंटी इन्कम्बेंसी को भी शामिल किया जा सकता है। इतना ही नहीं राज्य कर्मचारियों, शिक्षकों व चिकित्सकों के अतिरिक्त बेरोजगार युवाओं में भी राज्य सरकार के प्रति गहरी नाराजगी है।
बात अगर स्थानीय मुद्दों की करें तो विकास एक विचारणीय मुद्दा है। कांग्रेस के पास यह मुद्दा सबसे अधिक प्रभावोत्पादक है। उसकी वजह ये है कि अजमेर संसदीय क्षेत्र से सांसद व केन्द्रीय राज्य मंत्री रहे मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के कार्यकाल में अभूतपूर्व विकास कार्य हुए, जिनमें प्रमुख रूप से हवाई अड्डे का शिलान्यास, केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना सहित अनेक रेल सुविधाएं बढ़ाना शामिल है। वस्तुत: पूर्व भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत के पांच बार यहां से सांसद रहने के बाद भी उनके कार्यकाल में कोई विकास कार्य नहीं हुआ। निवर्तमान भाजपा सांसद स्वर्गीय प्रो. सांवर लाल जाट का कार्यकाल भी उपलब्धि शून्य माना जाता है। जमीनी स्तर पर आम जनमानस में भी यह धारणा है कि सचिन पायलट विकास पुरुष हैं। लोगों को मलाल है कि पिछली बार मोदी लहर के चलते वे पराजित हो गए। हालांकि विकास का यह मुद्दा विशेष रूप से सचिन पायलट के उम्मीदवार होने पर अधिक कारगर होता।
दूसरी ओर भाजपा प्रत्याशी के पास केवल मोदी के नाम पर केन्द्र प्रवर्तित योजनाओं के आधार पर वोट मांगने की गुंजाइश है। आंकड़ों के नाम पर राज्य सरकार की योजनाओं को गिनाया तो जा सकेगा, मगर आम धारणा है कि वसुंधरा राजे का यह कार्यकाल अपेक्षा के विपरीत काफी निराशाजनक रहा है। किशनगढ़ हवाई अड्डे की ही बात करें तो भले ही इसका शुभारंभ वसुंधरा ने किया और इसे अपने खाते में गिनाने की कोशिश की, मगर आम धारणा है कि अगर सचिन पायलट कोशिश न करते तो यह धरातल पर ही नहीं आता।
स्थानीय जातीय समीकरण की बात करें तो भाजपा की यह मजबूरी ही है कि उसे जाट प्रत्याशी ही देना पड़ा, क्योंकि यह सीट प्रो. सांवरलाल जाट के निधन से खाली हुई है। इसके अतिरिक्त जाट वोट बैंक भी तकरीबन दो लाख से अधिक है, जिसे भाजपा नाराज नहीं करना चाहती थी। भाजपा के पक्ष में यह एक बड़ा फैक्टर है। मगर इसमें भी एक पेच ये है कि प्रो. जाट के तुलना में उनक पुत्र रामस्वरूप लांबा की छवि कमजोर है। शहरी क्षेत्र में जाट फैक्टर नहीं है, मगर ग्रामीण इलाकों में गैर जाटों के लामबंद होने की संभावना है।
जहां तक गुर्जर वोट बैंक का सवाल है, वह सचिन पायलट के प्रभाव की वजह से कांग्रेस को मिलेगा। यूं परंपरागत रूप से रावत वोट बैंक भाजपा का रहा है, मगर किसी प्रभावशाली रावत नेता के अभाव में भाजपा को उसका पूरा लाभ मिलेगा, इसमें तनिक संदेह है। लगातार छह चुनावों में प्रो. रासासिंह रावत के भाजपा प्रत्याशी होने के कारण रावत वोट एकमुश्त व अधिकाधिक मतदान प्रतिशत के रूप में भाजपा को मिलता था, मगर अब वह स्थिति नहीं है। वैसे भी परिसीमन के दौरान रावत बहुल मगरा इलाका अजमेर संसदीय क्षेत्र से हटा दिया गया था, इस कारण उनके तकरीबन पचास हजार वोट कम हो गए हैं। वैश्य व सिंधी वोट बैंक परंपरागत रूप से भाजपा के पक्ष में माना जाता है, जबकि मुस्लिम व अनुसूचित जाति का वोट बैंक कांग्रेस की झोली में गिना जाता है। परंपरागत रूप से भाजपा का पक्षधर रहा राजपूत समाज कुख्यात आनंदपाल प्रकरण की वजह से नाराज है। उसे सरकार हल नहीं कर पाई है। ब्राह्मण वोट बैंक के कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में लामबंद होने के आसार हैं। कुल मिला कर मौजूदा मुद्दों की रोशनी में यह उपचुनाव भाजपा के लिए कठिन है, भले ही केन्द्र व राज्य में उसकी सरकार है, जिसका दुरुपयोग होने की पूरी आशंका है।
-तेजवानी गिरधर
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