ठिये-ठिकाने। आप समझे ना। जहां शहर की चौधर करने वाले जमा होते हैं। जहां बाखबर के साथ बेखबर चर्चाओं का मेला लगता है। अफवाहों की अबाबीलें भी घुसपैठ कर जाती हैं, तो कानाफूसियां भी अठखेलियां करती हैं। हंसी-ठिठोली, चुहलबाजी, तानाकशी व टीका-टिप्पणी के इस चाट भंडार पर शहर भर के चटोरे खिंचे चले आते हैं। दुनियाभर की टेंशन और भौतिक युग की आपाधापी के बीच यह वह जगह है, जहां आ कर जिंदगी रिलैक्स करती है। इतना ही नहीं, जहां अनायास शहर की फिजां का तानाबाना बुना जाता है। जहां से निकली हवा शहर की आबोहवा में बिखर जाती है।
दैनिक भास्कर, अजमेर संस्करण के संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल जिंदगी के इस अनछुए से ठिये को अपने आलेख में बखूबी छू चुके हैं। उन्होंने ठिये-ठिकाने पर ऐसा शब्द चित्र खींचा है, जिसे पढऩे पर आपके जेहन में हूबहू नक्शा उभर आएगा। उसकी सुर्खी है- ठिये-ठिकाने, जहां जि़न्दगी मुस्कुराती है।
पिछले दिनों अजयमेरू प्रेस क्लब मेें चाय पर चर्चा के दौरान भी उन्होंने अजमेर के एक खास ठिये का जिक्र करते हुए मौजूद पत्रकार साथियों को तकरीबन पंद्रह साल पीछे ले जा कर गहरी डुबकी लगवाई थी। उस ठिये का नाम यूं तो कुछ नहीं, मगर क्लॉक टॉवर पुलिस थाने के मेन गेट से सटी बाहरी दीवार पर रोजाना रात सजने वाले मजमे को कुछ मसखरे नाले शाह की मजार कहा करते थे। दरअसल दीवार के सहारे पटे हुए एक नाले पर होने के कारण ये नाम पड़ा था। अपने आलेख में डॉ. अग्रवाल ने इसे कुछ इस तरह बयां किया है:-
अजमेर रेलवे स्टेशन के बाहर मुख्य सड़क पर ऐसी ही एक चौपाल बरसों तक लगा करती थी, जिसमें बैठने के लिए लोग अपने दुपहिया वाहनों का इस्तेमाल किया करते थे। कई बार यह रात्रि चौपाल भोर होने तक खिंच आती थी। अजमेर की इस चौपाल में बहुसंख्या भले ही शहर के पत्रकारों की रहा करती हो, मगर शिरकत बड़े-बड़े मंत्रियों व अफसरों से लेकर पंक्चर बनाने वालों तक की रहती थी।
असल में डॉ. अग्रवाल ही इस ठिये के सूत्रधार थे। तब वे नवज्योति में हुआ करते थे। उनके संपादन कार्य से निवृत्त के बाद यहां पहुंचने से पहले ही एक-एक करके ठियेबाज जुटना शुरू हो जाते थे। सबके नाम लेना तो नामुमकिन है। चंद शख्सियतों का जिक्र किए देते हैं:- स्वर्गीय वीर कुमार, रणजीत मलिक, इंदुशेखर पंचोली, संतोष गुप्ता, नरेन्द्र भारद्वाज, ललित शर्मा, अतुल शर्मा, तिलोक आदि आदि, जो कि रोजाना इस मजार पर दीया जलाने चले आते थे। डॉ. अग्रवाल के आने के बाद तो महफिल पूरी रंगत में आ जाती थी। इस मयखाने की मय का स्वाद चखने कई रिंद खिंचे चले आते थे। यहां दिनभर की सियासी हलचल के साथ अफसरशाही के किस्सों पर खुल कर चटकारे लिये जाते थे। समझा जा सकता है कि दूसरे दिन अखबारों में छपने वाली खबरों का तो जिक्र होता ही था, उन छुटपुट वारदातों पर भी कानाफूसी होती थी, जो ऑफ द रिकार्ड होने के कारण खबर की हिस्सा नहीं बन पाती थीं। अगर ये कहा जाए कि इस ठिये पर शहर का दिल धड़कता था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। चूंकि यहां हर तबके के बुद्धिजीवी जमा होते थे, इस कारण खबरनवीसों को शहर की क्रिया-प्रतिक्रिया का भरपूर फीडबेक मिला करता था। जो बाद में अखबारों के जरिए शहर की दिशा-दशा तय करता था। जिन पंक्चर बनाने वाले का जिक्र आया है, उनका नाम है श्री सीताराम चौरसिया। कांग्रेस सेवादल के जाने-माने कार्यकर्ता। सेवादल के ही योगेन्द्र सेन इस मजार के पक्के खादिम थे। बाद में यह ठीया वरिष्ठ पत्रकार इंदुशेखर की पहल पर पैरामाउंट होटल के एक कमरे में शिफ्ट हो गया। एक घर बनाऊंगा की तर्ज पर एक सा छोटा ठिया सामने ही रेलवे स्टेशन के गेट के पास कोने में चाय की दुकान पर भी खुला, जो दैनिक न्याय के पत्रकारों ने जमाया था। लगे हाथ ये बताना वाजिब रहेगा कि नाले शाह की मजार से भी पहले क्लॉक टॉवर के सामने मौजूदा इंडिया पान हाउस के पास चबूतरे पर दैनिक नवज्योति के क्राइम रिपोर्टर स्वर्गीय जवाहर सिंह चौधरी देर रात के धूनी रमाया करते थे।
शहर के दूसरे ठियों पर चर्चा से पहले डॉ. अग्रवाल के आलेख की चंद पंक्तियों का आनंद लीजिए:-
कहते हैं दिल से दिल को राहत होती है। इंसान को अगर कुछ दिन, किसी दूसरे इंसान की शक्ल दिखाई न दे तो वह यूं कुम्हला जाता है, जैसे धूप के बगैर कोई पौधा। इंसान की इसी फितरत ने तरह-तरह के मजमों को जन्म दिया। गांव की चौपालें, मारवाड़ की हथाइयां, भोपाल के पटिये, बीकानेर के पाटे, कस्बों में ठालों के अड्डे, छोटे शहरों में पान की दुकानें और बड़े शहरों में काफी हाउस, न जाने कब से एक-दूसरे के दिल तक पहुंचने का माध्यम बनते रहें हैं। टीवी, सिनेमा, इंटरनेट या फेसबुक ने इंसान को भले चलता- फिरता चित्र भर बना डाला हो, मगर ये सब मिलकर आज भी उन्मुक्त अट्टहास से आबाद उन असंगठित, अनाम और अनौपचारिक ठिकानों का विकल्प नहीं बन पाए हैं, जिन्हें कहीं ठिया कहा जाता है तो कहीं बैठक। ऐसे ठिकानों के रसिक फुरसतियों के घर, उनकी अनुपस्थिति में जब कोई उनका चाहने वाला उन्हें पूछने पहुंचता है तो घर का दरवाजा खोलती अम्मा या भाभी की आंखों में उलाहना देखकर ही समझ जाता है कि उनका अजीज इस समय कहां बैठा होगा।
गप्प, चुहल और मटरगश्ती के ऐसे ठिकानों के लिए किसी खास तरह की जगह की दरकार नहीं होती। ऐसी चौपाल किसी बारादरीनुमा हथाई में भी लग सकती है, तो गांव के किसी चौगान में भी। किसी पेड़ की छांव ऐसे फुरसतियों का स्थायी ठिकाना बन सकती है, तो किसी मंदिर की पेडिय़ां भी। गुजरे जमाने में इसी मकसद से मकान के बाहर मोखे, मोड़े या चबूतरे बनाए जाते थे। कई बार किसी का उजाड़ कमरा भी ऐसे ठिकानों की शक्ल ले लेता है। शहरों में मुड्डे अथवा मुड्डियों वाली चाय की थडिय़ां इस काम के लिए बेहतरीन जगह मानी जाती है।
इन चौपालों को महज गप्प ठोकने का अड्डा कहना इंसान की जिंदादिली का मजाक उड़ाने से कम नहीं होगा। जिंदगी से भरपूर इन ठिकानों का हिस्सा वही इंसान बन सकता है, जिसका दिल उसके दिमाग के सामने कतई कमजोर न हो।
बात अब शहर के कुछ और ठियों की। उनमें सबसे ऐतिहासिक है नया बाजार चौपड़। न जाने कितने सालों से यह चौराहा शहर की रूह रहा है। यहां से शहर का बहुत कुछ तय होता रहा है। सबको पता है कि अजमेर क्लब रईसों का आधिकारिक ठिकाना है। अंदरकोट स्थित हथाई भी सबकी जानकारी में है। इसी प्रकार पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती के निवास स्थान की जाफरी वर्षों तक आबाद रही। वहां भी शहरभर के बतोलेबाज जमा हुआ करते थे। इसी प्रकार कांग्रेस नेता कैलाश झालीवाल का मदारगेट स्थित ऑफिस भी कई सालों से खबरनवीसों, कांग्रेस कार्यकर्ताओं व कांग्रेस नेत्रियों का ठिकाना रहा है। ऐसा ही अड्डा रेलवे स्टेशन के सामने स्थित शहर के जाने-माने फोटोग्राफर इन्द्र नटराज की दुकान पर भी सजता था, जहां विज्ञप्तिबाज विभिन्न अखबारों के लिए विज्ञप्तियां दे जाते थे। बौद्धिक विलास के लिए पत्रकारों का जमावड़ा जाने-माने पत्रकार श्री अनिल लोढ़ा के कचहरी रोड पर नवभारत टाइम्स के ऑफिस में भी होता था। जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के सामने स्थित मुड्डा क्लब भी शहर के बातूनियों का ठिकाना रहा है। इसी प्रकार पलटन बाजार के सामने जम्मू की होटल कॉफी के शौकीनों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा। मूंदड़ी मोहल्ला का चौराहा भी बतरसियों की चौपाल रही है।
ठियों की बात हो और पान की दुकानें ख्याल में न आएं, ऐसा कैसे हो सकता है। ये शहर की पंचायती करने वालों से आबाद रही हैं। एक समय क्लॉक टावर थाने के नुक्कड़ पर इंडिया पान हाउस हुआ करता था, जो बाद में अतिक्रमण हटाओ अभियान में नेस्तनाबूत हो गया और बाद में सामने ही स्थापित हुआ। स्टेशन रोड पर मजदूर पान हाउस, जनता पान हाउस, गुप्ता पान हाउस व चाचा पान हाउस, हाथीभाटा के नुक्कड़ पर हंसमुख पान वाला, केन्द्रीय रोडवेज बस स्टैंड के ठीक सामने निहाल पाल हाउस, रामगंज स्थित मामा की होटल आदि भी छोटे-मोटे ठिये रहे हैं। वैशाली नगर में सिटी बस स्टैंड पर गुप्ता पान हाउस पहले एक केबिन में था, जो बाद में एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर में तब्दील हो गया। वहां पान की दुकान अब भी है। शाम ढ़लते ही सुरा प्रेमियों का जमघट ब्यावर रोड पर दैनिक न्याय के पास फ्रॉमजी बार में लगता था। ऐसे कई और ठिये होंगे, जो मुझ अल्पज्ञानी की जानकारी में नहीं हैं। आपको पता हो तो इस सूची में इजाफा कर दीजिए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
दैनिक भास्कर, अजमेर संस्करण के संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल जिंदगी के इस अनछुए से ठिये को अपने आलेख में बखूबी छू चुके हैं। उन्होंने ठिये-ठिकाने पर ऐसा शब्द चित्र खींचा है, जिसे पढऩे पर आपके जेहन में हूबहू नक्शा उभर आएगा। उसकी सुर्खी है- ठिये-ठिकाने, जहां जि़न्दगी मुस्कुराती है।
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तेजवानी गिरधर |
अजमेर रेलवे स्टेशन के बाहर मुख्य सड़क पर ऐसी ही एक चौपाल बरसों तक लगा करती थी, जिसमें बैठने के लिए लोग अपने दुपहिया वाहनों का इस्तेमाल किया करते थे। कई बार यह रात्रि चौपाल भोर होने तक खिंच आती थी। अजमेर की इस चौपाल में बहुसंख्या भले ही शहर के पत्रकारों की रहा करती हो, मगर शिरकत बड़े-बड़े मंत्रियों व अफसरों से लेकर पंक्चर बनाने वालों तक की रहती थी।
असल में डॉ. अग्रवाल ही इस ठिये के सूत्रधार थे। तब वे नवज्योति में हुआ करते थे। उनके संपादन कार्य से निवृत्त के बाद यहां पहुंचने से पहले ही एक-एक करके ठियेबाज जुटना शुरू हो जाते थे। सबके नाम लेना तो नामुमकिन है। चंद शख्सियतों का जिक्र किए देते हैं:- स्वर्गीय वीर कुमार, रणजीत मलिक, इंदुशेखर पंचोली, संतोष गुप्ता, नरेन्द्र भारद्वाज, ललित शर्मा, अतुल शर्मा, तिलोक आदि आदि, जो कि रोजाना इस मजार पर दीया जलाने चले आते थे। डॉ. अग्रवाल के आने के बाद तो महफिल पूरी रंगत में आ जाती थी। इस मयखाने की मय का स्वाद चखने कई रिंद खिंचे चले आते थे। यहां दिनभर की सियासी हलचल के साथ अफसरशाही के किस्सों पर खुल कर चटकारे लिये जाते थे। समझा जा सकता है कि दूसरे दिन अखबारों में छपने वाली खबरों का तो जिक्र होता ही था, उन छुटपुट वारदातों पर भी कानाफूसी होती थी, जो ऑफ द रिकार्ड होने के कारण खबर की हिस्सा नहीं बन पाती थीं। अगर ये कहा जाए कि इस ठिये पर शहर का दिल धड़कता था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। चूंकि यहां हर तबके के बुद्धिजीवी जमा होते थे, इस कारण खबरनवीसों को शहर की क्रिया-प्रतिक्रिया का भरपूर फीडबेक मिला करता था। जो बाद में अखबारों के जरिए शहर की दिशा-दशा तय करता था। जिन पंक्चर बनाने वाले का जिक्र आया है, उनका नाम है श्री सीताराम चौरसिया। कांग्रेस सेवादल के जाने-माने कार्यकर्ता। सेवादल के ही योगेन्द्र सेन इस मजार के पक्के खादिम थे। बाद में यह ठीया वरिष्ठ पत्रकार इंदुशेखर की पहल पर पैरामाउंट होटल के एक कमरे में शिफ्ट हो गया। एक घर बनाऊंगा की तर्ज पर एक सा छोटा ठिया सामने ही रेलवे स्टेशन के गेट के पास कोने में चाय की दुकान पर भी खुला, जो दैनिक न्याय के पत्रकारों ने जमाया था। लगे हाथ ये बताना वाजिब रहेगा कि नाले शाह की मजार से भी पहले क्लॉक टॉवर के सामने मौजूदा इंडिया पान हाउस के पास चबूतरे पर दैनिक नवज्योति के क्राइम रिपोर्टर स्वर्गीय जवाहर सिंह चौधरी देर रात के धूनी रमाया करते थे।
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डॉ. रमेश अग्रवाल |
कहते हैं दिल से दिल को राहत होती है। इंसान को अगर कुछ दिन, किसी दूसरे इंसान की शक्ल दिखाई न दे तो वह यूं कुम्हला जाता है, जैसे धूप के बगैर कोई पौधा। इंसान की इसी फितरत ने तरह-तरह के मजमों को जन्म दिया। गांव की चौपालें, मारवाड़ की हथाइयां, भोपाल के पटिये, बीकानेर के पाटे, कस्बों में ठालों के अड्डे, छोटे शहरों में पान की दुकानें और बड़े शहरों में काफी हाउस, न जाने कब से एक-दूसरे के दिल तक पहुंचने का माध्यम बनते रहें हैं। टीवी, सिनेमा, इंटरनेट या फेसबुक ने इंसान को भले चलता- फिरता चित्र भर बना डाला हो, मगर ये सब मिलकर आज भी उन्मुक्त अट्टहास से आबाद उन असंगठित, अनाम और अनौपचारिक ठिकानों का विकल्प नहीं बन पाए हैं, जिन्हें कहीं ठिया कहा जाता है तो कहीं बैठक। ऐसे ठिकानों के रसिक फुरसतियों के घर, उनकी अनुपस्थिति में जब कोई उनका चाहने वाला उन्हें पूछने पहुंचता है तो घर का दरवाजा खोलती अम्मा या भाभी की आंखों में उलाहना देखकर ही समझ जाता है कि उनका अजीज इस समय कहां बैठा होगा।
गप्प, चुहल और मटरगश्ती के ऐसे ठिकानों के लिए किसी खास तरह की जगह की दरकार नहीं होती। ऐसी चौपाल किसी बारादरीनुमा हथाई में भी लग सकती है, तो गांव के किसी चौगान में भी। किसी पेड़ की छांव ऐसे फुरसतियों का स्थायी ठिकाना बन सकती है, तो किसी मंदिर की पेडिय़ां भी। गुजरे जमाने में इसी मकसद से मकान के बाहर मोखे, मोड़े या चबूतरे बनाए जाते थे। कई बार किसी का उजाड़ कमरा भी ऐसे ठिकानों की शक्ल ले लेता है। शहरों में मुड्डे अथवा मुड्डियों वाली चाय की थडिय़ां इस काम के लिए बेहतरीन जगह मानी जाती है।
इन चौपालों को महज गप्प ठोकने का अड्डा कहना इंसान की जिंदादिली का मजाक उड़ाने से कम नहीं होगा। जिंदगी से भरपूर इन ठिकानों का हिस्सा वही इंसान बन सकता है, जिसका दिल उसके दिमाग के सामने कतई कमजोर न हो।
बात अब शहर के कुछ और ठियों की। उनमें सबसे ऐतिहासिक है नया बाजार चौपड़। न जाने कितने सालों से यह चौराहा शहर की रूह रहा है। यहां से शहर का बहुत कुछ तय होता रहा है। सबको पता है कि अजमेर क्लब रईसों का आधिकारिक ठिकाना है। अंदरकोट स्थित हथाई भी सबकी जानकारी में है। इसी प्रकार पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती के निवास स्थान की जाफरी वर्षों तक आबाद रही। वहां भी शहरभर के बतोलेबाज जमा हुआ करते थे। इसी प्रकार कांग्रेस नेता कैलाश झालीवाल का मदारगेट स्थित ऑफिस भी कई सालों से खबरनवीसों, कांग्रेस कार्यकर्ताओं व कांग्रेस नेत्रियों का ठिकाना रहा है। ऐसा ही अड्डा रेलवे स्टेशन के सामने स्थित शहर के जाने-माने फोटोग्राफर इन्द्र नटराज की दुकान पर भी सजता था, जहां विज्ञप्तिबाज विभिन्न अखबारों के लिए विज्ञप्तियां दे जाते थे। बौद्धिक विलास के लिए पत्रकारों का जमावड़ा जाने-माने पत्रकार श्री अनिल लोढ़ा के कचहरी रोड पर नवभारत टाइम्स के ऑफिस में भी होता था। जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के सामने स्थित मुड्डा क्लब भी शहर के बातूनियों का ठिकाना रहा है। इसी प्रकार पलटन बाजार के सामने जम्मू की होटल कॉफी के शौकीनों के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा। मूंदड़ी मोहल्ला का चौराहा भी बतरसियों की चौपाल रही है।
ठियों की बात हो और पान की दुकानें ख्याल में न आएं, ऐसा कैसे हो सकता है। ये शहर की पंचायती करने वालों से आबाद रही हैं। एक समय क्लॉक टावर थाने के नुक्कड़ पर इंडिया पान हाउस हुआ करता था, जो बाद में अतिक्रमण हटाओ अभियान में नेस्तनाबूत हो गया और बाद में सामने ही स्थापित हुआ। स्टेशन रोड पर मजदूर पान हाउस, जनता पान हाउस, गुप्ता पान हाउस व चाचा पान हाउस, हाथीभाटा के नुक्कड़ पर हंसमुख पान वाला, केन्द्रीय रोडवेज बस स्टैंड के ठीक सामने निहाल पाल हाउस, रामगंज स्थित मामा की होटल आदि भी छोटे-मोटे ठिये रहे हैं। वैशाली नगर में सिटी बस स्टैंड पर गुप्ता पान हाउस पहले एक केबिन में था, जो बाद में एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर में तब्दील हो गया। वहां पान की दुकान अब भी है। शाम ढ़लते ही सुरा प्रेमियों का जमघट ब्यावर रोड पर दैनिक न्याय के पास फ्रॉमजी बार में लगता था। ऐसे कई और ठिये होंगे, जो मुझ अल्पज्ञानी की जानकारी में नहीं हैं। आपको पता हो तो इस सूची में इजाफा कर दीजिए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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