राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के चेयरमैन डॉ. सुभाष गर्ग ने बहुत ही दुस्साहसी कदम उठाया है। उन्होंने उन बोर्ड कर्मियों की नाक में नकेल कसने की ठानी है, जिन्हें आज तक न तो कोई बोर्ड चेयरमैन ठीक कर पाया और न ही कोई प्रशासक। उन्होंने लेटलतीफ कर्मचारियों की ढ़ेबरी टाइट करने के लिए हाजिरी रजिस्टर सुबह दस बज कर दस मिनट पर सील करने के आदेश जारी किए हैं। एक तरह से उन्होंने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है।
असल में बोर्ड में लेटलतीफी एक आम समस्या रही है। कई छोटे-मोटे अफसरों से लेकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी तक किसी के कब्जे में नहीं रहते। हालत ये है कि लेटलतीफी के अतिरिक्त कई कर्मचारी काम के समय में कैंटीन अथवा बोर्ड भवन के बाहर चाय की थडिय़ों पर नजर आया करते हैं। उनको कोई भी चेयरमैन दुरुस्त नहीं कर पाया। कई बार यह बात अखबारों में छप कर रिकार्ड पर आ चुकी है कि बोर्ड में ओवरटाइम का खेल होता ही इस कारण था कि कर्मचारी काम के वक्त तो काम करते ही नहीं थे। इसको लेकर कई बार विवाद हो चुके हैं, जो कि सबको पता है। बोर्ड में चल रहा ब्याज का धंधा भी कई बार अखबारों की सुर्खियों का हिस्सा बन चुका है। एक कर्मचारी तो इसी चक्कर में फंस भी गया था। हालांकि यह सही है कि स्टाफ की भारी कमी के बावजूद बोर्ड कर्मचारी हर साल लाखों की तादाद वाले परीक्षार्थियों की परीक्षा को अंजाम देने का नायाब उदाहरण पेश करते रहे हैं, लेकिन साथ ही कामचोरी की समस्या भी बड़ी भारी रही है। यह एक विरोधाभास ही है कि एक ओर जहां इन्हीं बोर्ड कर्मचारियों की कार्य कुशलता की वजह से यह बोर्ड पूरे देश के सभी बोर्डों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, वहीं दूसरी ओर लेटलतीफी आम समस्या है, जिसको काफी दिन की वॉच के बाद डॉ. गर्ग ने निपटाने की सोची है।
सच्चाई तो ये है कि कर्मचारियों की यूनियन इतनी तगड़ी रही है कि अनेक बोर्ड चेयरमैनों को उनका मुकाबला करने में पसीने छूट जाते थे। पूर्व चेयरमैन पी. सी. व्यास की तो हालत ये थी कि उनके मुंह पर ही कर्मचारी नेता भद्दी-भद्दी गालियां बक कर जलील करते थे। और कोई होता तो ऐसी जलालत की बजाय पद छोड़ कर जाना पसंद करता। मगर कांग्रेसी कल्चर के व्यास इतने ढ़ीठ और मोटी चमड़ी वाले थे कि उनको कोई फर्क ही नहीं पड़ता था। उनके अतिरिक्त अन्य चेयरमैनों का भी कर्मचारियों से टकराव का सामना करना पड़ता था। कुल मिला कर यहां वही चेयरमैन शांति से कार्यकाल पूरा कर पाया, जो कर्मचारी नेताओं को विश्वास में लेकर चला। ऐसा प्रतीत होता है कि डॉ. गर्ग ने भी कर्मचारी नेताओं को नमस्ते करके राजी कर रखा है। तभी तो पिछले दिनों जब बोर्ड के विखंडन की दिशा में एक कदम उठाया गया तो कोई कुछ नहीं बोला। विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी भौंकते ही रह गए और बोर्ड का जयपुर में बोर्ड के एक भवन का शिलान्यास मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कर दिया। यह कर्मचारियों का दबाव ही था कि उन्हें बोर्ड विखंडन की बात से कहीं कर्मचारी न भडक़ जाएं, पहले ही साफ कर दिया था कि यहां से कोई भी शाखा और कोई भी कर्मचारी स्थानांतरित किया जा रहा है। इस कदम से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले कर्मचारी वर्ग ने जब चुप्पी साधी तो यही कयास लगाया गया कि बोर्ड चेयरमैन ने संघ के नेताओं को सैट कर लिया है। सवाल ये है कि क्या लेटलतीफी पर सख्ती के मामले में भी उन्होंने कर्मचारी नेताओं को सैट किया है। थर्ड आई को तो यही लगता है, वरना इतना दुस्साहसी कदम उठाना कत्तई असंभव था। बहरहाल, देखना ये है कि डॉ. गर्ग को अपने मकसद में कामयाबी मिलती है या नहीं।
अमोलक छाबड़ा की कमी पूरी कर रहे हैं सत्यावना
नगर निगम के मौजूदा बोर्ड में सबको पूर्व पार्षद अमोलक छाबड़ा की कमी खल रही है, मगर संतोष की बात ये है कि पार्षद नरेश सत्यावना उनकी कमी पूरी करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। जैसे जहां छाबड़ा होते थे, वहां हंगामा सुनिश्चित माना जाता था, वैसे ही अब ये आशंका सत्यावना को देखने पर भी होती है। जैसे निगम के अधिकारी छाबड़ा से कांपते थे, कमोबेश सत्यावना से भी कांपते हैं। ये तो गनीमत है कि वे कांग्रेस के हैं और मेयर भी कांग्रेस के, वरना उनसे बेहतर विपक्षी नेता की भूमिका कोई अदा नहीं कर सकता। सत्यावना जब तक निगम में रहते हैं, अफसरों व कर्मचारियों में धुकधुकी रहती है कि कब किस मुद्दे पर वे बिफर न जाएं। उनके साथी पार्षदों की टोली भी धाडफ़ाड़ है, जिसे काबू में करना किसी के बस की बात नहीं। चंद लफ्जों में कहा जाए तो यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि निगम में जितनी सक्रियता मेयर कमल बाकोलिया की मौजूदगी से नहीं होती, उससे कहीं अधिक सत्यावना के निगम परिसर में रहने पर होती है।
निगम ही क्यों, शहर में जहां कहीं भी कोई समारोह या सभा हो, और अगर वहां सत्यावना एंड कंपनी भी है तो समझिये कोई न कोई फफूंद हो कर रहेगी। पिछले दिनों अजमेर के प्रभारी मंत्री महिपाल मदेरणा की ओर से की जा रही जनसुनवाई में भी ऐसा ही हुआ। वहां ढ़ेर सारे नेता जुटे और अपनी-अपनी समस्या ले कर आए। किसी को कुछ मिला तो कोई लॉलीपॉप ले कर चुपचाप चलता बना, मगर सत्यावना ने दिखा दिया कि वे अजमेरीलाल नहीं हैं। भले ही अपनी ही पार्टी की सरकार के मंत्री हों, मगर यदि उनकी ओर से लाई गई जन समस्या का समाधान नहीं होता वे चुप बैठने वाले नहीं हैं। उन्होंने जैसी खरी-खोटी सुनाई, वैसी सुनाने का माद्दा फिलहाल तो किसी भी नेता में नहीं है। पहले तो उन्होंने प्यार से समझाने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही उन्हें लगा कि उन्हें हल्के में लिया जा रहा है तो वे बिफर गए। बिफरे भी ऐसे कि अपनी ही सरकार के मंत्री को चेता दिया कि टालमटाले का रवैया बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। कल यदि वे हजारों की भीड़ ले कर आएंगे तो संभालना भारी पड़ जाएगा। जोधपुर के खुर्रांट जाट नेता मदेरणा तो हक्के-बक्के ही रह गए। उन्हें भी लगा होगा कि अजमेर के सारे नेता लल्लो-चप्पो करने वाले अजमेरीलाल नहीं हैं। सत्यावना ने जो रोल अदा किया, उससे एकबारगी तो लगा कि उन्होंने अपनी पार्टी की सारी मर्यादाओं को ताक पर रख दिया है, मगर उसका दूसरा पक्ष ये नजर आया कि अजमेर को ऐसे ही नेताओं की जरूरत है, जो जनता के अधिकार प्रशासन से छीनने का माद्दा रखते हों। ऐसे अगर दो-चार सत्यावना और पैदा हो जाएं तो शहर का उद्धार हो जाए, बस भगवान से एक ही प्रार्थना है कि उनकी एनर्जी पॉजिटीव डायरेक्शन में काम आए।
nice post..
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