एक ओर जहां अजमेर शहर के मुख्य मार्ग सीमित और पहले से ही कम चौड़े हैं, ऐसे में लगातार बढ़ती आबादी और प्रतिदिन सड़कों पर उतरते वाहनों ने यातायात व्यवस्था को पूरी तरह से चौपट कर दिया है।
हालांकि यूं तो पूर्व जिला कलेक्टर श्रीमती अदिति मेहता के कार्यकाल में ही प्रशासन ने समझ लिया था कि यातयात व्यवस्था को सुधारना है तो मुख्य मार्गों से अतिक्रमण हटाने होंगे और इस दिशा में बड़े पैमाने पर काम भी हुआ। सख्ती के साथ अतिक्रमण हटाए जाने के कारण श्रीमती मेहता को स्टील लेडी की उपमा तक दी गई। उनके कदमों से एकबारगी यातायात काफी सुगम हो गया था, लेकिन बाद में प्रशासन चौड़े मार्गों को कायम नहीं रख पाया। दुकानदारों ने फिर से अतिक्रमण कर लिए। परिणामस्वरूप स्थिति जस की तस हो गई। इसी बीच सड़कों पर लगातार आ रहे नए वाहनों ने हालात और भी बेकाबू कर दिए हैं।
यह एक सुखद बात है कि अजमेर शहर के ही निवासी मौजूदा संभागीय आयुक्त श्री अतुल शर्मा ने बिगड़ती यातायात व्यवस्था का विशेष नजर रखना शुरू किया है। उन्होंने पार्किंग और ट्रेफिक में सुधार के लिए कार्ययोजना भी बनाई है। स्टेशन रोड पर ओवर ब्रिज उसी कार्ययोजना का अंग है। योजना के तहत अनेक सुधारात्मक कदम उठाए जाने हैं। उसी कड़ी में सभी प्रमुख मार्गों पर दोनों और सफेद लाइनें खींची गई हैं ताकि यातायात व्यवस्था में सुधार हो। इसके अपेक्षित परिणाम भी सामने आए हैं। लाइनों के बाहर खड़े होने वाहनों के चालान काटने से भी नागरिकों को सिविक सेंस आने लगा है। इसके बावजूद अभी बहुत कुछ करना बाकी है।
हालांकि यह बात सही है कि पिछले बीस साल में आबादी बढऩे के साथ ही अजमेर शहर का काफी विस्तार भी हुआ है और शहर में रहने वालों का रुझान भी बाहरी कॉलोनियों की ओर बढ़ा है। इसके बावजूद मुख्य शहर में आवाजाही लगातार बढ़ती ही जा रही है। रोजाना बढ़ते जा रहे वाहनों ने शहर के इतनी रेलमपेल कर दी है, कि मुख्य मार्गों से गुजरना दूभर हो गया है। जयपुर रोड, कचहरी रोड, पृथ्वीराज मार्ग, नला बाजार, नया बाजार, दरगाह बाजार, केसरगंज और स्टेशन रोड की हालत तो बेहद खराब हो चुकी है। कहीं पर भी वाहनों की पार्किंग के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। इसका परिणाम ये है कि रोड और संकड़े हो गए हैं और छोटी-मोटी दुर्घटनाओं में भी भारी इजाफा हुआ है।
ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि यातायात व्यवस्थित करने केलिए समग्र मास्टर प्लान बनाया जाए। उसके लिए छोटे-मोटे सुधारात्मक कदमों से आगे बढ़ कर बड़े कदम उठाने की दरकार है। मौजूदा हालात में स्टेशन रोड से जीसीए तक ओवर ब्रिज और मार्टिंडल ब्रिज से जयपुर रोड तक एलिवेटेड रोड नहीं बनाया गया तो आने वाले दिनों में स्टेशन रोड को एकतरफा मार्ग करने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा। रेलवे स्टेशन के बाहर तो हालत बेहद खराब है। हालांकि जल्द ही ओवर ब्रिज शुरू होने से कुछ राहत मिलेगी, लेकिन रेलवे स्टेशन का प्लेट फार्म तोपदड़ा की ओर भी बना दिया जाए तो काफी लाभ हो सकता है।
इसी प्रकार कचहरी रोड पर खादी बोर्ड के पास रेलवे के बंगलों के स्थान पर, गांधी भवन के सामने, नया बाजार में पशु चिकित्सालय भवन और मोइनिया इस्लामिया स्कूल के पास मल्टीलेवल पार्किंग प्लेस बनाने की जरूरत है। इसी प्रकार आनासागर चौपाटी से विश्राम स्थली या सिने वल्र्ड तक फ्लाई ओवर का निर्माण किया जाना चाहिए, जो कि न केवल झील की सुंदरता में चार चांद लगा देगा, अपितु यातायात भी सुगम हो जाएगा।
कुल मिला कर जब तक बड़े कदम नहीं उठाए जाते सुधार के लिए उठाए जा रहे कदम ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही रहेंगे।
सोमवार, 25 अप्रैल 2011
सरकार के डर से न्यास ने की गुमटियां आवंटित
लोहागल रोड पर जवाहर रंगमंच के पास यातायात में बाधा बन रही गुमटियों को तोडऩे पर जो विरोध हुआ, उसे देखते हुए नगर सुधार न्यास ने आखिरकार बेदखल गुमटी धारियों को नई गुमटियां आवंटित कर दीं। इससे साफ जाहिर होता है कि प्रशासन को यह अक्ल तभी आई, जब उसके कदम का विरोध किया गया।
असल में एक तो विरोध करने वालों में कांग्रेसी पार्षद मुखर थे, दूसरा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के शिलान्यास समारोह में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और स्थानीय सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के आने के कारण प्रशासन जानता था कि वह मुश्किल में आएगा, इस कारण ठीक एक दिन पहले ही झटपट में नई गुमटियां आवंटित कर दीं। लेकिन इससे यह तो साबित हो ही गया कि प्रशासन को अक्ल बाद में आई कि जिन लोगों को बेदखल किया गया है, उन्हें राजी किया जाना चाहिए। यह कदम पहले भी उठाया जा सकता था, मगर उस वक्त प्रशासन का सारा ध्यान केवल गुमटियां हटाने पर था। कदाचित उसे यह भी ख्याल था कि अगर तोडऩे से पहले गुमटियां आवंटित कर भी जातीं तो भी विरोध तो होना ही था, इस कारण पहले गुमटियां तोड़ीं और बाद में विरोध होने पर नई आवंटित कर दी गईं।
इस मामले में भाजपा फिसड्डी ही साबित हुई। एक तो दोनों भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल सहित शहर जिला भाजपा गुमटियां तोड़े जाते वक्त नदारद थे। उन्होंने दूसरे दिन बयान जारी कर विरोध दर्ज करवाया। इससे भी अहम बात ये है कि यदि भाजप विधायकों को ऐतराज था तो उन्हें संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में ट्रेफिक मैनेजमेंट कमेटी में जब यह निर्णय किया जा रहा था, तब विरोध दर्ज करवाना था। उस वक्त तो वे कुछ बोले ही नहीं। विधायक श्रीमती भदेल के इस बयान पर बेहद आश्चर्य होता है कि उन्हें यह ही पता नहीं कि इस प्रकार का निर्णय बैठक में लिया गया था। सवाल ये उठता है कि बैठक में वे क्या सो रही थीं। देवनानी का कहना है कि वे बैठक के बीच में ही चले गए थे, इस कारण उन्हें पता नहीं लगा। इससे साबित होता है कि उन्होंने बाद में यह जानने की जरूरत भी नहीं समझी कि बैठक में उनकी अनुपस्थिति में क्या निर्णय हुए हैं। यदि दोनों विधायक उस वक्त यह दबाव बनाते कि जिन लोगों की गुमटियां तोड़ी जानी हैं, उनको नई गुमटियां आवंटित की जाएं, तो कदाचित यह स्थिति नहीं आती। बहरहाल, ताजा प्रकरण से यह साबित हो गया कि हमारे जनप्रतिनिधि तभी जागते हैं, जब कुछ हो जाता है और प्रशासन को भी तभी अक्ल आती है, जब विरोध के सुर तेज हो जाते हैं। रहा सवाल गुमटी धारियों का तो उनके बारे में कुछ कहना ही बेकार है, क्योंकि उनकी तो गुमटी के क्षेत्रफल से दुगने क्षेत्रफल पर अतिक्रमण करने की आदत बनी हुई है।
असल में एक तो विरोध करने वालों में कांग्रेसी पार्षद मुखर थे, दूसरा सेंट्रल यूनिवर्सिटी के शिलान्यास समारोह में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और स्थानीय सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के आने के कारण प्रशासन जानता था कि वह मुश्किल में आएगा, इस कारण ठीक एक दिन पहले ही झटपट में नई गुमटियां आवंटित कर दीं। लेकिन इससे यह तो साबित हो ही गया कि प्रशासन को अक्ल बाद में आई कि जिन लोगों को बेदखल किया गया है, उन्हें राजी किया जाना चाहिए। यह कदम पहले भी उठाया जा सकता था, मगर उस वक्त प्रशासन का सारा ध्यान केवल गुमटियां हटाने पर था। कदाचित उसे यह भी ख्याल था कि अगर तोडऩे से पहले गुमटियां आवंटित कर भी जातीं तो भी विरोध तो होना ही था, इस कारण पहले गुमटियां तोड़ीं और बाद में विरोध होने पर नई आवंटित कर दी गईं।
इस मामले में भाजपा फिसड्डी ही साबित हुई। एक तो दोनों भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल सहित शहर जिला भाजपा गुमटियां तोड़े जाते वक्त नदारद थे। उन्होंने दूसरे दिन बयान जारी कर विरोध दर्ज करवाया। इससे भी अहम बात ये है कि यदि भाजप विधायकों को ऐतराज था तो उन्हें संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में ट्रेफिक मैनेजमेंट कमेटी में जब यह निर्णय किया जा रहा था, तब विरोध दर्ज करवाना था। उस वक्त तो वे कुछ बोले ही नहीं। विधायक श्रीमती भदेल के इस बयान पर बेहद आश्चर्य होता है कि उन्हें यह ही पता नहीं कि इस प्रकार का निर्णय बैठक में लिया गया था। सवाल ये उठता है कि बैठक में वे क्या सो रही थीं। देवनानी का कहना है कि वे बैठक के बीच में ही चले गए थे, इस कारण उन्हें पता नहीं लगा। इससे साबित होता है कि उन्होंने बाद में यह जानने की जरूरत भी नहीं समझी कि बैठक में उनकी अनुपस्थिति में क्या निर्णय हुए हैं। यदि दोनों विधायक उस वक्त यह दबाव बनाते कि जिन लोगों की गुमटियां तोड़ी जानी हैं, उनको नई गुमटियां आवंटित की जाएं, तो कदाचित यह स्थिति नहीं आती। बहरहाल, ताजा प्रकरण से यह साबित हो गया कि हमारे जनप्रतिनिधि तभी जागते हैं, जब कुछ हो जाता है और प्रशासन को भी तभी अक्ल आती है, जब विरोध के सुर तेज हो जाते हैं। रहा सवाल गुमटी धारियों का तो उनके बारे में कुछ कहना ही बेकार है, क्योंकि उनकी तो गुमटी के क्षेत्रफल से दुगने क्षेत्रफल पर अतिक्रमण करने की आदत बनी हुई है।
रविवार, 24 अप्रैल 2011
विकास के आयाम छूने को चाहिए अजमेर को पंख

तीर्थराज पुष्कर व दरगाह ख्वाजा गरीब नवाज और किशनगढ़ की मार्बल मंडी के कारण यूं तो अजमेर जिला अन्तरराष्टï्रीय मानचित्र पर उपस्थित है, मगर आज भी प्रदेश के अन्य बड़े जिलों की तुलना में इसका उतना विकास नहीं हो पाया है, जितना की वक्त की रफ्तार के साथ होना चाहिए था। अकेले पानी की कमी को छोड़ कर किसी भी नजरिये से अजमेर का गौरव कम नहीं रहा है। चाहे स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने का मुद्दा हो या यहां की सांस्कृतिक विरासत की पृष्ठभूमि, हर क्षेत्र में अजमेर का अपना विशिष्ट स्थान रहा है। इसे फिर पुरानी ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए जरूरत है तो केवल इच्छाशक्ति की। दुर्भाग्य से आजादी के बाद राजस्थान राज्य में विलय के बाद कमजोर राजनीतिक नेतृत्व के कारण यह लगातार पिछड़ता गया। आज भी हालत ये है कि जिले के एक मात्र निर्दलीय विधायक ब्रह्मदेव कुमावत संसदीय सचिव बन पाए हैं। राज्य मंत्रीमंडल में अजमेर को कोई स्थान नहीं मिल पाया है। हां, इतना जरूर है कि पहली बार केन्द्रीय मंत्रीमंडल में यहां के सांसद सचिन पायलट को अजमेर का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला है। और यही वजह है कि वे आज सभी की आशाओं के केन्द्र बने हुए हैं।
मोटे तौर पर देखा जाए तो यहां पर्यटन और खनिज आधारित औद्यागिक विकास की विपुल संभानाएं हैं, जरूरत है तो सिर्फ उस पर ध्यान देने की। सुव्यवस्थित मास्टर प्लान बना कर उस पर काम किया जाए तो न केवल उससे प्रदेश सरकार का राजस्व बढ़ेगा, अपितु रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।
आइये, समझें कि कैसे छू सकता है अजमेर जिला विकास के आयाम:-
एक लम्बे समय से यहां हवाई अड्ïडे के निर्माण की मांग उठती रही है। किशनगढ़ में जो हवाई पट्ïटी निर्मित है, उसके अलावा भी कई किलोमीटर लम्बी पट्ïटी का निर्माण कार्य राज्य सरकार की ग्रामीण विकास योजनाओं के अंतर्गत किया जा चुका है। सिविल एवीएशन विभाग के मानदण्डानुसार कम लागत में बाकी निर्माण किया जाकर निर्धारित मानदण्ड पूरे किए जा सकेंगे तथा हवाई सेवाओं के अनुकूल यह पट्ïटी काम आ सकती है। हालांकि लम्बी जद्दोजहद के बाद केन्द्र व राज्य सरकार के बीच एमओयू पर हस्ताक्षर किए जा चुके हैं, मगर आज भी उस दिशा में प्रगति की रफ्तार कम ही है। केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट विशेष प्रयास करें तो वर्षों पुराना सपना साकार हो उठेगा। इससे न केवल यहां पर्यटन का विकास होगा और दरगाह व पुष्कर आने वाले पर्यटकों व श्रद्धालुओं को सुविधा होगी, अपितु किशनगढ़ की मार्बल मंडी में भी चार चादं लग जाएंगे।
जहां तक पर्यटन के विकास की बात है, यहां धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा देने की भरपूर गुुंजाइश है। धार्मिक पर्यटकों का अजमेर में ठहराव दो-तीन तक हो सके, इसके लिए यहां के ऐतिहासिक स्थलों को आकर्षक बनाए जाने की कार्ययोजना तैयार की जानी चाहिए। इसके लिए अजमेर के इतिहास व स्वतंत्रता संग्राम में अतुलनीय योगदान एवं भूमिका पर लाइट एण्ड साउंड शो तैयार किए जा सकते हैं।, आनासागर की बारादरी, पृथ्वीराज स्मारक, और तीर्थराज पुष्कर में उनका प्रदर्शन हो सकता है। इसी प्रकार ढ़ाई दिन के झोंपड़े से तारागढ़ तथा ब्रह्मïा मंदिर से सावित्री मंदिर पहाड़ी जैसे पर्यटन स्थल पर 'रोप-वेÓ परियोजना भी बनाई जा सकती है। साथ ही पर्यटक बस, पर्यटक टैक्सियां आदि उपलब्ध कराने पर कार्य किया जाना चाहिए। पर्यटक यहां आ कर एक-दो दिन का ठहराव करें, इसके लिए जरूरी है कि सरकार होटल, लॉज, रेस्टोरेन्ट इत्यादि लगाने वाले उद्यमियों को विशेष सुविधाएं व कर राहत प्रदान कर उन्हें आकर्षित व प्रोत्साहित करने की दिशा में कार्ययोजना तैयार करे।
यह सर्वविदित ही है कि अजमेर के विकास में पानी की कमी बड़ी रुकावट शुरू से रही है। हालांकि बीसलपुर योजना से पेयजल की उपलब्धता हुई है, मगर औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए बीसलपुर पर्याप्त नहीं है। हालत तो यह है कि जयपुर को भी पीने का पानी दिए जाने के बाद यहां पेयजल का ही संकट बना हुआ है। एक बार पूर्व उप मंत्री ललित भाटी ने यह तथ्य उजागर किया था कि मध्यप्रदेश से राजस्थान के हिस्से का पानी हमें अभी प्राप्त नहीं हो रहा है और वो 'सरप्लस वाटरÓ बगैर उपयोग के व्यर्थ बह रहा है। उन्होंने सुझाया था कि उस 'सरप्लस वाटरÓ को लेकर अजमेर व अन्य शहरों के लिए पेयजल, कृषि एवं औद्योगिक उपयोग के लिए भैंसरोडगढ़ या अन्य किसी उपयुक्त स्थल से पानी अजमेर तक पहुंचाया जाकर उपलब्ध कराया जा सकता है। चंबल के पानी से कृषि, औद्योगिक एवं पेयजल की जरूरतें पूरी हो सकती हैं। भाटी के प्रयासों से इस दिशा में एक कदम के रूप में सर्वे भी हुआ, मगर वह आज फाइलों में दफन है। यदि उसे अमल में लाया जाए तो यहां औद्योगिक विकास के रास्ते खुल सकते हैं।
एक सुझाव यह भी है कि अजमेर में औद्योगिक विकास को नए आयाम देने के लिए स्पेशल इकॉनोमिक जोन (सेज) बनाया जा सकता है। विशेष रूप से इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का स्पेशल इकोनोमिक जोन बनाने पर ध्यान दिया जाए तो उसमें पानी की कमी भी बाधक नहीं होगी। जाहिर तौर पर शैक्षणिक स्तर ऊंचा होने से आई.टी. उद्योगों को प्रतिभावान युवा सहज उपलब्ध होंगे। वर्तमान में इन्फोसिस व विप्रो जैसी प्रतिष्ठित कंपनियों में अजमेर के सैकड़ों युवा कार्यरत हैं। इसके अतिरिक्त आई.टी. क्षेत्र की बड़ी कम्पनियों को अजमेर की ओर आकर्षित करने की कार्य योजना बनाई जा सकती है।
इसी प्रकार खनिज आधारित स्पेशल इकोनोमिक जोन भी बनाया जा सकता है। जिले में खनिज पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। वर्तमान में बीसलपुर बांध परियोजना में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। संसाधन पर्याप्त हों तो अजमेर को अधिकतम 5 टीएमसी पानी लाया जा सकता है, जबकि अभी करीब 1.5 से 1.75 टीएमसी पानी ही लाया जा रहा है। जयपुर को पानी नहीं देकर उसका उपयोग खनिज आधारित औद्योगिक विकास के लिए किया जा सकता है।
यातायात भी एक बड़ी समस्या है। अब अव्यवस्थित व अनियंत्रित यातायात को दुरुस्त करने के लिए यातायात मास्टर प्लान की जरूरत है। इसके लिए आनासागर चौपाटी से विश्राम स्थली या ग्लिट्ज तक फ्लाई ओवर बनाया जा सकता है, इससे वैशालीनगर रोड, फायसागर रोड पर यातायात का दबाव घटेगा। झील का संपूर्ण सौन्दर्य दिखाई देगा। उर्स मेले व पुष्कर मेले के दौरान बसों के आवागमन में सुविधा होगी और बी.के. कौल नगर, हरिभाऊ उपाध्याय नगर, फायसागर क्षेत्र के निवासियों को शास्त्रीनगर, सिविल लाइन्स, कलेक्टे्रट के लिए सिटी बस, पब्लिक ट्रांसपोर्ट सुविधा मिल सकेगी।
ग्रामीण बस सेवा का उपयोग करने वाले यात्रियों के लिए सब-अर्ब स्टेशनों को संचालित किया जाना चाहिए, जिससे अनावश्यक बसों का प्रवेश रुक सके। अन्तर जिला बस सेवाओं के लिए भी सब-अर्ब स्टेशन संचालित किए जाने चाहिए यथा कोटा, झालावाड़, बूंदी, उदयपुर, चित्तौडग़ढ़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा के लिए परबतपुरा बाईपास पर बस स्टैण्ड संचालित किया जा सकता है। इससे भी यातायात दबाव शहरी क्षेत्र में कम होगा।
शनिवार, 23 अप्रैल 2011
नेताओं ! अजमेर की हालत को मत सुधारने देना
यह अजमेर शहर का दुर्भाग्य ही है कि जब भी प्रशासन अजमेर शहर की बिगड़ती यातायात व्यवस्था को सुधारने के उपाय शुरू करता है, अतिक्रमण हटाता है, शहर वासियों के दम पर नेतागिरी करने वाले लोग राजनीति शुरू कर देते हैं। शहर के हित में प्रशासन को साथ देना तो दूर, उलटे उसमें रोड़े अटकाना शुरू कर देते हैं।
हाल ही संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा और जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल के प्रयासों से टे्रफिक मैनेजमेंट कमेटी की अनुशंसा पर यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए जवाहर रंगमंच के बाहर बनी गुमटियों को दस साल ही लीज समाप्त होने के बाद हटाया, शहर के नेता यकायक जाग गए। जहां कुछ कांग्रेसी पार्षदों ने वोटों की राजनीति की खातिर गरीबों का रोजगार छीनने का मुद्दा बनाते हुए जेसीबी मशीन के आगे तांडव नृत्य कर बाधा डालने की कोशिश की, वहीं भाजपा दूसरे दिन जागी और कांग्रेसी पार्षदों पर घडिय़ाली आंसू बहाने का आरोप लगाते हुए प्रशासन को निरंकुश करार दे दिया। एक-दूसरे पर बेसिर पैर के आरोप लगाते हुए कांग्रेसियों ने यह कहा कि प्रशासन भाजपा नेताओं की शह पर ऐसी कार्यवाही कर राज्य की गहलोत सरकार को बदनाम कर रहा है, तो भाजपा कहती है कि गुमटियां तोडऩे की भूमिका निगम ने ही अदा की है और कुछ कांग्रेसी पार्षद केवल घडिय़ाली आंसू बहा रहे हैं। कांग्रेस की हालत तो ये है कि उसके पार्षद न तो मेयर के नियंत्रण में और न ही कांग्रेस संगठन की उन पर लगाम है। वे जब चाहें, अपने स्तर पर अपने हिसाब से शहर के विकास में टांग अड़ाने को आगे आ जाते हैं।
गुमटियां तोडऩे पर इस प्रकार उद्वेलित हो कर नेताओं ने यह साबित करने की कोशिश की कि प्रशासन तो जन-विरोधी है, जबकि वे स्वयं गरीबों के सच्चे हितैषी। जबकि सच्चाई ये है कि ऐसा करके वे अजमेर के विकास में बाधा डाल रहे हैं। चंद गुमटी धारियों के हितों की खातिर पूरे अजमेर शहर के हितों पर कुठाराघात करना चाहते हैं। ये ही नेता यातायात बाधित होने पर प्रशासन को कोसते हंै कि वह कोई उपाय नहीं करता और जैसे ही प्रशासन हरकत में आता है तो उसका विरोध शुरू कर देते हैं। हकीकत तो ये बताई जा रही है कि जो गुमटियां तोड़ी गई हैं, उनमें धंधा करने वाले कोई और हैं, जबकि मूल आंवटी कोई और। जब ये गुमटियां आवंटित हुईं, तब कई लोगों ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर आवंटन करवा लिया, जबकि कई ने आवंटन करवाने के बाद उन्हें किराये पर चला दिया। चर्चा तो ये भी है कि कुछेक गुमटियां विरोध करने वाले नेताओं के हितों की पूर्ति कर रही थीं। सच्चाई क्या है यह तो जांच करने से ही पता लगेगा, मगर प्रशासन के काम में जिस प्रकार बाधा डाली गई, वह वाकई शर्मनाक थी। विरोध करने वालों को इतनी भी शर्म नहीं कि अगर वे इस प्रकार करेंगे तो प्रशासनिक अधिकारी शहर के विकास में रुचि लेना बंद कर देंगे और केवल नौकरी करने पर उतर आएंगे। अफसोस तब और ज्यादा होता है, जब शहर के हितों की लंबी-चौड़ी बातें करने वाले सामाजिक संगठन और स्वयंसेवी संस्थाएं भी ऐसे वक्त में चुप रह जाती हैं और प्रशासन व नेताओं की बीच हो रही खींचतान को तमाशबीन की तरह से देखती रहती हैं। अफसोस कि अजमेर के नेताओं की राजनीति इसी प्रकार जारी रही और जनता सोयी रही तो अजमेर का यूं ही बंटाधार होता रहेगा।
हाल ही संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा और जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल के प्रयासों से टे्रफिक मैनेजमेंट कमेटी की अनुशंसा पर यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए जवाहर रंगमंच के बाहर बनी गुमटियों को दस साल ही लीज समाप्त होने के बाद हटाया, शहर के नेता यकायक जाग गए। जहां कुछ कांग्रेसी पार्षदों ने वोटों की राजनीति की खातिर गरीबों का रोजगार छीनने का मुद्दा बनाते हुए जेसीबी मशीन के आगे तांडव नृत्य कर बाधा डालने की कोशिश की, वहीं भाजपा दूसरे दिन जागी और कांग्रेसी पार्षदों पर घडिय़ाली आंसू बहाने का आरोप लगाते हुए प्रशासन को निरंकुश करार दे दिया। एक-दूसरे पर बेसिर पैर के आरोप लगाते हुए कांग्रेसियों ने यह कहा कि प्रशासन भाजपा नेताओं की शह पर ऐसी कार्यवाही कर राज्य की गहलोत सरकार को बदनाम कर रहा है, तो भाजपा कहती है कि गुमटियां तोडऩे की भूमिका निगम ने ही अदा की है और कुछ कांग्रेसी पार्षद केवल घडिय़ाली आंसू बहा रहे हैं। कांग्रेस की हालत तो ये है कि उसके पार्षद न तो मेयर के नियंत्रण में और न ही कांग्रेस संगठन की उन पर लगाम है। वे जब चाहें, अपने स्तर पर अपने हिसाब से शहर के विकास में टांग अड़ाने को आगे आ जाते हैं।
गुमटियां तोडऩे पर इस प्रकार उद्वेलित हो कर नेताओं ने यह साबित करने की कोशिश की कि प्रशासन तो जन-विरोधी है, जबकि वे स्वयं गरीबों के सच्चे हितैषी। जबकि सच्चाई ये है कि ऐसा करके वे अजमेर के विकास में बाधा डाल रहे हैं। चंद गुमटी धारियों के हितों की खातिर पूरे अजमेर शहर के हितों पर कुठाराघात करना चाहते हैं। ये ही नेता यातायात बाधित होने पर प्रशासन को कोसते हंै कि वह कोई उपाय नहीं करता और जैसे ही प्रशासन हरकत में आता है तो उसका विरोध शुरू कर देते हैं। हकीकत तो ये बताई जा रही है कि जो गुमटियां तोड़ी गई हैं, उनमें धंधा करने वाले कोई और हैं, जबकि मूल आंवटी कोई और। जब ये गुमटियां आवंटित हुईं, तब कई लोगों ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर आवंटन करवा लिया, जबकि कई ने आवंटन करवाने के बाद उन्हें किराये पर चला दिया। चर्चा तो ये भी है कि कुछेक गुमटियां विरोध करने वाले नेताओं के हितों की पूर्ति कर रही थीं। सच्चाई क्या है यह तो जांच करने से ही पता लगेगा, मगर प्रशासन के काम में जिस प्रकार बाधा डाली गई, वह वाकई शर्मनाक थी। विरोध करने वालों को इतनी भी शर्म नहीं कि अगर वे इस प्रकार करेंगे तो प्रशासनिक अधिकारी शहर के विकास में रुचि लेना बंद कर देंगे और केवल नौकरी करने पर उतर आएंगे। अफसोस तब और ज्यादा होता है, जब शहर के हितों की लंबी-चौड़ी बातें करने वाले सामाजिक संगठन और स्वयंसेवी संस्थाएं भी ऐसे वक्त में चुप रह जाती हैं और प्रशासन व नेताओं की बीच हो रही खींचतान को तमाशबीन की तरह से देखती रहती हैं। अफसोस कि अजमेर के नेताओं की राजनीति इसी प्रकार जारी रही और जनता सोयी रही तो अजमेर का यूं ही बंटाधार होता रहेगा।
कायम रखनी होगी तीर्थराज की पवित्रता
विश्व प्रसिद्ध तीर्थराज पुष्कर के रखरखाव और विकास पर यद्यपि सरकार अपनी ओर से पूरा ध्यान दे रही है, इसके बावजूद यहां अनेकानेक समस्याएं हैं, जिसके कारण यहां दूर-दराज से आने वाले तीर्थ यात्रियों को तो दिक्कत होती ही है, इसकी छवि भी खराब होती है। विशेष रूप से इसकी पवित्रता का खंडित होना सर्वाधिक चिंता का विषय है।
यह सही है कि पर्यटन महकमे की ओर किए जाने वाले प्रचार-प्रसार के कारण यहां विदेशी पर्यटक भी खूब आकर्षित हुए हैं और सरकार की आमदनी बढ़ी है, मगर विदेशी पर्यटकों की वजह से यहां की पवित्रता पर भी संकट आया है। असल में पुष्कर की पवित्रता उसके देहाती स्वरूप में है, मगर यहां आ कर विदेशी पर्यटकों ने हमारी संस्कृति पर आक्रमण किया है। होना तो यह चाहिए कि विदेशी पर्यटकों को यहां आने से पहले अपने पहनावे पर ध्यान देने के निर्देश जारी किए जाने चाहिए। जैसे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे में जाने से पहले सिर ढ़कने और जूते उतारने के नियम हैं, वैसे ही पुष्कर में भ्रमण के भी अपने कायदे होने चाहिए। यद्यपि इसके लिए कोई ड्रेस कोड लागू नहीं किया सकता, मगर इतना तो किया ही जा सकता है कि पर्यटकों को सख्त हिदायत हो कि वे अद्र्ध नग्न अवस्था में पुष्कर की गलियों या घाटों पर नहीं घूम सकते। होटल के अंदर कमरे में वे भले ही चाहे जैसे रहें, मगर सार्वजनिक रूप से अंग प्रदर्शन नहीं करने देना चाहिए। इसके विपरीत हालत ये है कि अंग प्रदर्शन तो दूर विदेशी युगल सार्वजनिक स्थानों पर आलिंगन और चुंबन करने से नहीं चूकते, जो कि हमारी संस्कृति के सर्वथा विपरीत है। कई बार तो वे ऐसी मुद्रा में होते हैं कि देखने वाले को ही शर्म आ जाए। यह ठीक है कि उनके देश में वे जैसे भी रहते हों, उसमें हमें कोई एतराज नहीं, मगर जब वे हमारे देश में आते हंै तो कम से कम यहां मर्यादाओं का तो ख्याल रखें। विशेष रूप तीर्थ स्थल पर तो गरिमा में रह ही सकते हैं। विदेशी पर्यटकों के बेहूदा कपड़ों में घूमने से यहां आने वाले देशी तीर्थ यात्रियों की मानसिकता पर बुरा असर पड़ता है। वे जिस मकसद से तीर्थ यात्रा को आए हैं और जो आध्यात्मिक भावना उनके मन में है, वह खंडित होती है। जिस स्थान पर आ कर मनुष्य को अपनी काम-वासना का परित्याग करना चाहिए, यदि उसी स्थान पर विदेशी पर्यटकों की हरकतें देख कर तीर्थ यात्रा का मन विचलित होता है तो यह बेहद आपत्तिजनक और शर्मनाक है। विदेशी पर्यटकों की हालत तो ये है कि वे जानबूझ कर अद्र्ध नग्न अवस्था में निकलते हैं, ताकि स्थानीय लोग उनकी ओर आकर्षित हों। जब स्थानीय लोग उन्हें घूर-घूर कर देखते हंै, तो उन्हें बड़ा रस आता है। जाहिर तौर पर जब दर्शक को ऐसे अश्लील दृश्य आसानी से सुलभ हो तो वे भला क्यों मौका गंवाना चाहेंगे। स्थिति तब और विकट हो जाती है जब कोई तीर्थ यात्री अपने परिवार के साथ आता है। आंख मूंद लेने के सिवाय उसके पास कोई चारा नहीं रह जाता।
यह भी एक कड़वा सत्य है कि विदेशी पर्यटकों की वजह से ही पुष्कर मादक पदार्थों की मंडी बन गया है, जिससे हमारी युवा पीढ़ी बर्बाद होती जा रही है। इस इलाके एड्स के मामले भी इसी वजह से सामने आते रहे हैं।
यह सही है कि तीर्थ पुरोहितों ने पुष्कर की पवित्रता को लेकर अनेक बार आंदोलन किए हैं, कहीं न कहीं वे भी अपनी आमदनी के कारण आंदोलनों को प्रभावी नहीं बना पाए हैं। तीर्थ पुरोहित पुष्कर में प्रभावी भूमिका में हैं। वे चाहें तो सरकार पर दबाव बना कर यहां का माहौल सुधार सकते हैं। यह न केवल उनकी प्रतिष्ठा और गरिमा के अनुकूल होगा, अपितु तीर्थराज के प्रति लोगों की अगाध आस्था का संरक्षण करने के लिए भी जरूरी है।
यह सही है कि पर्यटन महकमे की ओर किए जाने वाले प्रचार-प्रसार के कारण यहां विदेशी पर्यटक भी खूब आकर्षित हुए हैं और सरकार की आमदनी बढ़ी है, मगर विदेशी पर्यटकों की वजह से यहां की पवित्रता पर भी संकट आया है। असल में पुष्कर की पवित्रता उसके देहाती स्वरूप में है, मगर यहां आ कर विदेशी पर्यटकों ने हमारी संस्कृति पर आक्रमण किया है। होना तो यह चाहिए कि विदेशी पर्यटकों को यहां आने से पहले अपने पहनावे पर ध्यान देने के निर्देश जारी किए जाने चाहिए। जैसे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे में जाने से पहले सिर ढ़कने और जूते उतारने के नियम हैं, वैसे ही पुष्कर में भ्रमण के भी अपने कायदे होने चाहिए। यद्यपि इसके लिए कोई ड्रेस कोड लागू नहीं किया सकता, मगर इतना तो किया ही जा सकता है कि पर्यटकों को सख्त हिदायत हो कि वे अद्र्ध नग्न अवस्था में पुष्कर की गलियों या घाटों पर नहीं घूम सकते। होटल के अंदर कमरे में वे भले ही चाहे जैसे रहें, मगर सार्वजनिक रूप से अंग प्रदर्शन नहीं करने देना चाहिए। इसके विपरीत हालत ये है कि अंग प्रदर्शन तो दूर विदेशी युगल सार्वजनिक स्थानों पर आलिंगन और चुंबन करने से नहीं चूकते, जो कि हमारी संस्कृति के सर्वथा विपरीत है। कई बार तो वे ऐसी मुद्रा में होते हैं कि देखने वाले को ही शर्म आ जाए। यह ठीक है कि उनके देश में वे जैसे भी रहते हों, उसमें हमें कोई एतराज नहीं, मगर जब वे हमारे देश में आते हंै तो कम से कम यहां मर्यादाओं का तो ख्याल रखें। विशेष रूप तीर्थ स्थल पर तो गरिमा में रह ही सकते हैं। विदेशी पर्यटकों के बेहूदा कपड़ों में घूमने से यहां आने वाले देशी तीर्थ यात्रियों की मानसिकता पर बुरा असर पड़ता है। वे जिस मकसद से तीर्थ यात्रा को आए हैं और जो आध्यात्मिक भावना उनके मन में है, वह खंडित होती है। जिस स्थान पर आ कर मनुष्य को अपनी काम-वासना का परित्याग करना चाहिए, यदि उसी स्थान पर विदेशी पर्यटकों की हरकतें देख कर तीर्थ यात्रा का मन विचलित होता है तो यह बेहद आपत्तिजनक और शर्मनाक है। विदेशी पर्यटकों की हालत तो ये है कि वे जानबूझ कर अद्र्ध नग्न अवस्था में निकलते हैं, ताकि स्थानीय लोग उनकी ओर आकर्षित हों। जब स्थानीय लोग उन्हें घूर-घूर कर देखते हंै, तो उन्हें बड़ा रस आता है। जाहिर तौर पर जब दर्शक को ऐसे अश्लील दृश्य आसानी से सुलभ हो तो वे भला क्यों मौका गंवाना चाहेंगे। स्थिति तब और विकट हो जाती है जब कोई तीर्थ यात्री अपने परिवार के साथ आता है। आंख मूंद लेने के सिवाय उसके पास कोई चारा नहीं रह जाता।
यह भी एक कड़वा सत्य है कि विदेशी पर्यटकों की वजह से ही पुष्कर मादक पदार्थों की मंडी बन गया है, जिससे हमारी युवा पीढ़ी बर्बाद होती जा रही है। इस इलाके एड्स के मामले भी इसी वजह से सामने आते रहे हैं।
यह सही है कि तीर्थ पुरोहितों ने पुष्कर की पवित्रता को लेकर अनेक बार आंदोलन किए हैं, कहीं न कहीं वे भी अपनी आमदनी के कारण आंदोलनों को प्रभावी नहीं बना पाए हैं। तीर्थ पुरोहित पुष्कर में प्रभावी भूमिका में हैं। वे चाहें तो सरकार पर दबाव बना कर यहां का माहौल सुधार सकते हैं। यह न केवल उनकी प्रतिष्ठा और गरिमा के अनुकूल होगा, अपितु तीर्थराज के प्रति लोगों की अगाध आस्था का संरक्षण करने के लिए भी जरूरी है।
गुरुवार, 21 अप्रैल 2011
सख्ती से ही सुधरेगा शहर


संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा और जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल की पहल पर न्यास-निगम के दल व पुलिस बल ने जिस सूझबूझ और सख्ती से हाल ही यातायात में बाधा बन रही गुमटियों और अवैध निर्माणों को ध्वस्त किया, वह निश्चित ही दृढ़ निश्चय का परिचायक है। खतरा सिर्फ ये है कि विरोध में सत्तारूढ़ दल के पार्षद आ खड़े हुए हैं, जो अपनी राजनीतिक ताकत का दुरुपयोग कर शहर को खूबसूरत बनाने के अभियान में बाधा बन सकते हैं।
असल में यह शहर वर्षों से अतिक्रमण और यातायात अव्यवस्था से बेहद पीडि़त है। पिछले पच्चीस साल के कालखंड में अकेले पूर्व कलेक्टर श्रीमती अदिति मेहता को ही यह श्रेय जाता है कि उन्होंने मजबूत इरादे के साथ अतिक्रमण हटा कर शहर का काया कल्प कर दिया था। और जो भी कलेक्टर आए वे मात्र नौकरी करके चले गए। उन्होंने कभी शहर की हालत सुधारने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। कदाचित इसकी वजह ये भी रही होगी कि यहां राजनीतिक दखलंदाजी बहुत अधिक है, इस कारण प्रशासनिक अधिकारी कुछ करने की बजाय शांति से नौकरी करना पसंद करते हैं। बताया जाता है कि श्रीमती अदिति मेहता भी इतना सब कुछ इस कारण कर पाईं कि उन पर तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय भैरोंसिंह शेखावत का आशीर्वाद था। मौजूदा संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा व जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल पर ऐसा कोई आशीर्वाद तो नजर नहीं आता, यही वजह है कि आशंका ये होती है कि कहीं फिर से शहर के विकास में राजनीति आड़े नहीं आ जाए। आपको याद होगा कि कुछ अरसे पहले संभागीय आयुक्त शर्मा के विशेष प्रयासों से शहर को आवारा जानवरों से मुक्त करने का अभियान शुरू हुआ, मगर चूंकि राजनीति में असर रखने वालों ने केन्द्रीय राज्य मंत्री सचिन पायलट का दबाव डलवा दिया, इस कारण वह अभियान टांय टांय फिस्स हो गया। शर्मा अजमेर के रहने वाले हैं, इस कारण उनका अजमेर के प्रति दर्द समझ में आता है, लेकिन नई जिला कलेक्टर श्रीमती राजपाल के तेवर को देख कर भी यही लगता है कि वे भी अजमेर शहर की कायाकल्प करने का आतुर हैं। तभी तो उन्होंने पिछले दिनों राजस्थान दिवस पर सफाई का एक अनूठे तरीके से संदेश दिया। न केवल मंजू राजपाल ने झाडू लगाई, अपितु उनके साथी प्रशासनिक अधिकारियों ने भी हाथ बंटाया। जाहिर है कि अतिक्रमण हटाओ अभियान में बरती जा रही शर्मा व श्रीमती राजपाल की दृढ़ता का ही नतीजा है। संयोग से उन्हें हनुमान समान नगर निगम सीईओ सी. आर. मीणा उनके पास हैं, जो बिलकुल पूर्व सिटी मजिस्ट्रेट सी. आर. चौधरी की स्टाइल में ठंडे रह कर सख्ती का अहसास करवाते हैं। मौजूदा सिटी मजिस्ट्रेट जगदीश पुरोहित भी कड़क मिजाज के हैं। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि ये चारों अधिकारी पुलिस की मदद से अभियान को सफलता के शीर्ष तक पहुंचाएंगे। बस, खतरा सिर्फ ये है कि सत्तारूढ़ दल के कांग्रेस पार्षद की विपक्ष की भूमिका अदा करते हुए शहर के विकास में बाधा बनने को आतुर हैं। कितने अफसोस की बात है कि जनता की ओर से चुने गए प्रतिनिधि ही जनता की भलाई में रोड़ा बनने को आतुर हैं। जब इसी शहर में रह रहे इन पार्षदों को ही शहर के विकास की परवाह नहीं तो भला साल-दो साल केलिए आने वाले प्रशासनिक अधिकारी कितनी शिद्दत के साथ शहर का भला करते हैं, ये बात देखने वाली होगी।
पुलिस की सूझबूझ से टला उपद्रव
एक तो दरगाह इलाका वैसे ही सांप्रदायिक दृष्टि से अति संवेदनशील है, उस पर तकरीबन एक माह बाद ख्वाजा साहब का उर्स मेला भरने वाला है, ऐसे में दरगाह इलाके में पुलिस और सीआईडी की जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है। यहां के छोटे-मोटे झगड़े की गूंज भी मीडिया के ग्लोबलाइजेशन के कारण दूर-दूर तक पहुंचती है। और जाहिर तौर पर उसका उर्स मेले में आने के इच्छुक जायरीन पर पड़ता है।
दरगाह इलाके में पिछले साल धराशायी हुए बाबा गेस्ट हाउस के सौदे को लेकर दो गुटों में चल रही रंजिश ने एक बार फिर उबाल लिया। इस सिलसिले में एक गुट ने जब दुकानदार पर हमला बोला तो अन्य दुकानदार जमा हो गए और उन्होंने हमलावरों पर तो हमला बोला ही उनकी कार भी फूंक दी। माहौल इतना गर्म हो चुका था कि वह किसी भी समय सांप्रदायिक उपद्रव का रूप ले सकता था, मगर मौके पर तुरंत पहुंची पुलिस ने तत्परता दिखाई और हालात पर काबू पा लिया। ऐसे समय में जब कि उर्स मेला सिर पर है और प्रशासन ने उसकी तैयारी की कवायद शुरू कर दी है, इस उपद्रव को टालने के लिए डीएसपी विष्णुदेव सामतानी के नेतृत्व में मुस्तैद रही पुलिस वाकई साधुवाद की पात्र है। इतना ही नहीं सामतानी की पहल पर प्रशासन ने तुरंत इलाके के संभ्रांत लोगों की बैठक बुलाई और शांति के प्रयास तेज कर दिए। हालांकि फिलहाल हालात पर पूरी तरह से काबू पा लिया गया है, फिर भी उर्स मेले को देखते हुए पुलिस और विशेष रूप से सीआईडी को सतर्क रहना होगा।
दरगाह इलाके में पिछले साल धराशायी हुए बाबा गेस्ट हाउस के सौदे को लेकर दो गुटों में चल रही रंजिश ने एक बार फिर उबाल लिया। इस सिलसिले में एक गुट ने जब दुकानदार पर हमला बोला तो अन्य दुकानदार जमा हो गए और उन्होंने हमलावरों पर तो हमला बोला ही उनकी कार भी फूंक दी। माहौल इतना गर्म हो चुका था कि वह किसी भी समय सांप्रदायिक उपद्रव का रूप ले सकता था, मगर मौके पर तुरंत पहुंची पुलिस ने तत्परता दिखाई और हालात पर काबू पा लिया। ऐसे समय में जब कि उर्स मेला सिर पर है और प्रशासन ने उसकी तैयारी की कवायद शुरू कर दी है, इस उपद्रव को टालने के लिए डीएसपी विष्णुदेव सामतानी के नेतृत्व में मुस्तैद रही पुलिस वाकई साधुवाद की पात्र है। इतना ही नहीं सामतानी की पहल पर प्रशासन ने तुरंत इलाके के संभ्रांत लोगों की बैठक बुलाई और शांति के प्रयास तेज कर दिए। हालांकि फिलहाल हालात पर पूरी तरह से काबू पा लिया गया है, फिर भी उर्स मेले को देखते हुए पुलिस और विशेष रूप से सीआईडी को सतर्क रहना होगा।
गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
दरगाह ब्लास्ट मामला : सोची-समझी रणनीति है सरकार की?
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार दरगाह बम ब्लास्ट मामले में एटीएस सोची-रणनीति के तहत काम कर रही है। हालांकि जब तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के नेता इस प्रकार के आरोप लगा रहे थे तो उनमें राजनीतिक मकसद साफ नजर आता था, मगर अब जब कि केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री गुरुदास कामथ का यह बयान सामने आया है कि दरगाह बम ब्लास्ट सहित देश के अन्य स्थानों पर हुए धमाकों के आरोपी असीमानंद ने कुछ संगठनों के इशारे पर अपना बयान बदला है, यह संकेत मिल रहे हैं कि सरकार की इसमें गहरी रुचि है कि इस प्रकरण के जरिए संघ और भाजपा को घेरा जाए। हालांकि कामथ ने उन संगठनों का नाम नहीं लिया, लेकिन यह कह कर कि वे संगठनों के नाम नहीं लेंगे, क्योंकि सब जानते हैं कि वे संगठन कौन से हैं, स्पष्ट है कि उनका इशारा साफ तौर पर संघ और भाजपा की ओर ही है। और कामथ गृह राज्य मंत्री के नाते तटस्थ रहने की बजाय उनके खिलाफ प्रवक्ता का काम कर रहे हैं। वजह साफ है कि असीमानंद की पलटी से मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह सहित अन्य कांग्रेसी दिग्गजों की क्रीज से आगे बढ़ कर की जा रही बयानबाजी पर असर पड़ रहा है।
कामथ ने तर्क दिया है कि असीमानंद पेशी के दौरान दर्जनों बार मीडिया के सामने आया और वह चाहता तो सुरक्षा एजेंसियों पर जबरिया बयान लिए जाने की बात उठा सकता था, मगर वह अब भारी दबाव में और सोच-समझ कर मजिस्ट्रेट के समक्ष इकबालिया बयान को बदल रहा है। इससे उसकी पैंतरेबाजी को समझना चाहिए। कामथ के इस तर्क में कुछ दम मान भी लिया जाए, मगर सवाल ये उठता है कि सरकार की इसमें क्या रुचि है कि आरोपी क्या बयान दे रहा है और बयान क्यों बदल रहा है? सरकार को तो सिर्फ इस बात से मतलब होना चाहिए कि जिसने अपराध किया है, उसको सजा मिले। फिर वह चाहे किसी भी संगठन से जुड़ा हुआ क्यों न हो। उसकी इसमें दिलचस्पी क्यों है कि वह किन्हीं संगठनों के कहने पर बयान बदल रहा है? आरोपी तो आरोपी है, वही झूठ नहीं बोलेगा तो कौन बोलेगा? चोर कब कहेगा कि हां उसने चोरी की है? यह तो सुरक्षा एजेंसियों की जिम्मेदारी है, जिन्होंने चोर को पकड़ कर कोर्ट के समझ हाजिर किया है, कि यह साबित करें कि आरोपी ने चोरी की है। कामथ के इस बयान से ऐसा प्रतीत होता है कि जब तक असीमानंद के बयान संघ और भाजपा के प्रतिकूल थे, तब कांग्रेसनीत सरकार प्रसन्न थी क्योंकि उनसे उसका राजनीतिक मकसद पूरा हो रहा है, लेकिन जैसे ही उसने बयान बदला, सरकार की पेशानी पर लकीरें उभर आई हैं। सरकार यह सोच रही है कि असीमानंद की स्वीकारोक्ति को आधार बना कर वह संघ और भाजपा पर हमले कर रही थी, लेकिन अब असीमानंद बयान बदल रहा है तो वह क्या रुख अख्तियार करे।
वैसे सच ये भी है कि असीमानंद के इकबालिया बयान से सभी चौंके थे। बुद्धिजीवी इस बात पर माथापच्ची कर रहे थे कि वह समर्पण की स्थिति में क्यों कर है। कोई कह रहा था कि संघ के इशारे पर ही उसने सोची-समझी रणनीति के तहत बयान दिया था, ताकि संघ के बड़े नेताओं तक सुरक्षा एजेंसियों के हाथ न जाएं और सारी जिम्मेदारी उसी पर आयद कर दी जाए। कोई कह रहा था कि वह शुरुआत में तो सुरक्षा एजेंसियों को सहयोग करेगा और बाद में रुख बदलेगा। कुल मिला कर उसके बयान और उसकी बॉडी लैंग्वेज पर सब की गहरी नजर थी। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री के ताजा बयान से असीमानंद की हरकतें और अधिक आकर्षित हो जाने वाली हैं।
बहरहाल, इस बात की आशंकाएं भी उठने लगी हैं कि सरकार जानबूझकर इस मामले को लंबा खींचना चाहती है ताकि आगामी चुनाव के आने तक इस मामले में कुछ और दिग्गजों पर भी शिकंजा कसा जा सके। बताते तो यहां तक हैं कि सरकार के हाथ धीरे-धीरे संघ प्रमुख भागवत की ओर खिसक रहे हैं और उनके पांच दिन के अजमेर के प्रवास को इस मामले से जोड़ कर देखा जा रहा है। देखते हैं क्या होता है?
मंगलवार, 5 अप्रैल 2011
लखावत जी ! आपकी धर्मनिरपेक्षता को सलाम
हाल ही आयकर विभाग के ज्वाइंट कमिश्नर बी. एल. यादव ने राजस्थाल लोक सेवा आयोग में बने हुए मंदिर के मुद्दे पर सूचना के अधिकार के तहत जानकारी चाह कर एक नई बहस को जन्म दिया है कि क्या सरकारी दफ्तरों में बने मंदिर अथवा धर्मस्थल अतिक्रमण और नाजायज हैं? और इस बहस को मंच दिया है दैनिक भास्कर ने।
चूंकि मंदिर की बात ज्यादा भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग करते हैं, इस कारण संवाददाता ने प्रतिक्रिया क्या होगी, यह जानते हुए भी अजमेर में भाजपा के भीष्म पितामह पूर्व सांसद एवं जाने-माने वकील औंकार सिंह लखावत को कुरेदा है। लखावत ने जिस तरीके से अपना पक्ष रखा है, वह बहुत दिलचस्प है, क्योंकि वह प्रतिक्रिया एक मानसिकता विशेष और पार्टी की प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए ही दी गई है। मन ही मन भले ही वे जानते हों कि सरकारी दफ्तरों में एक धर्म विशेष के स्थल बनाना गलत है, मगर मगर चूंकि भाजपा के जिम्मेदार पदाधिकारी हैं, इस कारण उसी का चश्मा पहन कर बयान दे दिया है। अफसोस सिर्फ इतना है कि लखावत शहर के वरिष्ठतम पत्रकारों में से हैं और वरिष्ठ वकील होने के साथ उनकी गिनती प्रखर बुद्धिजीवियों में होती है, फिर भी प्रतिक्रिया कितनी संकीर्णता दर्शा रही है। असल में लखावत जी का सम्मान केवल इसी कारण नहीं होता कि वे पूर्व सांसद हैं, नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष और राजस्थान धरोहर संरक्षण एवं प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष रहे हैं, या फिर भाजपा के बड़े नेता हैं, बल्कि इस कारण होता है कि अजमेर में उनके मुकाबले का दूसरा प्रखर और स्पष्ट वक्ता, विशेष रूप से राजनीति के क्षेत्र में तलाशना नामुमकिन है। कम से कम उनसे तो ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं होती।
कदाचित संभव है कि उनके कथन और लिखित प्रतिक्रिया में शब्दों का कुछ हेरफेर हो गया हो, मगर कुल जमा जो अर्थ निकलता है, उसी पर नजर डाल लेते हैं। उनकी प्रतिक्रिया हिंदूवादी मानसिकता को तो पोषित करती है, मगर उसे संविधान सम्मत तो कत्तई नहीं ठहराया जा सकता।
वे कहते हैं कि मुद्दा ज्यादा बड़ा नहीं है, लेकिन सीधे तौर पर हिंदुत्व से जुड़ा हुआ है। असल बात ये है कि मुद्दा है तो बहुत बड़ा, बस उसे जानबूझ कर नजरअंदाज किया जा रहा है। चूंकि हमारे धर्मनिरपेक्ष देश में हिंदू बहुसंख्यक हैं, इस कारण अल्पसंख्यक इसे उठाने का साहस नहीं कर पाते और हिंदू इस कारण नहीं उठाते क्योंकि हिंदुओं की नजर में गिर जाएंगे। उनकी सोच यही है कि जो चल रहा है, उसे चलने दो, कौन पंगा मोल ले। वैसे भी यह अपने धर्म के अनुकूल है, कानून सम्मत भले ही न हो। लखावत यदि ये कहते कि यह आस्था का मामला है तो बात थोड़ी गले भी उतरती, मगर उन्होंने इसे हिंदुत्व का लेबल लगा दिया। इसका क्या अर्थ निकाला जाए? क्या यह देश हिंदूवादी है? क्यों कि देश में हिंदू बहुसंख्यक हैं, इस कारण सरकारी परिसरों में मंदिर बनाना हिंदुओं का जन्मसिद्ध अधिकार है? सवाल ये भी है कि किस हिंदू धर्म ग्रंथ में लिखा है कि सरकारी जमीन पर बिना किसी की अनुमति के मंदिर बना दिए जाने चाहिए। क्या कानून नाम की कोई चीज भी हमारे देश है या नहीं? क्या हिंदुत्व यही सीख दे रहा है कि हिंदुत्व को महान बताते हुए इस धर्मनिरपेक्ष देश में संविधान को धत्ता दिखाते रहा जाए?
लखावत जी कहते हैं कि हमारे देश में धर्म और संस्कृति ही तो बची हुई है। सवाल ये उठता है कि हमारे पास धर्म और संस्कृति के अलावा है भी क्या, जो बच जाता? साइंस, टैक्नोलॉजी, प्रशासनिक ढांचा इत्यादि सब-कुछ तो उधार का है। फिर ये कहते हैं कि मंदिर भी हटा दिए जाएंगे तो बचेगा क्या? यानि कि हमारे पास केवल मंदिर ही हैं, उसके अलावा कुछ है ही नहीं? उनकी नजर उन सैंकड़ों मंदिरों पर नहीं जा रही, जिनके भगवान या तो नियमित पूजा का तरस रहे हैं और या फिर लूट-खसोट का अड्डा बने हुए हैं। वे कहते हैं कि धर्म निरपेक्षता के मायने यह नहीं हैं कि धर्म का आचरण न किया जाए। बेशक उनकी बात सही है, मगर उस आचरण का क्या जो दूसरे के धर्म को कमतर आंक रहा है, क्योंकि वह अल्पसंख्यकों का है? धर्म निरपेक्षता के मायने हैं कि आप भले की अपने धर्म का आचरण पूरे मनोयोग से करें, मगर दूसरे धर्म को भी उतना ही सम्मान दें। अर्थात धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
फिर वे कहते हैं कि हिंदुस्तान में मंदिर नहीं होंगे तो कहां होंगे? बेशक मंदिर यहीं होंगे, मंदिर होने से रोक भी कौन रहा है, सवाल तो केवल सरकारी परिसरों में अतिक्रमण कर बनाए गए मंदिरों का है। जब हमारे पास गली-मोहल्लों में जगह-जगह मंदिर हैं तो सरकारी परिसरों में और मंदिर बना कर क्या हासिल कर रहे हैं? क्या सरकारी परिसरों में मंदिर बना दिए जाने से हमारे सरकारी कर्मचारी बड़ा धार्मिक आचरण करने लगे हैं? सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, मंदिर बनाए जाने के बाद भी सरकारी दफ्तरों में क्या हो रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है, सब जानते हैं?
लखावत जी ने आखिर में तो हद ही कर दी है। एक जाने-माने कानूनविद् का यह कथन कितना हास्यास्पद है कि अगर सरकारी भूमि पर मंदिर बने हुए भी हैं तो किसी निजी लाभ के लिए नहीं बने हैं। निजी लाभ के लिए न सही, मगर निज धर्म के लाभ के लिए तो हैं ही न। सबसे बड़ी बात ये है कि सरकारी जमीन पर बिना किसी व्यवस्था से अनुमति लिए मंदिर बनाना अवैध है, उसमें लाभ-हानि का पैमाना कहां लागू होता है। सरकारी दफ्तरों में मंदिर बनाना गलत है तो गलत है, उसे सही ठहराने के लिए भावनात्मक दलीलें देकर मुद्दे को हवा में उड़ाने को तो सही नहीं ठहराया जा सकता।
असल में यह समस्या अकेले लखावत जी की नहीं है। दुनिया के अधिसंख्य बुद्धिजीवी किसी न किसी विचारधारा में बंध कर उसी के अनुरूप बात करने को बाध्य होते हैं, वरना उन्होंने जिस विचारधारा को अपना कर ऊंचे पद हासिल किए हैं, उसके ठेकेदार उन्हें उनसे पदच्तुत कर देंगे।
चूंकि मंदिर की बात ज्यादा भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग करते हैं, इस कारण संवाददाता ने प्रतिक्रिया क्या होगी, यह जानते हुए भी अजमेर में भाजपा के भीष्म पितामह पूर्व सांसद एवं जाने-माने वकील औंकार सिंह लखावत को कुरेदा है। लखावत ने जिस तरीके से अपना पक्ष रखा है, वह बहुत दिलचस्प है, क्योंकि वह प्रतिक्रिया एक मानसिकता विशेष और पार्टी की प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए ही दी गई है। मन ही मन भले ही वे जानते हों कि सरकारी दफ्तरों में एक धर्म विशेष के स्थल बनाना गलत है, मगर मगर चूंकि भाजपा के जिम्मेदार पदाधिकारी हैं, इस कारण उसी का चश्मा पहन कर बयान दे दिया है। अफसोस सिर्फ इतना है कि लखावत शहर के वरिष्ठतम पत्रकारों में से हैं और वरिष्ठ वकील होने के साथ उनकी गिनती प्रखर बुद्धिजीवियों में होती है, फिर भी प्रतिक्रिया कितनी संकीर्णता दर्शा रही है। असल में लखावत जी का सम्मान केवल इसी कारण नहीं होता कि वे पूर्व सांसद हैं, नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष और राजस्थान धरोहर संरक्षण एवं प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष रहे हैं, या फिर भाजपा के बड़े नेता हैं, बल्कि इस कारण होता है कि अजमेर में उनके मुकाबले का दूसरा प्रखर और स्पष्ट वक्ता, विशेष रूप से राजनीति के क्षेत्र में तलाशना नामुमकिन है। कम से कम उनसे तो ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं होती।
कदाचित संभव है कि उनके कथन और लिखित प्रतिक्रिया में शब्दों का कुछ हेरफेर हो गया हो, मगर कुल जमा जो अर्थ निकलता है, उसी पर नजर डाल लेते हैं। उनकी प्रतिक्रिया हिंदूवादी मानसिकता को तो पोषित करती है, मगर उसे संविधान सम्मत तो कत्तई नहीं ठहराया जा सकता।
वे कहते हैं कि मुद्दा ज्यादा बड़ा नहीं है, लेकिन सीधे तौर पर हिंदुत्व से जुड़ा हुआ है। असल बात ये है कि मुद्दा है तो बहुत बड़ा, बस उसे जानबूझ कर नजरअंदाज किया जा रहा है। चूंकि हमारे धर्मनिरपेक्ष देश में हिंदू बहुसंख्यक हैं, इस कारण अल्पसंख्यक इसे उठाने का साहस नहीं कर पाते और हिंदू इस कारण नहीं उठाते क्योंकि हिंदुओं की नजर में गिर जाएंगे। उनकी सोच यही है कि जो चल रहा है, उसे चलने दो, कौन पंगा मोल ले। वैसे भी यह अपने धर्म के अनुकूल है, कानून सम्मत भले ही न हो। लखावत यदि ये कहते कि यह आस्था का मामला है तो बात थोड़ी गले भी उतरती, मगर उन्होंने इसे हिंदुत्व का लेबल लगा दिया। इसका क्या अर्थ निकाला जाए? क्या यह देश हिंदूवादी है? क्यों कि देश में हिंदू बहुसंख्यक हैं, इस कारण सरकारी परिसरों में मंदिर बनाना हिंदुओं का जन्मसिद्ध अधिकार है? सवाल ये भी है कि किस हिंदू धर्म ग्रंथ में लिखा है कि सरकारी जमीन पर बिना किसी की अनुमति के मंदिर बना दिए जाने चाहिए। क्या कानून नाम की कोई चीज भी हमारे देश है या नहीं? क्या हिंदुत्व यही सीख दे रहा है कि हिंदुत्व को महान बताते हुए इस धर्मनिरपेक्ष देश में संविधान को धत्ता दिखाते रहा जाए?
लखावत जी कहते हैं कि हमारे देश में धर्म और संस्कृति ही तो बची हुई है। सवाल ये उठता है कि हमारे पास धर्म और संस्कृति के अलावा है भी क्या, जो बच जाता? साइंस, टैक्नोलॉजी, प्रशासनिक ढांचा इत्यादि सब-कुछ तो उधार का है। फिर ये कहते हैं कि मंदिर भी हटा दिए जाएंगे तो बचेगा क्या? यानि कि हमारे पास केवल मंदिर ही हैं, उसके अलावा कुछ है ही नहीं? उनकी नजर उन सैंकड़ों मंदिरों पर नहीं जा रही, जिनके भगवान या तो नियमित पूजा का तरस रहे हैं और या फिर लूट-खसोट का अड्डा बने हुए हैं। वे कहते हैं कि धर्म निरपेक्षता के मायने यह नहीं हैं कि धर्म का आचरण न किया जाए। बेशक उनकी बात सही है, मगर उस आचरण का क्या जो दूसरे के धर्म को कमतर आंक रहा है, क्योंकि वह अल्पसंख्यकों का है? धर्म निरपेक्षता के मायने हैं कि आप भले की अपने धर्म का आचरण पूरे मनोयोग से करें, मगर दूसरे धर्म को भी उतना ही सम्मान दें। अर्थात धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
फिर वे कहते हैं कि हिंदुस्तान में मंदिर नहीं होंगे तो कहां होंगे? बेशक मंदिर यहीं होंगे, मंदिर होने से रोक भी कौन रहा है, सवाल तो केवल सरकारी परिसरों में अतिक्रमण कर बनाए गए मंदिरों का है। जब हमारे पास गली-मोहल्लों में जगह-जगह मंदिर हैं तो सरकारी परिसरों में और मंदिर बना कर क्या हासिल कर रहे हैं? क्या सरकारी परिसरों में मंदिर बना दिए जाने से हमारे सरकारी कर्मचारी बड़ा धार्मिक आचरण करने लगे हैं? सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, मंदिर बनाए जाने के बाद भी सरकारी दफ्तरों में क्या हो रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है, सब जानते हैं?
लखावत जी ने आखिर में तो हद ही कर दी है। एक जाने-माने कानूनविद् का यह कथन कितना हास्यास्पद है कि अगर सरकारी भूमि पर मंदिर बने हुए भी हैं तो किसी निजी लाभ के लिए नहीं बने हैं। निजी लाभ के लिए न सही, मगर निज धर्म के लाभ के लिए तो हैं ही न। सबसे बड़ी बात ये है कि सरकारी जमीन पर बिना किसी व्यवस्था से अनुमति लिए मंदिर बनाना अवैध है, उसमें लाभ-हानि का पैमाना कहां लागू होता है। सरकारी दफ्तरों में मंदिर बनाना गलत है तो गलत है, उसे सही ठहराने के लिए भावनात्मक दलीलें देकर मुद्दे को हवा में उड़ाने को तो सही नहीं ठहराया जा सकता।
असल में यह समस्या अकेले लखावत जी की नहीं है। दुनिया के अधिसंख्य बुद्धिजीवी किसी न किसी विचारधारा में बंध कर उसी के अनुरूप बात करने को बाध्य होते हैं, वरना उन्होंने जिस विचारधारा को अपना कर ऊंचे पद हासिल किए हैं, उसके ठेकेदार उन्हें उनसे पदच्तुत कर देंगे।
शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011
सचिन ने प्रभा की दुकान जो उठा दी है
गुरुवार को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सहित राज्य अन्य मंत्रियों, विधायकों और केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के काफिले के साथ राज्यसभा सदस्य डॉ. प्रभा ठाकुर की गैर मौजूदगी चर्चा का विषय हो गई। विशेष रूप से अजमेर-सुल्तानपुर ट्रेन के शुभारंभ समारोह में उनकी कमी को रेखांकित इसलिए किया गया क्यों कि रेल प्रशासन ने उनको भी विशिष्ट अतिथि बनाया था। वे क्यों नहीं आई, इसकी वजह तो पता नहीं, मगर इसे राजनीतिक हलकों में इस रूप में लिया जा रहा है कि सचिन से अनबन के चलते उन्होंने आना मुनासिब नहीं समझा।
असल में सचिन पायलट ने फिलवक्त तक तो अजमेर में प्रभा ठाकुर की राजनीतिक दुकान उठा ही रखी है। यूं सच्चे अर्थों में उनकी दुकान तो लोकसभा चुनाव में ही उठा दी गई थी। एक तो सचिन ने उनके लोकसभा क्षेत्र पर कब्जा कर लिया, जबकि वे इस सीट की प्रबल दावेदार थीं। फिर राहुल के नजदीक होने व सशक्त पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण सचिन राज्यमंत्री भी बन गए। ऐसे में अजमेर के सारे कांग्रेसी उनकी आजिजि में लग गए हैं। हालांकि प्रभा ठाकुर के यदाकदा अजमेर आने पर भी कांग्रेसी जुटते हैं, मगर अब दिल्ली जा कर उनके यहां हाजिरी भरने वालों की तादात कम हो गई है। ऐसा नहीं कि दिल्ली में प्रभा कमजोर हैं। वे सोनिया गांधी की करीबी हैं। राजीव गांधी के जमाने से ही दिल्ली दरबार पर पकड़ रखती हैं, इसी कारण महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बनीं। मगर अब जब कि अजमेर लोकसभा क्षेत्र से चुन कर सचिन दिल्ली गए हैं और कांग्रेस के प्रिंस राहुल की किचिन केबिनेट में हैं, इस कारण उनकी चवन्नी कुछ ज्यादा ही चलती है। उन्हीं की वजह से पहली बार अजमेर को दिल्ली में तवज्जो मिलने लगी है। जब सचिन नहीं थे, तब दिल्ली में अजमेर से एकमात्र प्रभावशाली नेता प्रभा ठाकुर ही थीं, लेकिन वे अजमेर का कुछ भला नहीं कर पाईं। ऐसा नहीं कि वे अजमेर के लिए मांगती नहीं थीं। पुरजोर शब्दों में मांगती थीं। और अपनी मांग की खबरें दिल्ली में बैठे-बैठे ही अजमेर के अखबारों में छपवाती रही हैं, ताकि संदेश यह जाए कि भले ही अजमेर आने का उनके पास वक्त नहीं पर उन्हें अजमेर की बहुत चिंता है। मगर उनकी मांगों पर सुनवाई कम ही होती थी। आखिरकार एक राज्य मंत्री और सांसद में इतना तो फर्क होता ही है।
खैर, अपना तो मानना ये है कि प्रभा ठाकुर को दिल छोटा नहीं करना चाहिए। मैदान में डटे रहना चाहिए। अगर इस तरह किनारा करेंगी तो यहां के कांग्रेसी उन्हें भी हाशिये पर खड़ा करने में देर नहीं लगाएंगे। जितनी वे भुलक्कड़ हैं, उससे कहीं ज्यादा अजमेर वासी भुलक्कड़ हैं। अजमेर के कांग्रेसियों को सचिन का एकछत्र राज ही रास नहीं आ रहा। वो तो उनका जोर नहीं चलता, वरना पीछे तो उनके भी पड़े रहते हैं। प्रभा तो चीज ही क्या हैं।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)