गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

मुफ्त दवा योजना बेहतरीन, मगर सावधानियां भी जरूरी

राज्य सरकार की ओर से 2 अक्टूबर से शुरू की मुफ्त दवा योजना बेशक बेहतरीन है, मगर उसको विफल किए जाने की आशंकाएं भी कम नहीं हैं। ऐसे में सरकार को अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी।
वस्तुत: यह सही है कि आम आदमी के इलाज का जिम्मा अगर सरकार लेती है तो इससे बेहतरीन कल्याणकारी योजना कोई हो ही नहीं सकती। इसकी अहम वजह ये है कि लाख कोशिशों के बाद भी दवा माफिया पर काबू नहीं पाया जा सका है। दवा माफिया ने ब्रांडेड और उन्नत किस्म की दवा के नाम पर बड़े पैमाने पर कमीशनबाजी शुरू कर जहां चिकित्सकों को मालामाल कर दिया है, वहीं आम आदमी की कमर ही तोड़ दी है। कल्पना कीजिए कि एक जेनेरिक दवाई अगर मात्र दस रुपए में आती है और उसी साल्ट की ब्रांडेड कंपनी की दवा सौ रुपए में है तो जाहिर तौर पर उसे बेचने के लिए दवा लिखने वाले डॉक्टरों को मोटी राशी बतौर कमीशन दी जाती है। डॉक्टर भी उसी कंपनी की दवाई लिखते हैं, जो उनको ज्यादा कमीशन देती है। हालांकि सरकार ने आदेश जारी कर केवल जेनेरिक दवाई ही लिखने के आदेश जारी कर दिए, मगर पूरा मार्केट माफियाओं के चंगुल में इस कदर जकड़ा हुआ है कि उस आदेश पर ठीक से अमल हो ही नहीं पाया। अगर कोई डॉक्टर जेनेरिक दवाई लिख भी देता है तो वह दवा मार्केट में आसानी से मिलती ही नहीं, ऐसे में मरीज मजबूर हो कर ब्रांडेड दवाई लेने को ही मजबूर होता है। जब सरकार ने देखा कि उसके आदेश का पर अमल हो ही नहीं रहा तो उसने आखिरकार ऐसी योजना बना दी, जिससे माफिया की चालें ध्वस्त हो जाएंगी। जाहिर तौर पर जब मरीज को अस्पताल में ही मुफ्त दवाई उपलब्ध करवा दी जाएगी तो वह बाजार में जाएगा ही नहीं। इन सबके बाद भी सरकार की इस योजना को लेकर भारी आशंकाएं हैं। एक आशंका तो ये है कि कमीशन के आदी हो चुके डॉक्टर इसे विफल करने के तरीके निकालेंगे। कदाचित वे यह कह सकते हैं कि वह सरकार के कहने पर अमुक जेनेरिक दवाई लिख तो रहा है और वह अस्पताल में मिल भी जाएगी, मगर असर नहीं करेगी। यदि असरकारक दवाई चाहिए तो अमुक ब्रांडेड दवाई लेनी होगी। इसके अतिरिक्त दवा माफिया भी यह प्रचारित कर रहे हैं कि जेनेरिक दवाइयां घटिया होती हैं। ऐसे में सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती ये है कि उसे एक तो सावधानी से जेनेरिक दवाई खरीदनी होगी और दूसरा उसके प्रति विश्वास कायम हो, इसके भरसक प्रचास करने होंगे। अगर आम आदमी में विश्वास कायम नहीं किया जा सका तो सरकार की योजना विफल हो सकती है। यदि मरीज को जेनेरिक दवाई पर यकीन नहीं हुआ तो वह मुफ्त में मिल रही दवाई की बजाय ब्रांडेड दवाई ही खरीदेगा। सरकार को जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता कायम रखने पर पूरा जोर लगाना होगा। अगर इस मामले में भाई-भतीजावाद और रिश्वतखोरी चली तो घटिया कंपनियों को माल सप्लाई करने का मौका मिल जाएगा। यदि कुछेक मामले ऐसे हुए कि जेनेरिक दवाई से मरीज ठीक नहीं हुआ तो जाहिर तौर पर उसका प्रचार दवा माफिया जम कर करेगा।
एक बड़ी आशंका ये भी है कि क्या सरकार वाकई उतनी दवाई उपलब्ध करवा पाएगी, जितनी कि जरूरत है? क्या सरकार ने वाकई पूरा आकलन कर लिया है कि प्रतिदिन कितने मरीजों के लिए कितनी दवाई की खपत है? इसके अतिरिक्त क्या समय पर दवा कंपनियां माल सप्लाई कर पाएंगी? अगर कुछ दवाई अस्पताल से मिली और कुछ बाहर से खरीदनी पड़ी तो भी योजना पर संकट आ सकता है। एक खतरा ये भी है कि सरकारी दवाई में कहीं बंदरबांट न हो जाए। अगर अस्पताल प्रशासन मुस्तैद नहीं रहा तो सरकारी दवाई बिकने को मार्केट में चली जाएगी। कुल मिला कर योजना तभी कारगर होगी, जबकि सरकार इस मामले की मॉनिटरिंग मुस्तैदी से करेगी।

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