महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में खादिमों के हाथों पुलिस वालों के पिटने का तो मानो दस्तूर सा हो चला है। मेले के दौरान भारी भीड़ की वजह से होने वाली धक्का-मुक्की की वजह से पुलिस वालों के थोड़ा सा सख्त होते ही पिटने की नौबत तो कई बार आ चुकी है, लेकिन अब आम दिनों में भी पिटने की वारदातें होने लगी हैं। रविवार को पुलिस वाले के पिटने की एक और वारदात हो गई। हर बार की तरह इस बार भी पुलिस को नरम रुख रखते हुए समझौते की राह पकडऩी पड़ी। यह भी एक दस्तूर ही है कि पुलिस अफसर हर बार समझौता करते हैं और चेतावनी दे कर छोड़ देते हैं।
सवाल ये उठता है कि पुलिस वाले आखिर पिटते क्यों है? इसका सिर्फ एक ही जवाब हो सकता है। असल में दरगाह परिसर में खादिमों का ही वर्चस्व है, इस कारण जैसे ही कोई पुलिस वाला अपना बाहर वाला मिजाज दिखाने की कोशिश करता है, पिट जाता है। ऐसे में यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि पुलिस वाला गलती पर था या नहीं। उसने बदममीजी की या नहीं। लेकिन इतना तय है कि कानून के रखवालों को ही कानून ताक पर रख कर पीटना बेशक गैर कानूनी और नाजायज है। अगर कोई पुलिस वाला गड़बड़ करता है तो उसकी शिकायत की जा सकती है। कम से कम पुलिस महकमे में तो ऐसी शिकायत पर तुरंत कार्यवाही होती है। उस पर सीधे हाथ छोडऩा तो कत्तई सही नहीं ठहराया जा सकता।
पुलिस के अफसरों के लिए सुकून की बात ये हो सकती है कि उनके मातहत पिटने के बाद भी उनके दबाव में समझौते को मजबूर हो जाते हैं और पिटने वालों के लिए अफसोसनाक बात ये है कि हर बार उन्हें अनुशासन का पाठ पढ़ कर चुप रहने की हिदायत दे दी जाती है। माना कि पुलिस के अफसर विवाद को शांत करने के लिए अपने मातहतों को दबाते हैं, लेकिन आखिर कभी तो इसका अंत होना चाहिए। रविवार को भी जब एक पुलिस वाला खादिमों के हाथों पिटा तो आखिर में समझौता हो गया। दरगाह थाना एसएचओ हनुवंत सिंह ने बड़ी बेशर्मी से कह दिया कि दोनों खादिमों ने माफी मांग ली है और दोबारा गलती करने पर सख्त कार्यवाही की जाएगी। सवाल ये उठता है कि अगर यही पुलिस वाला दरगाह के बाहर पिटता तो क्या पीटने वाले को माफी मांगने पर छोड़ दिया जाता? क्या उसकी थाने पर ला कर धुनाई नहीं की जाती? क्या उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं किया जाता? हनुवंत सिंह के इस बयान पर गौर कीजिए-दोबारा ऐसी गलती करने पर सख्त कार्यवाही की जाएगी। इसका क्या अर्थ निकाला जाए? एक तो ये कि पिटने के बाद भी पुलिस अपनी टांग ऊपर रखने के लिए ऐसी सख्ती की बात कर रही है। दूसरा ये कि क्या यह चेतावनी केवल उन्हीं दोनों खादिमों के लिए है, जिन्होंने पुलिस वाले का पीटा या फिर और खादिमों के लिए भी है। यदि उनका इशारा उन्हीं दोनों खादिमों की ओर है तो अगली बार वे नहीं कोई और खादिम पिटाई करेंगे व माफी मांग कर छूट जाएंगे। और अगली से अगली बार कोई और खादिम पिटाई करेंगे। ये सिलसिला कहीं नहीं थमने वाला है। और अगर वे इस प्रकार की घटना दुबारा दरगाह के अंदर न होने के सिलसिले में कह रहे हैं तो ऐसी घुड़कियां पहले भी पुलिस के अफसर देते रहे हैं और फिर भी पुलिस वाले लगातार पिटते ही रहे हैं। खैर, पीटने वाला जाने, पिटने वाला जाने और समझौता करवाने वाला अफसर जाने, अपुन को केवल इतना ही समझ में आता है कि ऐसी वारदातों से पुलिस वाले डिमोरलाइज होते हैं और खादिमों के हौसले बुलंद होते हैं।
मंत्री महोदय पीटने की कब कह गए थे?
रविवार को केन्द्रीय रोडवेज बस स्टैंड परिसर में एक टैक्सी के घुसने पर रोडवेज कर्मियों ने टैक्सी चालक की पिटाई कर दी। जाहिर तौर पर पिटाई होने पर टैक्सी चालक के हिमायती बन कर अन्य टैक्सी चालक पुलिस थाने पहुंच गए और पीटने वाले रोडवेज कर्मियों के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग करने लगे। इस पर रोडवेज के अधिकारी भी अपने कर्मचारियों के बचाव में खड़े हो गए। वे भी पुलिस थाने पहुंच गए। उनका तर्क था कि टैक्सी चालकों के रोडवेज बस स्टैंड परिसर में घुसना गैर कानूनी है। उन्होंने इस सिलसिले में हाल ही यातायात मंत्री बृजकिशोर शर्मा द्वारा दिए गए निर्देशों का हवाला भी दिया कि निजी वाहन चालकों के रोडवेज की सवारियां ले जाने के खिलाफ सख्ती बरती जाए।
हालांकि यह पूरी तरह से सही है कि ऐसे टैक्सी चालकों के खिलाफ मंत्री महोदय के कहे अनुसार कड़ी से कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए, लेकिन ताजा घटनाक्रम से सवाल ये उठता है कि क्या मंत्री महोदय ये कह कर गए थे कि जैसे ही कोई टैक्सी वाला रोडवेज परिसर के अंदर या बाहर नजर आए तो रोडवेज कर्मचारी उसकी धुनाई शुरू कर दें? क्या रोडवेज अधिकारियों के कहने पर ही रोडवेज कर्मियों ने टैक्सी चालक की पिटाई की? क्या ऐसा करने की उन्होंने ही छूट दे रखी है? माना कि रोडवेज कर्मियों को गुस्सा आ गया और उन्होंने कानून हाथ में ले भी लिया तो, क्या उसे रोडवेज के अधिकारी मंत्री महोदय के निर्देशों का हवाला दे कर जायज ठहरा रहे हैं? क्या ऐसा करके वे रोडवेज कर्मियों को ऐसी और हरकतें करने के लिए उकसा नहीं रहे हैं?
होना तो यह चाहिए कि टैक्सी चालक खिलाफ तो रोडवेज परिसर में घुसने के मामले में कार्यवाही की जाए, साथ ही कानून हाथ में लेकर पिटाई करने वाले रोडवेज कर्मियों के खिलाफ भी मारपीट का मुकदमा दर्ज किया जाए। तभी वास्तविक न्याय हो पाएगा। वैसे लगता यही है कि रोडवेज अधिकारी यातायात पुलिस व परिवहन विभाग को घेर कर अपने कर्मचारियों की हरकत तो छुपाने की कोशिश करेंगे।
सोमवार, 28 फ़रवरी 2011
शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011
बाहेती जी, आपकी तो वैसे ही मान लेते गहलोत साहब
पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती ने चंबल का पानी अजमेर वासियों को पिलाने के लिए पोस्टकार्ड अभियान शुरू कर दिया है। जब तक मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं मिले, तब तक तो ये काम काफी अच्छा है।
वैसे जानकारी ये है कि चंबल को बीसलपुर से जोडऩे की तकनीकी कागजी कवायद तो पूरी हो भी चुकी है। कदाचित सरकार का मानस भी हो, इसे अमली जामा पहनाने का। या फिर डॉ. बाहेती को अपने सूत्रों पता लग गया हो कि सरकार इस दिशा में अगला कदम उठाने जा रही है। शायद इसी कारण अभियान छेड़ दिया है, ताकि जैसे ही सरकार निर्णय करे, उसकी सारी के्रडिट उनके खाते में दर्ज हो जाए।
सब जानते हैं कि डॉ. बाहेती अजमेर के प्रमुख कांग्रेसी नेता हैं। सरकार भी कांग्रेस की है। वो भी अपने गहलोत साहब की। बाहेती जी की गहलोत साहब के दरबर में खूब चलती है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि गहलोत साहब की वजह से बाहेती जी की चवन्नी अजमेर में रुपए में चलती है। अपुन तो ये मानते हैं कि डॉ. बाहेती को तो ये अभियान चलाने की जरूरत ही नहीं है। अगर वे चाहें तो ये व्यक्तिगत रूप से मिल कर भी मांग कर सकते हैं। उनकी मांग पूरी हो जाएगी। ऐसे में पोस्टकार्ड अभियान कुछ जंचा नहीं। ऐसे अभियान तो विपक्षी दल को ही शोभा देते हैं। मगर बाहेती जी समझदार हैं। जानते हंै कि अगर उन्होंने अपने स्तर पर ही चंबल का पानी अजमेर वासियों को पिला दिया तो कौन मानेगा कि यह उन्हीं के करम का फल है। इस कारण ढि़ंढ़ोरा पीटना जरूरी समझा होगा। जैसे बीसलपुर का पानी भूतपूर्व मंत्री किशन मोटवानी की देन है, वैसे ही चंबल का पानी बाहेती जी की देन माना जाएगा। ऐसे में लोग बाहेती जी को दुआएं देंगे।
बहरहाल, बाहेती जी का यह अभियान अच्छा है, मगर इससे पूर्व उप मंत्री ललित भाटी को जरूर तकलीफ हुई होगी। उन्होंने तो अपने विधायकत्व काल में ही इस पर कवायद करवाई थी, जो कि सरकार बदलने पर फाइलों में दफन हो गई। अब बाहेती जी के प्रयासों से अगर फाइलों पर जमा गर्द हटा कर कार्यवाही की गई तो के्रडिट भी उनको ही मिलेगी।
खैर, क्रेडिट किसे भी मिले, अपनी तो भगवान से यही प्रार्थना है कि बाहेती जी की ओर से अब शुरू की गई मुहिम कामयाब हो जाए। कम से कम चंबल का पानी पीने को मिलने से अजमेर वासियों का मिजाज तो बदलेगा। वरना इलायची बाई की गद्दी के लिए विख्यात अजमेरवासी पांच-पांच दिन तक भी पानी नहीं मिलने पर चूं तक नहीं बोलते। विशेष रूप से अजमेर के लिए बनी बीसलपुर परियोजना से अजमेरवासियों की प्यास बुझे न बुझे, जयपुर को पानी का हिस्सा दिए जाने पर भी संतोषी माता की पूजा करते रहते हैं। रेलवे के जोनल मुख्यालय केलिए सर्वाधिक उपयुक्त शहर अजमेर होने पर भी वह जयपुर में खुल जाता है और हम उदार बने रहते हैं। कम से कम चंबल का पानी पीने को मिलने से हमारे खून में भी चंबल के बीहड़ों की बिंदास फितरत उतर आएगी। कोटा वासियों की माफिक हमसे भी लोग खौफ खाएंगे। वैसे बीसलपुर का पानी भी कम नहीं है, बिसलरी की माफिक है। मगर उसने हमारे खून को ठंडा और मीठा कर दिया है। ऐसे में बेहद जरूरी है कि अब चंबल का पानी पीने को मिल जाए, ताकि स्वर्गीय वीरकुमार जैसे नेता भी हमारी जमीन उपजना शुरू कर दे।
या तो संबंध निभा लो, या ठीक से पार्षदी करो
दो पार्षद नगर निगम कर्मियों पर केवल इसी कारण चढ़ बैठे कि उन्होंने अतिक्रमण की शिकायत के मामले में उनके नाम उजागर कर दिए, वो भी अतिक्रमणकारियों को ही। पार्षदों का मानना है कि जब निगम कर्मचारी अतिक्रमण हटाने गए तो उन्होंने अतिक्रमणकारियों को वह शिकायती पत्र दिखा दिया जो उन्होंने लिखा था। यानि कि निगम कर्मियों ने खुद का तो बचाव कर लिया और बला पार्षदों के गले डाल दी। पार्षदों के नाम उजागर होने पर अतिक्रमणकारी उनसे नाराज हो गए। उस नाराजगी को पार्षद बर्दाश्त नहीं कर पाए और नगर निगम कर्मियों पर चढ़ बैठे। असल में पार्षद चाहते थे कि ऊपर से तो वे अतिक्रमणकारियों से मीठे बने रहें और साथ ही उनके खिलाफ कार्यवाही भी करवाना चाहते थे। यानि कि वार तो करना चाहते हैं, लेकिन छुप कर। दूसरी ओर निगम कर्मियों का कहना है कि उन्होंने अपनी ओर से पार्षदों का नाम उजागर नहीं किया है, बल्कि अतिक्रमण के स्थान को लोकेट करने के लिए जब वे पार्षद के लेटरहैड वाला शिकायती पत्र साथ लेकर गए तो किसी ने उसे पढ़ कर अतिक्रमणकारी को बता दिया।
हालांकि यह सही है कि यदि कोई आम आदमी शहर के हित में अतिक्रमण की शिकायत करता है तो उसका नाम गुप्त रखते हुए जांच की जाए और उचित हो तो कार्यवाही भी की जाए, लेकिन यह व्यवस्था पार्षदों पर कैसे लागू की जा सकती है? पार्षद बने हैं, उसका एडवांटेज उठाना चाहते हैं, अच्छे काम की क्रेडिट भी लेना चाहते हैं, लेकिन बुराई नहीं लेना चाहते। अर्थात शिकायत पर कार्यवाही भी चाहते हैं और खुद का नाम भी छिपाना चाहते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है? जहां जरूरत होगी वहां बुरा भी बनना होगा। और शहर के हित में बुरा बनने में हर्ज ही क्या है? कैसी विडंबना है कि अतिक्रमणकारी तो सीना तान कर खड़े हो जाते हैं और शहर का हित चिंतन करने वाले मुंह छिपाना चाहते हैं। सवाल ये भी है कि एक ओर पार्षदों को ये शिकायत रहती है कि उनकी शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती और दूसरी ओर कार्यवाही की जाती है तो इस बात से ऐतराज हो जाता है कि उनका नाम क्यों उजागर कर दिया गया।
इन पार्षदों से तो शहर कांग्रेस के प्रवक्ता महेश ओझा ही बेहतर हैं, जिन्होंने बाकायदा 15 अवैध कॉम्पलैक्सों की सूची जिला कलेक्टर को सौंप कर उनके खिलाफ कार्यवाही करने की मांग की। जाहिर है कॉम्पलैक्स मालिक महेश ओझा से नाराज हो जाएंगे। ऐसे पार्षदों से पिछले मेयर धर्मेन्द्र गहलोत और कुछ अन्य पार्षद ही अच्छे रहे जो अतिक्रमण तोड़ू दस्ते के साथ हो लेते थे और अतिक्रमणकारी के विरोध करने पर खुद ही उलझ जाते थे। हालांकि ऐसा करने से वे बुरे भी बने, लेकिन इससे उनकी बिंदास छवि भी उजागर हुई। एक बार तो ऐसी स्थिति आ गई कि अतिक्रमणकारियों में खौफ व्याप्त हो गया था। जैसे ही गहलोत और उनकी टीम अतिक्रमण हटवाने को निकलती थी तो अतिक्रमणकारी भागते नजर आते थे। यदि वे भी संबंध निभाने का ध्यान देते तो अतिक्रमण कभी हटवा ही नहीं सकते थे।
वैसे जानकारी ये है कि चंबल को बीसलपुर से जोडऩे की तकनीकी कागजी कवायद तो पूरी हो भी चुकी है। कदाचित सरकार का मानस भी हो, इसे अमली जामा पहनाने का। या फिर डॉ. बाहेती को अपने सूत्रों पता लग गया हो कि सरकार इस दिशा में अगला कदम उठाने जा रही है। शायद इसी कारण अभियान छेड़ दिया है, ताकि जैसे ही सरकार निर्णय करे, उसकी सारी के्रडिट उनके खाते में दर्ज हो जाए।
सब जानते हैं कि डॉ. बाहेती अजमेर के प्रमुख कांग्रेसी नेता हैं। सरकार भी कांग्रेस की है। वो भी अपने गहलोत साहब की। बाहेती जी की गहलोत साहब के दरबर में खूब चलती है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि गहलोत साहब की वजह से बाहेती जी की चवन्नी अजमेर में रुपए में चलती है। अपुन तो ये मानते हैं कि डॉ. बाहेती को तो ये अभियान चलाने की जरूरत ही नहीं है। अगर वे चाहें तो ये व्यक्तिगत रूप से मिल कर भी मांग कर सकते हैं। उनकी मांग पूरी हो जाएगी। ऐसे में पोस्टकार्ड अभियान कुछ जंचा नहीं। ऐसे अभियान तो विपक्षी दल को ही शोभा देते हैं। मगर बाहेती जी समझदार हैं। जानते हंै कि अगर उन्होंने अपने स्तर पर ही चंबल का पानी अजमेर वासियों को पिला दिया तो कौन मानेगा कि यह उन्हीं के करम का फल है। इस कारण ढि़ंढ़ोरा पीटना जरूरी समझा होगा। जैसे बीसलपुर का पानी भूतपूर्व मंत्री किशन मोटवानी की देन है, वैसे ही चंबल का पानी बाहेती जी की देन माना जाएगा। ऐसे में लोग बाहेती जी को दुआएं देंगे।
बहरहाल, बाहेती जी का यह अभियान अच्छा है, मगर इससे पूर्व उप मंत्री ललित भाटी को जरूर तकलीफ हुई होगी। उन्होंने तो अपने विधायकत्व काल में ही इस पर कवायद करवाई थी, जो कि सरकार बदलने पर फाइलों में दफन हो गई। अब बाहेती जी के प्रयासों से अगर फाइलों पर जमा गर्द हटा कर कार्यवाही की गई तो के्रडिट भी उनको ही मिलेगी।
खैर, क्रेडिट किसे भी मिले, अपनी तो भगवान से यही प्रार्थना है कि बाहेती जी की ओर से अब शुरू की गई मुहिम कामयाब हो जाए। कम से कम चंबल का पानी पीने को मिलने से अजमेर वासियों का मिजाज तो बदलेगा। वरना इलायची बाई की गद्दी के लिए विख्यात अजमेरवासी पांच-पांच दिन तक भी पानी नहीं मिलने पर चूं तक नहीं बोलते। विशेष रूप से अजमेर के लिए बनी बीसलपुर परियोजना से अजमेरवासियों की प्यास बुझे न बुझे, जयपुर को पानी का हिस्सा दिए जाने पर भी संतोषी माता की पूजा करते रहते हैं। रेलवे के जोनल मुख्यालय केलिए सर्वाधिक उपयुक्त शहर अजमेर होने पर भी वह जयपुर में खुल जाता है और हम उदार बने रहते हैं। कम से कम चंबल का पानी पीने को मिलने से हमारे खून में भी चंबल के बीहड़ों की बिंदास फितरत उतर आएगी। कोटा वासियों की माफिक हमसे भी लोग खौफ खाएंगे। वैसे बीसलपुर का पानी भी कम नहीं है, बिसलरी की माफिक है। मगर उसने हमारे खून को ठंडा और मीठा कर दिया है। ऐसे में बेहद जरूरी है कि अब चंबल का पानी पीने को मिल जाए, ताकि स्वर्गीय वीरकुमार जैसे नेता भी हमारी जमीन उपजना शुरू कर दे।
या तो संबंध निभा लो, या ठीक से पार्षदी करो
दो पार्षद नगर निगम कर्मियों पर केवल इसी कारण चढ़ बैठे कि उन्होंने अतिक्रमण की शिकायत के मामले में उनके नाम उजागर कर दिए, वो भी अतिक्रमणकारियों को ही। पार्षदों का मानना है कि जब निगम कर्मचारी अतिक्रमण हटाने गए तो उन्होंने अतिक्रमणकारियों को वह शिकायती पत्र दिखा दिया जो उन्होंने लिखा था। यानि कि निगम कर्मियों ने खुद का तो बचाव कर लिया और बला पार्षदों के गले डाल दी। पार्षदों के नाम उजागर होने पर अतिक्रमणकारी उनसे नाराज हो गए। उस नाराजगी को पार्षद बर्दाश्त नहीं कर पाए और नगर निगम कर्मियों पर चढ़ बैठे। असल में पार्षद चाहते थे कि ऊपर से तो वे अतिक्रमणकारियों से मीठे बने रहें और साथ ही उनके खिलाफ कार्यवाही भी करवाना चाहते थे। यानि कि वार तो करना चाहते हैं, लेकिन छुप कर। दूसरी ओर निगम कर्मियों का कहना है कि उन्होंने अपनी ओर से पार्षदों का नाम उजागर नहीं किया है, बल्कि अतिक्रमण के स्थान को लोकेट करने के लिए जब वे पार्षद के लेटरहैड वाला शिकायती पत्र साथ लेकर गए तो किसी ने उसे पढ़ कर अतिक्रमणकारी को बता दिया।
हालांकि यह सही है कि यदि कोई आम आदमी शहर के हित में अतिक्रमण की शिकायत करता है तो उसका नाम गुप्त रखते हुए जांच की जाए और उचित हो तो कार्यवाही भी की जाए, लेकिन यह व्यवस्था पार्षदों पर कैसे लागू की जा सकती है? पार्षद बने हैं, उसका एडवांटेज उठाना चाहते हैं, अच्छे काम की क्रेडिट भी लेना चाहते हैं, लेकिन बुराई नहीं लेना चाहते। अर्थात शिकायत पर कार्यवाही भी चाहते हैं और खुद का नाम भी छिपाना चाहते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है? जहां जरूरत होगी वहां बुरा भी बनना होगा। और शहर के हित में बुरा बनने में हर्ज ही क्या है? कैसी विडंबना है कि अतिक्रमणकारी तो सीना तान कर खड़े हो जाते हैं और शहर का हित चिंतन करने वाले मुंह छिपाना चाहते हैं। सवाल ये भी है कि एक ओर पार्षदों को ये शिकायत रहती है कि उनकी शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती और दूसरी ओर कार्यवाही की जाती है तो इस बात से ऐतराज हो जाता है कि उनका नाम क्यों उजागर कर दिया गया।
इन पार्षदों से तो शहर कांग्रेस के प्रवक्ता महेश ओझा ही बेहतर हैं, जिन्होंने बाकायदा 15 अवैध कॉम्पलैक्सों की सूची जिला कलेक्टर को सौंप कर उनके खिलाफ कार्यवाही करने की मांग की। जाहिर है कॉम्पलैक्स मालिक महेश ओझा से नाराज हो जाएंगे। ऐसे पार्षदों से पिछले मेयर धर्मेन्द्र गहलोत और कुछ अन्य पार्षद ही अच्छे रहे जो अतिक्रमण तोड़ू दस्ते के साथ हो लेते थे और अतिक्रमणकारी के विरोध करने पर खुद ही उलझ जाते थे। हालांकि ऐसा करने से वे बुरे भी बने, लेकिन इससे उनकी बिंदास छवि भी उजागर हुई। एक बार तो ऐसी स्थिति आ गई कि अतिक्रमणकारियों में खौफ व्याप्त हो गया था। जैसे ही गहलोत और उनकी टीम अतिक्रमण हटवाने को निकलती थी तो अतिक्रमणकारी भागते नजर आते थे। यदि वे भी संबंध निभाने का ध्यान देते तो अतिक्रमण कभी हटवा ही नहीं सकते थे।
गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011
कांग्रेस को ही नहीं अपने मेयर पर भरोसा
नगर निगम के मेयर पद काबिज कांग्रेस के कमल बाकोलिया और शहर कांग्रेस संगठन के बीच तालमेल की कमी अब खुल कर सामने आने लगी है। हाल ही कथित वीआईपी जनगणना में कांग्रेसी वीआईपीयों की प्रतिष्ठा का ख्याल रखने से चूके बाकोलिया पर सीधे हमला करने से बची कांग्रेस अवैध कॉम्पलैक्सों के मामले में खुल कर सामने आ गई है। उसने जता दिया है कि उसे अपने ही मेयर पर भरोसा नहीं रहा है।
शहर कांग्रेस के प्रवक्ता महेश ओझा ने अपनी ही पार्टी का मेयर होते हुए भी जिला कलेक्टर को पत्र लिख कर 15 अवैध कॉम्पलैक्सों की सूची देते हुए कार्यवाही की मांग की है। इस पर जिला कलेक्टर ने भी बाकायदा निगम सीईओ को आगामी 8 मार्च तक कार्यवाही करने को पाबंद किया है। इस नए घटनाक्रम से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है कि या तो शहर कांग्रेस को अपने मेयर पर कार्यवाही करने का विश्वास नहीं है, या फिर वह अपने मेयर को कुछ नहीं कहना चाहती और सीधे जिला कलेक्टर को हस्तक्षेप करने को कह रही है।
आपको याद होगा कि नगर निगम चुनाव में इसी कांग्रेस के अध्यक्ष जसराज जयपाल ने जोर दे कर कहा था कि भाजपा राज में कॉम्पलैक्स कुकुतमुत्तों की तरह उग आए हैं, जिससे शहर की यातायात तो चौपट हुई ही है, निगम को भी आर्थिक नुकसान हुआ है। उन्होंने इस मामले में भाजपा बोर्ड पर भारी भ्रष्टाचार करने का भी आरोप लगाया था। उन्होंने आश्वासन दिया था कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो इस मामले में कार्यवाही करेगी। कदाचित स्वयं प्रवक्ता महेश ओझा ने भी इसी आशय के बयान दे कर जनता से कांग्रेस को वोट देने की अपील की होगी। मेयर बाकोलिया ने भी वोट लेने की खातिर कुछ इसी प्रकार की मंशा जाहिर की थी, हालांकि उस वक्त उन्हें शहर की एबीसीडी भी पता नहीं थी, क्योंकि वे उस वक्त सक्रिय राजनीति में नए-नए आए थे।
ऐसा नहीं है कि मेयर अपने और कांग्रेस की ओर से किए गए वादे भूल गए। उन्होंने तो तकरीबन डेढ़ माह पहले ही अवैध कॉम्पलैक्सों के खिलाफ ताबड़तोड़ अभियान शुरू करवाया था, मगर एक समाज विशेष के लोगों के कॉम्पलैक्सों पर कथित रूप से निशाना साधने के आरोप की वजह से उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। भाजपाइयों ने भी उन पर व्यापारियों को परेशान करने का आरोप लगाया और ऐसे में वे कुछ नरम पड़ गए। उसके बाद कार्यवाही लगभग ठप सी पड़ी है। मेयर की यह चुप्पी कांग्रेस को खलने लगी। उसने न तो मेयर पर और न ही सीईओ पर भरोसा किया और सीधे कलेक्टर को ही पत्र लिख कर कार्यवाही की मांग कर दी। कदाचित जिला कलेक्टर पहले अवैध कॉम्पलैक्सों की सूची बनाने को कहती, इस कारण ओझा ने उनका काम आसान कर दिया और 15 कॉम्पलैक्सों को चिन्हित कर मांग कर दी। हालांकि शहरभर में अवैध कॉम्पलैक्सों की भरमार है, लेकिन उन्होंने किन 15 को निशाने पर लिया है और क्यों, इसका खुलासा नहीं हो पाया है।
बहरहाल, मेयर को हो न हो, कांग्रेस को तो अपने वादे की याद है। वह जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को समझती है, इस कारण मेयर को हाशिये पर रख कर सीधे प्रशासन के जरिए चुनाव से पहले किए गए वादे को पूरा करवाने को आतुर है।
शहर कांग्रेस के प्रवक्ता महेश ओझा ने अपनी ही पार्टी का मेयर होते हुए भी जिला कलेक्टर को पत्र लिख कर 15 अवैध कॉम्पलैक्सों की सूची देते हुए कार्यवाही की मांग की है। इस पर जिला कलेक्टर ने भी बाकायदा निगम सीईओ को आगामी 8 मार्च तक कार्यवाही करने को पाबंद किया है। इस नए घटनाक्रम से यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है कि या तो शहर कांग्रेस को अपने मेयर पर कार्यवाही करने का विश्वास नहीं है, या फिर वह अपने मेयर को कुछ नहीं कहना चाहती और सीधे जिला कलेक्टर को हस्तक्षेप करने को कह रही है।
आपको याद होगा कि नगर निगम चुनाव में इसी कांग्रेस के अध्यक्ष जसराज जयपाल ने जोर दे कर कहा था कि भाजपा राज में कॉम्पलैक्स कुकुतमुत्तों की तरह उग आए हैं, जिससे शहर की यातायात तो चौपट हुई ही है, निगम को भी आर्थिक नुकसान हुआ है। उन्होंने इस मामले में भाजपा बोर्ड पर भारी भ्रष्टाचार करने का भी आरोप लगाया था। उन्होंने आश्वासन दिया था कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो इस मामले में कार्यवाही करेगी। कदाचित स्वयं प्रवक्ता महेश ओझा ने भी इसी आशय के बयान दे कर जनता से कांग्रेस को वोट देने की अपील की होगी। मेयर बाकोलिया ने भी वोट लेने की खातिर कुछ इसी प्रकार की मंशा जाहिर की थी, हालांकि उस वक्त उन्हें शहर की एबीसीडी भी पता नहीं थी, क्योंकि वे उस वक्त सक्रिय राजनीति में नए-नए आए थे।
ऐसा नहीं है कि मेयर अपने और कांग्रेस की ओर से किए गए वादे भूल गए। उन्होंने तो तकरीबन डेढ़ माह पहले ही अवैध कॉम्पलैक्सों के खिलाफ ताबड़तोड़ अभियान शुरू करवाया था, मगर एक समाज विशेष के लोगों के कॉम्पलैक्सों पर कथित रूप से निशाना साधने के आरोप की वजह से उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा। भाजपाइयों ने भी उन पर व्यापारियों को परेशान करने का आरोप लगाया और ऐसे में वे कुछ नरम पड़ गए। उसके बाद कार्यवाही लगभग ठप सी पड़ी है। मेयर की यह चुप्पी कांग्रेस को खलने लगी। उसने न तो मेयर पर और न ही सीईओ पर भरोसा किया और सीधे कलेक्टर को ही पत्र लिख कर कार्यवाही की मांग कर दी। कदाचित जिला कलेक्टर पहले अवैध कॉम्पलैक्सों की सूची बनाने को कहती, इस कारण ओझा ने उनका काम आसान कर दिया और 15 कॉम्पलैक्सों को चिन्हित कर मांग कर दी। हालांकि शहरभर में अवैध कॉम्पलैक्सों की भरमार है, लेकिन उन्होंने किन 15 को निशाने पर लिया है और क्यों, इसका खुलासा नहीं हो पाया है।
बहरहाल, मेयर को हो न हो, कांग्रेस को तो अपने वादे की याद है। वह जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को समझती है, इस कारण मेयर को हाशिये पर रख कर सीधे प्रशासन के जरिए चुनाव से पहले किए गए वादे को पूरा करवाने को आतुर है।
बुधवार, 23 फ़रवरी 2011
यानि प्रशासन ने मान लिया है कि नगर निगम नकारा है
जिला प्रशासन ने हाल ही अजमेर शहर की सफाई व्यवस्था को सुचारू बनाने तथा उस पर पूरी निगरानी रखने के साथ-साथ सडक़ों के रख-रखाव के बारे में पूरी नजर रखने हेतु 9 अतिरिक्त प्रशासनिक अधिकारियों को जिम्मेदारी दी है, जो प्रत्येक सप्ताह में 2 बार अपने क्षेत्र का भ्रमण करके जिला कलेक्टर रिपोर्ट देंगेे। प्रशासन पहली बार जिस तरह शहर के विभिन्न प्रमुख क्षेत्रों को 9 भागों में बांट कर उनकी निगरानी करने जा रहा है, उससे यह प्रतीत होता है कि वह अजमेर में सफाई के मुद्दे के प्रति कितना गंभीर है। इस दृष्टि से जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल की यह पहल काफी सराहनीय है।
प्रशासन के इस कदम से यह भी पूरी तरह से सिद्ध हो गया है कि जिस कार्य पर निगरानी के लिए अतिरिक्त अधिकारियों को तैनात करना पड़ा है, उसमें नगर निगम पूरी तरह से नकारा साबित हो रहा है, जबकि यह काम केवल नगर निगम का ही है। कम से कम जिला प्रशासन का तो नहीं है। इससे दो बातें उभर कर सामने आती हैं। एक तो ये कि या तो निगम के पास मौजूदा जो भी संसाधन व नफरी है, वह अपना काम अंजाम देने के लिए नाकाफी है, या फिर है तो काफी, मगर लापरवाह होने के कारण ठीक से सफाई नहीं हो पा रही। वरना प्रशासन को अपनी ओर से अधिकारियों की इतनी बड़ी फोर्स क्यों तैनात करनी पड़ती? अगर प्रशासन मानता है कि जितना बड़ा शहर है, निगम में उसके अनुरूप पर्याप्त अधिकारी नहीं हैं तो राज्य सरकार को सूचित कर अतिरिक्त अधिकारियों की नियुक्ति करानी चाहिए। और अगर वह मानता है कि अधिकारी तो पर्याप्त हैं, मगर कामचोर हैं तो ऐसे कामचोर अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करनी चाहिए।
जिला कलेक्टर ने जिस तरह से आदेश जारी किए हैं, उससे यह भी साफ है कि नई व्यवस्था एक अस्थाई अभियान का रूप है। तो सवाल ये उठता है कि यह व्यवस्था आखिर कब तक रहेगी? जब तक अतिरिक्त अधिकारी निगरानी करेंगे, व्यवस्था पटरी पर रहेगी और जैसे ही उन्हें हटाया जाएगा, शहर फिर से सडऩे लगेगा। अर्थात मौजूदा कदम शहर की गंदगी की समस्या का स्थाई समाधान नहीं करने वाला। इतना ही नहीं, सप्ताह में दो दिन जब प्रशासनिक अधिकारी सफाई इत्यादि के निरीक्षण में लगाएंगे तो उन दो दिन उनके मौलिक कार्य का क्या होगा? जाहिर है आम जनता को उन कार्यों से वंचित रहना होगा। एक ओर शहर की सफाई तो ठीक हो जाएगी, मगर दूसरी ओर जनता को अन्य कार्यों का हर्जाना होगा। यानि एक तकलीफ दूर होगी तो दूसरी भुगतनी पड़ेगी।
प्रशासन के इस कदम से यह भी पूरी तरह से सिद्ध हो गया है कि जिस कार्य पर निगरानी के लिए अतिरिक्त अधिकारियों को तैनात करना पड़ा है, उसमें नगर निगम पूरी तरह से नकारा साबित हो रहा है, जबकि यह काम केवल नगर निगम का ही है। कम से कम जिला प्रशासन का तो नहीं है। इससे दो बातें उभर कर सामने आती हैं। एक तो ये कि या तो निगम के पास मौजूदा जो भी संसाधन व नफरी है, वह अपना काम अंजाम देने के लिए नाकाफी है, या फिर है तो काफी, मगर लापरवाह होने के कारण ठीक से सफाई नहीं हो पा रही। वरना प्रशासन को अपनी ओर से अधिकारियों की इतनी बड़ी फोर्स क्यों तैनात करनी पड़ती? अगर प्रशासन मानता है कि जितना बड़ा शहर है, निगम में उसके अनुरूप पर्याप्त अधिकारी नहीं हैं तो राज्य सरकार को सूचित कर अतिरिक्त अधिकारियों की नियुक्ति करानी चाहिए। और अगर वह मानता है कि अधिकारी तो पर्याप्त हैं, मगर कामचोर हैं तो ऐसे कामचोर अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करनी चाहिए।
जिला कलेक्टर ने जिस तरह से आदेश जारी किए हैं, उससे यह भी साफ है कि नई व्यवस्था एक अस्थाई अभियान का रूप है। तो सवाल ये उठता है कि यह व्यवस्था आखिर कब तक रहेगी? जब तक अतिरिक्त अधिकारी निगरानी करेंगे, व्यवस्था पटरी पर रहेगी और जैसे ही उन्हें हटाया जाएगा, शहर फिर से सडऩे लगेगा। अर्थात मौजूदा कदम शहर की गंदगी की समस्या का स्थाई समाधान नहीं करने वाला। इतना ही नहीं, सप्ताह में दो दिन जब प्रशासनिक अधिकारी सफाई इत्यादि के निरीक्षण में लगाएंगे तो उन दो दिन उनके मौलिक कार्य का क्या होगा? जाहिर है आम जनता को उन कार्यों से वंचित रहना होगा। एक ओर शहर की सफाई तो ठीक हो जाएगी, मगर दूसरी ओर जनता को अन्य कार्यों का हर्जाना होगा। यानि एक तकलीफ दूर होगी तो दूसरी भुगतनी पड़ेगी।
ये बाकोलिया को भी है घेरने की कोशिश
वीआईपी जनगणना का मुद्दा जितना उछला है और कांग्रेसी नेता जितना चिल्लाए हैं, उससे प्रतीत तो यह हो रहा है कि कांग्रेस के नेता निगम में बैठे भाजपा मानसिकता के अधिकारियों पर निशाना बना रहे हैं, जबकि सच्चाई ये है कि ऐसा करके मेयर कमल बाकोलिया को भी घेरने की कोशिश की जा रही है।
कांग्रेसी नेता भले ही वे साफ तौर पर बाकोलिया पर हमला नहीं कर रहे, लेकिन उनके आरोप लगाने के ढ़ंग से यह सवाल तो उठ ही रहा है न कि मेयर बाकोलिया निगम में बैठे-बैठे क्या केवल कुर्सी तोड़ रहे हैं? जिस कुर्सी पर बैठे हैं, उसके नीचे हो क्या रहा है, उसका उन्हें होश ही नहीं। कांग्रेसियों के हितों का ध्यान ही नहीं रख सकते तो कुर्सी पर बैठने का मतलब ही क्या है? वे जीते तो कांग्रेस के बैनर पर और कांग्रेसी नेताओं की मदद से हैं, मगर उनकी ही प्रतिष्ठा का कोई ध्यान नहीं रख रहे। ऐसे में बुरा तो लगेगा ही। अधिकारी तो चलो अधिकारी हैं, राज के पूत हैं, जिसका राज आएगा, उसी के पूत हो जाएंगे, गलती होगी तो सीईओ मीणा की तरह माफी मांग लेंगे, मगर बाकोलिया तो कांग्रेसी हैं, कम से कम उन्हें तो ध्यान रखना ही होगा कि उनके रहते कांग्रेसी वीआईपीयों की अवमानना न हो।
कदाचित खुद बाकोलिया को भी यह अहसास हो गया है कि भले ही लापरवाही या बदमाशी निचले स्तर पर हुई है, मगर उनकी भी कोई तो जिम्मेदारी है ही। यही वजह है कि जैसे ही विधायक पति इंसाफ अली के बाद डेयरी सदर रामचंद्र चौधरी, शहर कांग्रेस अध्यक्ष जसराज जयपाल, शहर महामंत्री महेश ओझा ने हल्ला मचाया तो उन्हें लगा कि मामला तूल पकड़ रहा है और अब उन तक भी आंच आ रही है। इस पर उन्हें यह कहना पड़ा कि सीईओ मीणा के गलती मान लेने के बाद इतना बड़ा मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए।
बहरहाल, शिकायत भले ही जिला कलेक्टर से होती हुई मुख्यमंत्री तक जाए, मगर इंसाफ अली को तो धन्यवाद देना ही होगा कि उन्होंने मुद्दे की शुरुआत कर कम से कम रामचंद्र चौधरी, जसराज जयपाल सहित अन्य पूर्व विधायकों को तो उनके वीआईपी होने का अहसास करवा दिया, वरना वे तो भूल ही गए थे कि वे भी शहर के वीआईपी हैं।
क्या यही है कांग्रेस राज की कड़ी से कड़ी?
ऐसा प्रतीत होता है कि कड़ी से कड़ी जोड़ कर विकास करने के नाम पर वोट मांगने वाली कांग्रेस के राज में अजमेर निगम व स्वायत्तशासन निदेशालय बीच ही तालमेल नहीं है। एक ओर अजमेर नगर निगम सफाई का नया ठेका करने की कवायद में जुटा था, निविदा की शर्तें तय कर ली थीं और निविदाएं जारी की ही जानी थीं कि दूसरी ओर निदेशालय ने कुछ बड़े शहरों के साथ अजमेर के लिए भी निविदाएं मांग लीं। अफसोसनाक बात ये है कि निगम के अधिकारियों को भी तब पता लगा जब कि इस बाबत एक विज्ञापन अखबारों में छपा। इस पर अधिकारी असमंजस में पड़ गए। उन्होंने निदेशालय से पता किया तो मालूम पड़ा कि उनके स्तर पर जो निविदाएं मांगी गई हैं, उनमें अजमेर का नाम भी शामिल है। तब जा कर अजमेर के अधिकारियों ने नए प्रस्तावित ठेके की फाइल को बंद कर दिया।
सवाल ये उठता है कि क्या निगम व निदेशालय के अधिकारियों के बीच तालमेल नहीं है? तभी तो एक ओर निगम अपने स्तर पर तैयारी कर रहा था और दूसरी निदेशालय ने अपने स्तर पर निविदाएं मांग भी लीं। साफ है कि जयपुर के अधिकारियों ने अजमेर के अधिकारियों को हवा तक न लगने दी। इससे भी बड़ा सवाल ये कि जयपुर के अधिकारियों को वहीं बैठे-बैठे कैसे पता लग गया कि अजमेर में सफाई के लिए कितने संसाधनों की जरूरत है? निगम के सीईओ सी. आर. मीणा के बयान से तो यह भी खुलासा हो रहा है कि जयपुर के अफसरों को वाकई नहीं पता कि अजमेर में वार्डवार कितना कचरा उठाए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा है कि वे शहर के वार्डों में कचरे के आकलन की रिपोर्ट बनवा रहे हैं। अर्थात यह साफ है कि अभी न तो निदेशालय को पता है कि प्रतिदिन कहां कितना कचरा उठवाना है और न ही निविदाएं भरने वाले ठेकेदारों को। ऐसे में स्वीकृत निविदा का क्या हश्र होना है, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
पूर्व मेयर धमेन्द्र गहलोत सही ही तो कह रहे हैं कि जयपुर बैठे-बैठे कैसे आकलन किया जा सकता है कि अजमेर की गलियां कितनी संकरी हैं और उनसे कचरा उठाने में क्या-क्या परेशानी आती है। उन्होंने तो अपने कार्यकाल में ऐसी कोशिश का विरोध भी किया था। मौजूदा मेयर कमल बाकोलिया भी कह रहे हैं कि सफाई ठेका छोडऩे से पहले अजमेर की भौगोलिक स्थिति समझ ली जाएगी, जिसकी कि रिपोर्ट तैयार की जा रही है। मगर उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि अजमेर की रिपोर्ट को जाने बिना ही निविदाएं कैसे आमंत्रित कर ली गईं। उनके पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं होगा कि क्या कड़ी से कड़ी जोड़ कर विकास करना इसी चिडिय़ा का नाम है।
बहरहाल, ठेका अजमेर में छूटे या जयपुर में, सफाई तो अजमेर में होनी ही है, सो होगी, मगर बंदरबांट पर तो निदेशालय ने हाथ मार लिया है। अपने पुराने मेयर गहलोत ने तो अजमेर का हक नहीं मारने दिया, मगर नए मेयर बाकोलिया इसमें फिसड्डी रह गए। भइया, जब कड़ी से कड़ी जुड़ी होगी तो हर कड़ी अपना अलग हिस्सा लेगी ही।
सवाल ये उठता है कि क्या निगम व निदेशालय के अधिकारियों के बीच तालमेल नहीं है? तभी तो एक ओर निगम अपने स्तर पर तैयारी कर रहा था और दूसरी निदेशालय ने अपने स्तर पर निविदाएं मांग भी लीं। साफ है कि जयपुर के अधिकारियों ने अजमेर के अधिकारियों को हवा तक न लगने दी। इससे भी बड़ा सवाल ये कि जयपुर के अधिकारियों को वहीं बैठे-बैठे कैसे पता लग गया कि अजमेर में सफाई के लिए कितने संसाधनों की जरूरत है? निगम के सीईओ सी. आर. मीणा के बयान से तो यह भी खुलासा हो रहा है कि जयपुर के अफसरों को वाकई नहीं पता कि अजमेर में वार्डवार कितना कचरा उठाए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा है कि वे शहर के वार्डों में कचरे के आकलन की रिपोर्ट बनवा रहे हैं। अर्थात यह साफ है कि अभी न तो निदेशालय को पता है कि प्रतिदिन कहां कितना कचरा उठवाना है और न ही निविदाएं भरने वाले ठेकेदारों को। ऐसे में स्वीकृत निविदा का क्या हश्र होना है, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
पूर्व मेयर धमेन्द्र गहलोत सही ही तो कह रहे हैं कि जयपुर बैठे-बैठे कैसे आकलन किया जा सकता है कि अजमेर की गलियां कितनी संकरी हैं और उनसे कचरा उठाने में क्या-क्या परेशानी आती है। उन्होंने तो अपने कार्यकाल में ऐसी कोशिश का विरोध भी किया था। मौजूदा मेयर कमल बाकोलिया भी कह रहे हैं कि सफाई ठेका छोडऩे से पहले अजमेर की भौगोलिक स्थिति समझ ली जाएगी, जिसकी कि रिपोर्ट तैयार की जा रही है। मगर उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि अजमेर की रिपोर्ट को जाने बिना ही निविदाएं कैसे आमंत्रित कर ली गईं। उनके पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं होगा कि क्या कड़ी से कड़ी जोड़ कर विकास करना इसी चिडिय़ा का नाम है।
बहरहाल, ठेका अजमेर में छूटे या जयपुर में, सफाई तो अजमेर में होनी ही है, सो होगी, मगर बंदरबांट पर तो निदेशालय ने हाथ मार लिया है। अपने पुराने मेयर गहलोत ने तो अजमेर का हक नहीं मारने दिया, मगर नए मेयर बाकोलिया इसमें फिसड्डी रह गए। भइया, जब कड़ी से कड़ी जुड़ी होगी तो हर कड़ी अपना अलग हिस्सा लेगी ही।
ये वीआईपी जनगणना होती क्या है?
पुष्कर की कांग्रेस विधायक और अजमेर की निवासी श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ के पति इंसाफ अली ने घर आए जनगणना प्रगणक को भगाया तो बड़ी खबर बन गई। अखबारों में मुद्दा बना तो नगर निगम के सीईओ सी. आर. मीणा तक को सफाई देनी पड़ गई।
असल में देखा जाए तो इंसाफ अली ने प्रगणक को भगा कर क्या गलत कर दिया? नगर निगम में कांग्रेस का मेयर होने के बावजूद अगर भाजपा की जिला प्रमुख व दोनों भाजपा विधायकों को, यहां तक कि अफसरों तक तो जनगणना में वीआईपी ट्रीटमेंट देंगे और पिछले तीस साल से पंचशील में रह रही पुष्कर की कांग्रेस विधायक को नजरअंदाज करेंगे तो भला इसे कैसे बर्दाश्त किया जाएगा? माना कि जनगणना राष्ट्रीय कार्यक्रम है और उसमें भाग लेना हर नागरिक का कर्तव्य है और जनप्रतिनिधियों की तो उससे भी बड़ी जिम्मेदारी है, मगर इसका मतलब ये भी तो नहीं कि कुछ को तो आप वीआईपी मानेंगे और कुछ को आप भेड़-बकरियों की तरह गिनेंगे। विशेष रूप से तब जब कि केन्द्र और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है, निगम में मेयर कांग्रेस का है और शहरी सीमा में कांग्रेस की विधायक एक ही हैं। केवल उस इकलौती विधायक को ही नजरअंदाज करेंगे तो गुस्सा आएगा ही। माना कि विधायक महोदया श्रीमती इंसाफ को तो अपनी मर्यादा का ख्याल रखना है, विशेष रूप से विधानसभा सत्र के चलने के दौरान, इस कारण सार्वजनिक रूप से गुस्से का इजहार नहीं कर सकतीं, मगर उनके पति जनाब इंसाफ अली तो इसे मुद्दा बना ही सकते हैं। वे निगम प्रशासन के रवैये पर भी सवाल खड़ा कर सकते हैं। अधिकारी अगर विपक्षी दलों के नेताओं को तो राजी रखने के लिए उन्हें ज्यादा तवज्जो देंगे और कांग्रेसी नेताओं को इस कारण नजरअंदाज कर देंगे कि वे तो अपनी सरकार के होते हुए विरोध नहीं दर्ज करवा नहीं सकते, तो ऐसे में प्रगणक को भगा कर ही ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। उन्होंने तो एक कदम आगे बढ़ कर इसे अधिकारियों का भाजपा पे्रम तक करार दे दिया। यह रवैया मेयर कमल बाकोलिया को भी इशारा है कि कहीं वे केवल हंगामा करने वालों भाजपाइयों को ही याद न रखें। हम कांग्रेसी हैं तो इसका मतलब ये भी नहीं कि चुप ही रहेंगे।
बहरहाल, गुस्से का इजहार हो गया और अखबारों में छप भी गया। निगम के सीईओ सी.आर. मीणा को भी गलती का अहसास हो गया है। ज्यादा अहसास इस वजह से हुआ कि मामूली सी लापरवाही ने उन्हें भाजपा के खेमे में ला खड़ा कर दिया। आखिरकार उन्हें मानना ही पड़ा कि गलती से श्रीमती इंसाफ को वीआईपी जनगणना में शामिल नहीं किया गया, मगर सवाल ये उठता है कि ये वीआईपी जनगणना क्या होती है? जनगणना तो जनगणना है। उसमें कैटेगिरी का तो कोई प्रावधान ही नहीं है। जनगणना की प्रक्रिया में ये तो कहीं नहीं लिखा गया कि पहले वीआईपी की जनगणना की जाएगी। या फिर अलग से की जाएगी। जनगणना इस बात की भी नहीं हो रही कि कितने आम लोग हैं और कितने खास। ऐसा भी नहीं कि वीआईपी का जनगणना फार्म अलग से छपवाया गया हो। अलबत्ता निगम के प्रथम नागरिक होने के नाते सिंबोलिक रूप से मेयर कमल बाकोलिया से जनगणना शुरू की जाए, यह तो फिर भी समझ में आ जाता, मगर सारे जनप्रतिनिधियों व अफसरों को भी वीआईपी मान कर जनगणना करना हमारी मानसिकता को उजागर करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जनगणना जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रम में वीआईपी को खुश करने का फंडा निकाल लिया गया। इस मानसिकता को क्या नाम दिया जाए, अपुन को तो समझ में नहीं आता, आप ही नामकरण कर दीजिएगा।
असल में देखा जाए तो इंसाफ अली ने प्रगणक को भगा कर क्या गलत कर दिया? नगर निगम में कांग्रेस का मेयर होने के बावजूद अगर भाजपा की जिला प्रमुख व दोनों भाजपा विधायकों को, यहां तक कि अफसरों तक तो जनगणना में वीआईपी ट्रीटमेंट देंगे और पिछले तीस साल से पंचशील में रह रही पुष्कर की कांग्रेस विधायक को नजरअंदाज करेंगे तो भला इसे कैसे बर्दाश्त किया जाएगा? माना कि जनगणना राष्ट्रीय कार्यक्रम है और उसमें भाग लेना हर नागरिक का कर्तव्य है और जनप्रतिनिधियों की तो उससे भी बड़ी जिम्मेदारी है, मगर इसका मतलब ये भी तो नहीं कि कुछ को तो आप वीआईपी मानेंगे और कुछ को आप भेड़-बकरियों की तरह गिनेंगे। विशेष रूप से तब जब कि केन्द्र और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है, निगम में मेयर कांग्रेस का है और शहरी सीमा में कांग्रेस की विधायक एक ही हैं। केवल उस इकलौती विधायक को ही नजरअंदाज करेंगे तो गुस्सा आएगा ही। माना कि विधायक महोदया श्रीमती इंसाफ को तो अपनी मर्यादा का ख्याल रखना है, विशेष रूप से विधानसभा सत्र के चलने के दौरान, इस कारण सार्वजनिक रूप से गुस्से का इजहार नहीं कर सकतीं, मगर उनके पति जनाब इंसाफ अली तो इसे मुद्दा बना ही सकते हैं। वे निगम प्रशासन के रवैये पर भी सवाल खड़ा कर सकते हैं। अधिकारी अगर विपक्षी दलों के नेताओं को तो राजी रखने के लिए उन्हें ज्यादा तवज्जो देंगे और कांग्रेसी नेताओं को इस कारण नजरअंदाज कर देंगे कि वे तो अपनी सरकार के होते हुए विरोध नहीं दर्ज करवा नहीं सकते, तो ऐसे में प्रगणक को भगा कर ही ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। उन्होंने तो एक कदम आगे बढ़ कर इसे अधिकारियों का भाजपा पे्रम तक करार दे दिया। यह रवैया मेयर कमल बाकोलिया को भी इशारा है कि कहीं वे केवल हंगामा करने वालों भाजपाइयों को ही याद न रखें। हम कांग्रेसी हैं तो इसका मतलब ये भी नहीं कि चुप ही रहेंगे।
बहरहाल, गुस्से का इजहार हो गया और अखबारों में छप भी गया। निगम के सीईओ सी.आर. मीणा को भी गलती का अहसास हो गया है। ज्यादा अहसास इस वजह से हुआ कि मामूली सी लापरवाही ने उन्हें भाजपा के खेमे में ला खड़ा कर दिया। आखिरकार उन्हें मानना ही पड़ा कि गलती से श्रीमती इंसाफ को वीआईपी जनगणना में शामिल नहीं किया गया, मगर सवाल ये उठता है कि ये वीआईपी जनगणना क्या होती है? जनगणना तो जनगणना है। उसमें कैटेगिरी का तो कोई प्रावधान ही नहीं है। जनगणना की प्रक्रिया में ये तो कहीं नहीं लिखा गया कि पहले वीआईपी की जनगणना की जाएगी। या फिर अलग से की जाएगी। जनगणना इस बात की भी नहीं हो रही कि कितने आम लोग हैं और कितने खास। ऐसा भी नहीं कि वीआईपी का जनगणना फार्म अलग से छपवाया गया हो। अलबत्ता निगम के प्रथम नागरिक होने के नाते सिंबोलिक रूप से मेयर कमल बाकोलिया से जनगणना शुरू की जाए, यह तो फिर भी समझ में आ जाता, मगर सारे जनप्रतिनिधियों व अफसरों को भी वीआईपी मान कर जनगणना करना हमारी मानसिकता को उजागर करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जनगणना जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रम में वीआईपी को खुश करने का फंडा निकाल लिया गया। इस मानसिकता को क्या नाम दिया जाए, अपुन को तो समझ में नहीं आता, आप ही नामकरण कर दीजिएगा।
रविवार, 20 फ़रवरी 2011
हंगामा मास्टर की उपाधि दे दीजिए देवनानी को
बीते दिनों जब जनगणना संदेश रैली में भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी और मेयर कमल बाकोलिया के बीच गाली-गलौच हुई तो अपुन ने तभी कह दिया था कि जहां देवनानी हों, वहां विवाद न हो, हंगामा न हो तो सभी को अटपटा सा लगता है। अब तो इसकी पुष्टि खुद देवनानी ने ही कर दी है। हाल ही नगर निगम की साधारण में जो हंगामा हुआ, उसके लिए निगम की ओर से जारी प्रोसिडिंग में साफ तौर पर कहा गया है कि सभा में बैठने के स्थान को लेकर मामूली सा विवाद हुआ तो देवनानी के नेतृत्व में ही भाजपा पार्षदों ने हंगामा कर दिया। यानि कि हंगामे का सारा श्रेय ही देवनानी के खाते में दर्ज कर दिया गया है। ऐसे में अगर मास्टर रहे देवनानी को हंगामा मास्टर की उपाधि दे दी जाए तो गलत नहीं होगा। भले ही ऐसा कहना देवनानी को अटपटा लगे, या फिर उनकी ऐसी हरकत निगम की मर्यादाओं के विपरीत लगे, मगर विपक्ष की भूमिका के नजरिये से यह उनकी उपलब्धि ही कही जाएगी।
असल में देवनानी को संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में ट्रेनिंग ही ऐसी मिली हुई है। तभी तो कहा जाता है कि लंबे समय तक विपक्ष में रहने के कारण भाजपाइयों को विपक्ष की भूमिका निभाने में, हंगामा करने में महारत हासिल है। इस लिहाज से देवनानी अपनी ट्रेनिंग का पूरा-पूरा उपयोग कर रहे हैं। क्या यह उस ट्रेनिंग का जीता-जागता उदाहरण नहीं है कि जिनके नेतृत्व में निगम की साधारण सभा में हंगामा हुआ, लोकतंत्र की मर्यादाएं भंग हुई, वे ही विधानसभा में पॉइंट आफ इन्फोरमेशन के तहत कहते हैं कि निगम की साधारण सभा में जो कुछ हुआ वह लोकतंत्र को शर्मसार करने वाला है। यानि की लोकतंत्र को शर्मसार तो खुद करते हैं और उसके लिए जिम्मेदार कांग्रेस को ठहराते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि निगम की साधारण सभा में गैर पार्षदों का दखल देना और हंगामा करना किसी भी लिहाज से सही नहीं ठहराया जा सकता, मगर उसकी शुरुआत तो देवनानी ने ही की थी। और वह भी बैठने के स्थान को लेकर, जो कि एक मामूली सा विवाद था।
ऐसा प्रतीत होता है कि पिछले दिनों जब जनगणना संदेश रैली में बाकोलिया व देवनानी के बीच भिड़ंत हुई, तभी देवनानी ने यह तय कर लिया था कि जैसे ही निगम की साधारण सभा होगी, वे बाकोलिया को मजा चखाएंगे। शायद बाकोलिया को भी अंदेशा था कि देवनानी कोई न कोई हंगामा खड़ा करेंगे ही, इस कारण उन्होंने भी स्थिति से निपटने के लिए बाहुबलियों को बुलवा रखा था।
दरअसल नगर निगम सीमा के विधायक होने के नाते निगम की बैठकों में वे सम्मानित सदस्य के रूप में मौजूद रह सकते हैं। यह व्यवस्था इसलिए की हुई है ताकि जब निगम की साधारण सभा हो तो वे एक विधायक होने के नाते शहर के विकास के लिए अपने अनुभव का लाभ दे सकें। किसी विधायक की साधारण सभा में मौजूदगी काफी मर्यादापूर्ण होती है। इससे पहले भी साधारण सभाओं में विधायक मौजूद रह चुके हैं, मगर सभी ने अपनी गरिमा का ख्याल रखा है। यदि उनकी पार्टी के पार्षदों ने हंगामा किया भी है तो वे भी उनके साथ शामिल हो कर हंगामा करने नहीं लग जाते थे। मगर देवनानी ने तो विधायक का दर्जा त्याग कर भाजपा पार्षद दल के नेता की भूमिका ही अदा कर दी। अब निगम भले ही उन्हें हंगामे का दोषी ठहराए, मगर उनके खिलाफ कोई कार्यवाही तो कर नहीं सकता। जाहिर तौर पर उनका साथ देने वाले चार भाजपा पार्षदों पर गाज गिरने की नौबत आ सकती है। यह तो वक्त ही बताएगा कि नीरज जैन, विजय खंडेलवाल, वासुदेव कुंदनानी व जे. के. शर्मा के खिलाफ कार्यवाही की जाती है या नहीं, मगर प्रोसिडिंग में जिस प्रकार कार्यवाही में बाधा डालने के लिए उन्हें जिम्मेदार माना गया है, उनकी सदस्यता पर तलवार तो लटक ही गई है।
गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011
न देवनानी हारे, न बाकोलिया, राजनीतिक मर्यादा हार गई


जब सत्ता थी तब मंत्री बनने से चूकी श्रीमती अनिता भदेल पूरे पांच साल शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी को तंज देती रहीं। दोनों के बीच कोई न कोई विवाद होता ही रहता था। मंत्री पद का दायित्व जितना भी पूरा हो पाया न हो पाया, मगर श्रीमती भदेल से भिड़ंत में काफी समय जाया हो गया। लेकिन सत्ता जाने के बाद ऐसा लगता है कि श्रीमती भदेल तो कुछ शांत हो गई हैं, लेकिन देवनानी में करंट अभी बरकरार है। श्रीमती भदेल की वजह से विवाद करते रहने के आदी हो चुके प्रो. देवनानी कभी सरकारी अधिकारियों को ढूंढ़ते हैं तो कभी कांगे्रसियों को तलाशते रहते हैं। वस्तुस्थिति तो यहां तक आने लगी है कि जिस संयुक्त सरकारी कार्यक्रम में देवनानी हों, और वहां विवाद न हो, तो सभी को अटपटा सा लगता है।
यूं तो कांग्रेस के खिलाफ आए दिन कोई न कोई बयान जारी करते ही रहते हैं, ताकि विपक्ष की भूमिका भी अदा हो जाए और आगामी चुनाव तक जिंदा भी रह लें। (जिंदा शब्द का संबोधन करना इसलिए उपयुक्त लगता है कि भाजपा के सभी धड़े तो उन्हें निपटाने के ही इच्छुक रहते हैं।) लेकिन बुधवार को जनगणना संदेश रैली जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रम की महत्ता का ख्याल न रखते हुए उन्होंने नगर निगम के महापौर कमल बाकोलिया को लपेट लिया। यह भी नहीं देखा कि उचित मौका है या नहीं। निगम के सभी कार्यक्रमों में उनको बुलाना जायज है या नहीं, नहीं पता, मगर अचानक हुए वार से बाकोलिया पहले तो सकपकाए, मगर जब देखा कि देवनानी पीछा ही नहीं छोड़ रहे तो उन्होंने भी मिला-मिला कर देना शुरू कर दिया। ऐसी भिड़ंत तो उनकी निगम में ही उप महापौर अजीत सिंह राठौड़ तक से नहीं हुई। वैसे बाकोलिया अभी नए-नए हैं, मगर देवनानी से हुई भिड़ंत में उन्होंने जो पैैंतरे दिखाए तो सभी भौंचक्के रह गए। इस वाक् युद्ध में कौन जीता, कौन हारा, यह भी नहीं पता, मगर राजनीतिक मर्यादा जरूर हार गई। एक ओर शहर के प्रथम नागरिक तो दूसरी ओर भाजपा के शिक्षा राज्य मंत्री रह चुके नेता के बीच गाली-गलौच के बाद दोनों भले ही अपने-अपने खेमों में शेखी बघार रहे होंगे, मगर शहर वासियों का तो शर्म से सिर नीचा हो गया है। कांग्रेस व भाजपा नेताओं में पूर्व में भी इस प्रकार के विवाद होते रहे हैं और राजनीतिक बयानबाजी होती रहती थी, लेकिन इस प्रकार आमने-सामने एक दूसरे के कपड़े फाडऩे की नौबत कम ही आई है।
बहरहाल, इस वाकये में भाजपाइयों के लिए खुश होने वाली बात ये है कि उनके नेता को इस बात का पूरा भरोसा है कि अगली सरकार उनकी ही होगी। तभी तो बाकोलिया को देख लेने की धमकी दे दी। ऐसा प्रतीत होता है प्रो. देवनानी उसी उम्मीद में अपने आपको वार्मअप किए हुए हैं, ताकि सत्ता जब द्वार पर खड़ी हो तो उसका ठीक से स्वागत कर सकें। इस लिहाज से तो देवनानी की वजूद कायम रखने की कवायद जायज ही कही जाएगी। वे तो अपने मकसद में कामयाब ही हो रहे हं। वैसे भी प्रेम और राजनीति में सब कुछ जायज होता है।
शहर भाजपा के कई नेता संतुष्ट किए जाने का फार्मूला
शहर जिला भाजपा के अध्यक्ष पद पर प्रो. रासासिंह रावत के मनोनयन के साथ ही एक ओर जहां कार्यकारिणी में पदों को लेकर एक अनार सौ बीमार वाली हालत हो रही है तो दूसरी ओर पार्टी ने अधिकतर नेताओं को संतुष्ट करने का फार्मूला तैयार कर लिया है।
सुविज्ञ सूत्रों के अनुसार इस बार वरिष्ठ नेताओं को आभूषणात्मक उपाध्यक्ष पद पर नवाजने के लिए सात पदों की व्यवस्था करने का विचार है। इससे वे सभी नेता संतुष्ट हो जाएंगे, जो या तो अध्यक्ष पद के दावेदार की श्रेणी में माने जा रहे थे या फिर दावेदार न होने पर भी जिन्होंने पार्टी की लंबे समय से अथवा पर्याप्त सेवा की है। इस पद रहने में वरिष्ठ नेताओं को इस कारण भी असहजता महसूस नहीं होगी, क्यों कि अध्यक्ष ही पांच बार सांसद रहे नेता को बनाया गया है, जो कि उनके कद के मुताबिक अपेक्षाकृत छोटा ही है। कदाचित प्रो. रावत ने भी इस पद को इस कारण स्वीकार कर लिया है कि वे हाशिये पर नहीं जाना चाहते और आगामी चुनाव आने तक जिंदा बने रहना चाहते हैं। वैसे भी रावतों के पर्याप्त वोटों को देखते हुए भाजपा को उनसे बेहतर नेता नजर नहीं आ रहा था।
रहा सवाल तेज-तर्रार व दमदार नेताओं को एडजस्ट करने का तो, उसके लिए महामंत्री के तीन पद रखे जाने का विचार है। इनमें जहां विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी की ओर से नगर निगम के पूर्व महापौर धर्मेन्द्र गहलोत को शामिल किए जाने का विचार है, वहीं विधायक श्रीमती अनिता भदेल की ओर से सोमरत्न आर्य या कैलाश कच्छावा का नाम आ सकता सकता है। इसके बाद भी एक पद बच जाएगा, जिस खींचतान होने की संभावना है। ऐसे में या तो प्रदेश भाजपा नेता औंकार सिंह लखावत अथवा अध्यक्ष प्रो. रावत अपनी पसंद का नेता एडजस्ट करेंगे या फिर ऐसा नेता सैट किया जाएगा, जिस पर दोनों ही विधायकों की सहमति होगी। इस प्रकार अनेक भाजपा नेता संतुष्ट कर लिए जाएंगे। इसके बाद भी जो नेता पिछले कुछ सालों में उभर कर आए हैं, उन्हें भी संतुष्ट करने के लिए मंत्री के सात पद रखे गए हैं। यानि कि दोनों ही गुटों के दोवदारों को तो पूरा मौका मिलेगा ही, इसके बाद भी कुछ पद रह जाएंगे, जिन पर पूर्व में पदों पर रहे नेताओं को फिर से मौका दिया जा सकेगा। बताया जाता है कि जंबो कार्यकारिणी के पीछे पार्टी की यह सोच है कि इससे सभी जाति वर्गों के लोगों राजी किया जा सकेगा, जिसका आगामी विधानसभा चुनाव में फायदा मिलेगा। बताया जा रहा है कि महिलाओं को भी उचित स्थान देने के लिए एक तिहाई पद उनके लिए रखे जाने की कोशिश की जा रही है।
सुविज्ञ सूत्रों के अनुसार इस बार वरिष्ठ नेताओं को आभूषणात्मक उपाध्यक्ष पद पर नवाजने के लिए सात पदों की व्यवस्था करने का विचार है। इससे वे सभी नेता संतुष्ट हो जाएंगे, जो या तो अध्यक्ष पद के दावेदार की श्रेणी में माने जा रहे थे या फिर दावेदार न होने पर भी जिन्होंने पार्टी की लंबे समय से अथवा पर्याप्त सेवा की है। इस पद रहने में वरिष्ठ नेताओं को इस कारण भी असहजता महसूस नहीं होगी, क्यों कि अध्यक्ष ही पांच बार सांसद रहे नेता को बनाया गया है, जो कि उनके कद के मुताबिक अपेक्षाकृत छोटा ही है। कदाचित प्रो. रावत ने भी इस पद को इस कारण स्वीकार कर लिया है कि वे हाशिये पर नहीं जाना चाहते और आगामी चुनाव आने तक जिंदा बने रहना चाहते हैं। वैसे भी रावतों के पर्याप्त वोटों को देखते हुए भाजपा को उनसे बेहतर नेता नजर नहीं आ रहा था।
रहा सवाल तेज-तर्रार व दमदार नेताओं को एडजस्ट करने का तो, उसके लिए महामंत्री के तीन पद रखे जाने का विचार है। इनमें जहां विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी की ओर से नगर निगम के पूर्व महापौर धर्मेन्द्र गहलोत को शामिल किए जाने का विचार है, वहीं विधायक श्रीमती अनिता भदेल की ओर से सोमरत्न आर्य या कैलाश कच्छावा का नाम आ सकता सकता है। इसके बाद भी एक पद बच जाएगा, जिस खींचतान होने की संभावना है। ऐसे में या तो प्रदेश भाजपा नेता औंकार सिंह लखावत अथवा अध्यक्ष प्रो. रावत अपनी पसंद का नेता एडजस्ट करेंगे या फिर ऐसा नेता सैट किया जाएगा, जिस पर दोनों ही विधायकों की सहमति होगी। इस प्रकार अनेक भाजपा नेता संतुष्ट कर लिए जाएंगे। इसके बाद भी जो नेता पिछले कुछ सालों में उभर कर आए हैं, उन्हें भी संतुष्ट करने के लिए मंत्री के सात पद रखे गए हैं। यानि कि दोनों ही गुटों के दोवदारों को तो पूरा मौका मिलेगा ही, इसके बाद भी कुछ पद रह जाएंगे, जिन पर पूर्व में पदों पर रहे नेताओं को फिर से मौका दिया जा सकेगा। बताया जाता है कि जंबो कार्यकारिणी के पीछे पार्टी की यह सोच है कि इससे सभी जाति वर्गों के लोगों राजी किया जा सकेगा, जिसका आगामी विधानसभा चुनाव में फायदा मिलेगा। बताया जा रहा है कि महिलाओं को भी उचित स्थान देने के लिए एक तिहाई पद उनके लिए रखे जाने की कोशिश की जा रही है।
बुधवार, 9 फ़रवरी 2011
अपने ही मंत्री की तौहीन की रघु व सिनोदिया ने
जिले के दो कांग्रेसी विधायक डॉ. रघु शर्मा व नाथूराम सिनोदिया मंगलवार को हुई जिला परिषद की साधारण सभा का महज इस कारण बायकाट कर गए क्योंकि एक घंटे के इंतजार के बाद भी बैठक शुरू नहीं हुई। बैठक शुरू होने में देरी पर भले ही उन्होंने भाजपा की जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा पर यह आरोप लगा कि उन्होंने जिला परिषद को घर की दुकान बना रखा है, मगर सच्चाई ये है कि खुद उनकी ही सरकार के मंत्री रणवीर सिंह गुड्ढ़ा के विलंब से आने की वजह से बैठक देरी से शुरू हुई थी, न कि जिला प्रमुख ने अपनी ओर से देरी की थी। भाजपा की होने के बावजूद कांग्रसी मंत्री के विलंब हो जाने पर उन्होंने तो ऐतराज नहीं किया और विलंब को सहजता से लिया। मगर कांग्रेस के विधायकों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ।
मौका-ए-हालात से यह भी स्पष्ट है कि बैठक में देरी होने का कारण वे भलीभांति जानते थे और ये उन्हें ये भी पता था कि जिस वक्त बायकाट कर रहे हैं, उस वक्त गुड्ढ़ा जिला प्रमुख के चैंबर में बैठे हैं, इसके बावजूद उनसे मिलने नहीं गए। ऐसा करके उन्होंने जिला प्रमुख की नहीं, बल्कि अपने ही मंत्री की तौहीन की है। उनका जिला प्रमुख पर लगाया गया आरोप प्रत्यक्षत: राजनीतिक था, मगर सच्चाई ये है कि उन्हें यह बात नागवार गुजरी कि उनकी बजाय मंत्री जी जिला प्रमुख को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं। इसको सीधे तौर पर तो कह नहीं सकते थे, क्योंकि ऐसा कहने पर खुद उनकी ही तौहीन होती, इस कारण बायकाट का आरोप जिला प्रमुख को निशाने पर लेकर मढ़ दिया।
असल में सबको पता है कि गुड्ढ़ा श्रीमती पलाड़ा के मुंह बोले भाई बने हुए हैं और जिला प्रमुख चुने जाने पर भी बधाई देने आए थे। तब ही उन्होंने साफ कर दिया था कि यूं भले ही वे प्रतिद्वंद्वी पार्टियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, मगर दुनिया में रिश्तों की भी कोई अहमियत होती है। भाई-बहन के रिश्ते के कारण ही कदाचित वे बैठक में आने से पहले औपचारिकता में सीधे जिला प्रमुख के चैंबर में चले गए। और जिला प्रमुख ने भी औपचारिकता व सम्मान की खातिर में बैठक देरी से शुरू करवाई। बस इसी बात को दोनों विधायक सहन नहीं कर पाए, और बैठक का बायकाट कर दिया। उनके जिला प्रमुख पर जिला परिषद को घर की दुकान बनाने का भी यही तात्पर्य है कि उन्हें पारिवारिक रिश्ता बर्दाश्त नहीं हुआ।
यदि रघु व सिनोदिया की बात को सही मानें तो क्या वे इस प्रकार पूर्व में भी महत्वपूर्ण बैठकों में देरी होने पर बायकाट कर चुके हैं? क्या अतिथियों के विलंब होने पर बैठक व कार्यक्रम आदि देरी से शुरू होना सामान्य बात नहीं है? क्या वे खुद समय के इतने पाबंद हैं और खुद मुख्य अतिथी होने पर ठीक समय पर पहुंचते हैं? सवाल ये भी है कि अगर वे खुद भी किसी बैठक या समारोह के मुख्य अतिथी हों और उन्हें किसी कारण से विलंब हो जाए तो क्या इस प्रकार किसी के बायकाट को बर्दाश्त कर पाएंगे?
रघु व सिनोदिया वाकई इतने ही खरे हैं तो क्या उनके पास इस बात का जवाब है कि बैठक की अध्यक्षता मंत्रीजी के करने पर उठे विवाद पर वे चुप क्यों हो गए? विशेष रूप से रघु तो बेबाक बयानी के लिए प्रसिद्ध हैं, इसके बावजूद यह कह कर प्रतिक्रिया देने से मुकर गए कि नियमों की जानकारी सभी को है, मेरे से प्रतिक्रिया न लें
मौका-ए-हालात से यह भी स्पष्ट है कि बैठक में देरी होने का कारण वे भलीभांति जानते थे और ये उन्हें ये भी पता था कि जिस वक्त बायकाट कर रहे हैं, उस वक्त गुड्ढ़ा जिला प्रमुख के चैंबर में बैठे हैं, इसके बावजूद उनसे मिलने नहीं गए। ऐसा करके उन्होंने जिला प्रमुख की नहीं, बल्कि अपने ही मंत्री की तौहीन की है। उनका जिला प्रमुख पर लगाया गया आरोप प्रत्यक्षत: राजनीतिक था, मगर सच्चाई ये है कि उन्हें यह बात नागवार गुजरी कि उनकी बजाय मंत्री जी जिला प्रमुख को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं। इसको सीधे तौर पर तो कह नहीं सकते थे, क्योंकि ऐसा कहने पर खुद उनकी ही तौहीन होती, इस कारण बायकाट का आरोप जिला प्रमुख को निशाने पर लेकर मढ़ दिया।
असल में सबको पता है कि गुड्ढ़ा श्रीमती पलाड़ा के मुंह बोले भाई बने हुए हैं और जिला प्रमुख चुने जाने पर भी बधाई देने आए थे। तब ही उन्होंने साफ कर दिया था कि यूं भले ही वे प्रतिद्वंद्वी पार्टियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, मगर दुनिया में रिश्तों की भी कोई अहमियत होती है। भाई-बहन के रिश्ते के कारण ही कदाचित वे बैठक में आने से पहले औपचारिकता में सीधे जिला प्रमुख के चैंबर में चले गए। और जिला प्रमुख ने भी औपचारिकता व सम्मान की खातिर में बैठक देरी से शुरू करवाई। बस इसी बात को दोनों विधायक सहन नहीं कर पाए, और बैठक का बायकाट कर दिया। उनके जिला प्रमुख पर जिला परिषद को घर की दुकान बनाने का भी यही तात्पर्य है कि उन्हें पारिवारिक रिश्ता बर्दाश्त नहीं हुआ।
यदि रघु व सिनोदिया की बात को सही मानें तो क्या वे इस प्रकार पूर्व में भी महत्वपूर्ण बैठकों में देरी होने पर बायकाट कर चुके हैं? क्या अतिथियों के विलंब होने पर बैठक व कार्यक्रम आदि देरी से शुरू होना सामान्य बात नहीं है? क्या वे खुद समय के इतने पाबंद हैं और खुद मुख्य अतिथी होने पर ठीक समय पर पहुंचते हैं? सवाल ये भी है कि अगर वे खुद भी किसी बैठक या समारोह के मुख्य अतिथी हों और उन्हें किसी कारण से विलंब हो जाए तो क्या इस प्रकार किसी के बायकाट को बर्दाश्त कर पाएंगे?
रघु व सिनोदिया वाकई इतने ही खरे हैं तो क्या उनके पास इस बात का जवाब है कि बैठक की अध्यक्षता मंत्रीजी के करने पर उठे विवाद पर वे चुप क्यों हो गए? विशेष रूप से रघु तो बेबाक बयानी के लिए प्रसिद्ध हैं, इसके बावजूद यह कह कर प्रतिक्रिया देने से मुकर गए कि नियमों की जानकारी सभी को है, मेरे से प्रतिक्रिया न लें
यानि कांग्रेस ने मान लिया है कि सरकारी तंत्र भ्रष्ट है
अगर वर्तमान में विपक्ष की भूमिका निभा रही भाजपा ये कहे कि वह सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ेगी तो समझ में आता है, मगर यही बात अगर कांग्रेस करे तो आश्चर्य के साथ अफसोस भी होता है। कैसी विडंबना है कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है, प्रशासनिक तंत्र उसी के इशारे पर चल रहा है और शहर कांग्रेस विधि विभाग ये कह रहा है कि प्रत्येक थाना क्षेत्र के लिए विधि सहायता कमेटी का गठन करके सरकारी कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ेगा। स्पष्ट है कि कांग्रेस के इस संगठन ने मान ही लिया है कि सरकारी तंत्र इतना भ्रष्ट हो चुका है कि विपक्ष तो क्या अब सत्तारूढ़ दल को ही अभियान चलाना पड़ेगा।
सवाल ये उठता है कि यदि अधिकारी और कर्मचारी इतने ही भ्रष्ट हो चुके हैं तो सरकार पिछले दो साल से कर क्या रही है? क्या यह संभव है कि सरकार तो मुस्तैद हो और उसका तंत्र भ्रष्ट हो जाए? मंत्री तो ईमानदार हों और अधिकारी बेईमान हो जाएं? यदि अधिकारी भ्रष्ट हैं तो मंत्री आखिर क्या कर रहे हैं? ये अधिकारी भाजपा ने तो आयातित किए नहीं हैं। ये ही अधिकारी भाजपा के शासनकाल में भी काम कर रहे थे, बस सीटों का ही फर्क हो सकता है। अगर वे भ्रष्ट हैं तो भाजपा के शासनकाल में भी भ्रष्ट रहे होंगे। तब विपक्ष में बैठी कांग्रेस क्या कर रही थी? और अगर अधिकारी अब भ्रष्ट हुए हैं तो जरूर दाल में कुछ काला है। सच्चाई तो ये है कि पूरी दाल ही काली नजर आने लगी है। तभी तो खुद सत्ताधारी दल को प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए अभियान चलाने की नौबत आ गई है। इससे हालात की गंभीरता का पता चलता है। स्थानीय कांग्रेसियों की छोडिय़े, खुद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त लापरवाही का सियापा करते रहते हैं।
सवाल ये भी उठता है कि अगर सत्तारूढ़ कांग्रेस विकास की बातें छोड़ कर भ्रष्टाचार दूर करने की बात कर रही है तो विपक्षी भाजपा कर क्या रही है? वह चुप क्यों बैठी है? क्या वह आगामी विधानसभा चुनाव का इंतजार कर रही है? कि चलो अभी कांग्रेसियों को लूटने दो, हम बाद में देख लेंगे। क्या उन्हें पता नहीं कि विपक्ष की भूमिका क्या होनी चाहिएï? अजमेर में तो कम से कम ऐसा ही नजर आ रहा है। वरना क्या वजह है कि नगर सुधार न्यास में करोड़ों के घोटाले हों और भाजपा चुप बैठी रहे। कांग्रेस के कुछ नेता अगर सतर्क नहीं होते तो मामले उजागर ही नहीं होते। भाजपा ने तो तब जा कर औरपचारिक ज्ञापनबाजी की, जब कांगे्रस ने काफी हंगामा खड़ा कर दिया और आम जनता भाजपाइयों की लानत देने लगी। भाजपा ने भी जो ज्ञापन दिया, उसमें भ्रष्टाचार संबंधी आंकड़े और जानकारियां नहीं थीं। उसमें तो केवल उनकी सरकार के दौरान शुरू हुए विकास कार्यों के ठप होने का हवाला था। यानि स्थानीय भाजपाइयों की हालत ये है कि उन्हें पता ही नहीं लग रहा कि भ्रष्टाचार कैसे और कहां-कहां किया जा रहा है। ऐसे में अगर ये प्रतीत होता है कि भाजपाई हार के बाद चैन की नींद सो गए हैं, तो गलत नहीं है। यकीन न हो तो किसी भी चाय-पानी की थड़ी और पान की दुकान पर जा सुन लीजिए भाजपा मानसिकता के लोगों की लफ्फाजी कि वे अभी से कहने लगे हैं कि जैसे हालात हैं, और जितनी जनता तंग है, अगली सरकार उन्हीं की होगी। और जब अगली सरकार उनकी ही होगी तो वे काहे को अभी मेहनत करें। सब के सब अभी निजी धंधे में लगे हुए हैं। जनता जाए भाड़ में। तंग आ कर खुद की तख्ता पलट देगी। वैसे भी उसके पास भाजपा के अलावा कोई विकल्प नहीं है। एक बार कांग्रेस को लूट मचाने का मौका देती है और दूसरी बार भाजपा को।
तो आवभगत स्वीकार करते ही क्यों हैं पत्रकार?
सोमवार को केकड़ी कस्बे में शुद्ध के लिए युद्ध अभियान के दौरान एक फर्म के विरुद्ध की गई रसद विभाग की कार्यवाही के दौरान फर्म मालिक और मीडिया कर्मियों के बीच खबर उजागर न करने को लेकर नौंक-झौंक हो गई। असल में हुआ ये कि जैसे ही मीडिया कर्मियों को पता लगा कि रसद विभाग का दल वहां पहुंच रहा है तो वे भी वहां रिपोर्टिंग करने को पहुंच गए। फर्म मालिक ने सभी की खूब आवभगत की और स्वागत-सत्कार किया। मीडिया कर्मियों ने भी खुशी-खुशी आवभगत ऐसे स्वीकार किया, मानो यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। आखिरकार हम जमीन से दो फुट ऊपर चलते हैं, स्वागत तो लोगों को करना ही होगा। और अगर वह अपराधी भी है तो फिर उसे जरूर करना होगा। लेकिन जैसे ही उसने खबर न छापने का आग्रह किया तो मीडिया कर्मी मुकर गए। इस पर नौंक-झोंक हो गई। नौंक-झोंक तो होनी ही थी। जो व्यक्ति आपकी चापलूसी कर रहा है तो इसका मतलब साफ है कि वह आपकी हैसियत को जानता है और खुश करके अपना काम निकालना चाहता है। आवभगत करवाते समय तो हमने सोचा नहीं कि इतना सम्मान क्यों मिल रहा है और जैसे ही उसने अपना मन्तव्य रखा तो हम बिगड़ गए। और लगे उससे उलझने। और जब फर्म मालिक ने देख लेने की धमकी दी तो हमें बर्दाश्त नहीं हुआ। हमारे पास चूंकि खबर छापने का अधिकार है, इस कारण हमने नौक-झोंक की खबर भी छाप ली। अहम सवाल ये है कि ऐसी नौबत ही क्यों आती है? न तो हम छापे की कार्यवाही के दौरान स्वागत-सत्कार स्वीकार करें और न ही बाद में कोई हमारे साथ बुरा सलूक करे। यदि हमें बुरा सलूक पसंद नहीं तो स्वागत-सत्कार से भी बचना चाहिए। और उससे भी बड़ी बात ये कि पूरे वृतान्त को हम उजागर करके जनता की हमदर्दी की उम्मीद करते हैं तो वह बेमानी है। ये पब्लिक है सब जानती है।
सवाल ये उठता है कि यदि अधिकारी और कर्मचारी इतने ही भ्रष्ट हो चुके हैं तो सरकार पिछले दो साल से कर क्या रही है? क्या यह संभव है कि सरकार तो मुस्तैद हो और उसका तंत्र भ्रष्ट हो जाए? मंत्री तो ईमानदार हों और अधिकारी बेईमान हो जाएं? यदि अधिकारी भ्रष्ट हैं तो मंत्री आखिर क्या कर रहे हैं? ये अधिकारी भाजपा ने तो आयातित किए नहीं हैं। ये ही अधिकारी भाजपा के शासनकाल में भी काम कर रहे थे, बस सीटों का ही फर्क हो सकता है। अगर वे भ्रष्ट हैं तो भाजपा के शासनकाल में भी भ्रष्ट रहे होंगे। तब विपक्ष में बैठी कांग्रेस क्या कर रही थी? और अगर अधिकारी अब भ्रष्ट हुए हैं तो जरूर दाल में कुछ काला है। सच्चाई तो ये है कि पूरी दाल ही काली नजर आने लगी है। तभी तो खुद सत्ताधारी दल को प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए अभियान चलाने की नौबत आ गई है। इससे हालात की गंभीरता का पता चलता है। स्थानीय कांग्रेसियों की छोडिय़े, खुद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी प्रशासनिक तंत्र में व्याप्त लापरवाही का सियापा करते रहते हैं।
सवाल ये भी उठता है कि अगर सत्तारूढ़ कांग्रेस विकास की बातें छोड़ कर भ्रष्टाचार दूर करने की बात कर रही है तो विपक्षी भाजपा कर क्या रही है? वह चुप क्यों बैठी है? क्या वह आगामी विधानसभा चुनाव का इंतजार कर रही है? कि चलो अभी कांग्रेसियों को लूटने दो, हम बाद में देख लेंगे। क्या उन्हें पता नहीं कि विपक्ष की भूमिका क्या होनी चाहिएï? अजमेर में तो कम से कम ऐसा ही नजर आ रहा है। वरना क्या वजह है कि नगर सुधार न्यास में करोड़ों के घोटाले हों और भाजपा चुप बैठी रहे। कांग्रेस के कुछ नेता अगर सतर्क नहीं होते तो मामले उजागर ही नहीं होते। भाजपा ने तो तब जा कर औरपचारिक ज्ञापनबाजी की, जब कांगे्रस ने काफी हंगामा खड़ा कर दिया और आम जनता भाजपाइयों की लानत देने लगी। भाजपा ने भी जो ज्ञापन दिया, उसमें भ्रष्टाचार संबंधी आंकड़े और जानकारियां नहीं थीं। उसमें तो केवल उनकी सरकार के दौरान शुरू हुए विकास कार्यों के ठप होने का हवाला था। यानि स्थानीय भाजपाइयों की हालत ये है कि उन्हें पता ही नहीं लग रहा कि भ्रष्टाचार कैसे और कहां-कहां किया जा रहा है। ऐसे में अगर ये प्रतीत होता है कि भाजपाई हार के बाद चैन की नींद सो गए हैं, तो गलत नहीं है। यकीन न हो तो किसी भी चाय-पानी की थड़ी और पान की दुकान पर जा सुन लीजिए भाजपा मानसिकता के लोगों की लफ्फाजी कि वे अभी से कहने लगे हैं कि जैसे हालात हैं, और जितनी जनता तंग है, अगली सरकार उन्हीं की होगी। और जब अगली सरकार उनकी ही होगी तो वे काहे को अभी मेहनत करें। सब के सब अभी निजी धंधे में लगे हुए हैं। जनता जाए भाड़ में। तंग आ कर खुद की तख्ता पलट देगी। वैसे भी उसके पास भाजपा के अलावा कोई विकल्प नहीं है। एक बार कांग्रेस को लूट मचाने का मौका देती है और दूसरी बार भाजपा को।
तो आवभगत स्वीकार करते ही क्यों हैं पत्रकार?
सोमवार को केकड़ी कस्बे में शुद्ध के लिए युद्ध अभियान के दौरान एक फर्म के विरुद्ध की गई रसद विभाग की कार्यवाही के दौरान फर्म मालिक और मीडिया कर्मियों के बीच खबर उजागर न करने को लेकर नौंक-झौंक हो गई। असल में हुआ ये कि जैसे ही मीडिया कर्मियों को पता लगा कि रसद विभाग का दल वहां पहुंच रहा है तो वे भी वहां रिपोर्टिंग करने को पहुंच गए। फर्म मालिक ने सभी की खूब आवभगत की और स्वागत-सत्कार किया। मीडिया कर्मियों ने भी खुशी-खुशी आवभगत ऐसे स्वीकार किया, मानो यह उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो। आखिरकार हम जमीन से दो फुट ऊपर चलते हैं, स्वागत तो लोगों को करना ही होगा। और अगर वह अपराधी भी है तो फिर उसे जरूर करना होगा। लेकिन जैसे ही उसने खबर न छापने का आग्रह किया तो मीडिया कर्मी मुकर गए। इस पर नौंक-झोंक हो गई। नौंक-झोंक तो होनी ही थी। जो व्यक्ति आपकी चापलूसी कर रहा है तो इसका मतलब साफ है कि वह आपकी हैसियत को जानता है और खुश करके अपना काम निकालना चाहता है। आवभगत करवाते समय तो हमने सोचा नहीं कि इतना सम्मान क्यों मिल रहा है और जैसे ही उसने अपना मन्तव्य रखा तो हम बिगड़ गए। और लगे उससे उलझने। और जब फर्म मालिक ने देख लेने की धमकी दी तो हमें बर्दाश्त नहीं हुआ। हमारे पास चूंकि खबर छापने का अधिकार है, इस कारण हमने नौक-झोंक की खबर भी छाप ली। अहम सवाल ये है कि ऐसी नौबत ही क्यों आती है? न तो हम छापे की कार्यवाही के दौरान स्वागत-सत्कार स्वीकार करें और न ही बाद में कोई हमारे साथ बुरा सलूक करे। यदि हमें बुरा सलूक पसंद नहीं तो स्वागत-सत्कार से भी बचना चाहिए। और उससे भी बड़ी बात ये कि पूरे वृतान्त को हम उजागर करके जनता की हमदर्दी की उम्मीद करते हैं तो वह बेमानी है। ये पब्लिक है सब जानती है।
मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011
रावत पर नई बोतल में पुरानी पेप्सी डालने का दबाव
शहर के दोनों भाजपा विधायकों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल के एक-दूसरे की लॉबी का अध्यक्ष बर्दाश्त न करने के चक्कर में सर्वसम्मति के रूप में प्रो. रासासिंह रावत शहर भाजपा अध्यक्ष पर काबिज होने से जहां पार्टी में उत्साह का संचार हुआ है, वहीं प्रो. रावत की फ्री हैंड नहीं मिलने की आशंका बरकरार है। एक तो दोनों विधायक अपने-अपने शागिर्दों को एडचस्ट करने का दबाव बना रहे हैं, वहीं वर्षों से संगठन पर काबिज नेता भी कुर्सी नहीं छोडऩे की जिद किए हुए हैं। ऐसे में प्रो. रावत के सामने नई बोतल में पुरानी पेप्सी डालने की नौबत आती दिखाई दे रही है। और अगर ऐसा हुआ तो शिव शंकर हेड़ा वाली शहर भाजपा और प्रो. रावत की भाजपा में कोई फर्क नहीं होगा। उस पर लेबल तो प्रो. रावत के नाम से नया होगा, मगर माल पुराना ही होगा। और सब जानते हैं कि पुराने माल की सारी गैस निकली हुई होती है। बोतल का ढक्कन खुलने पर उसमें से झाग नहीं निकलेंगे। और अगर विपक्ष की भूमिका निभाने वाली भाजपा में झाग नहीं आए शहर भाजपा के लिए की गई लंबी कवायद बेकार चली जाएगी।
सब जानते हैं कि हेड़ा वाली भाजपा की हालत क्या थी। दोनों विधायकों ने ही इतनी दादागिरी कर रखी थी कि वे खुद ही लुंज-पुंज हो गए थे। इस लाचारी का इजहार उन्होंने पिछले नगर निगम चुनाव में किया था, जब प्रत्याशियों का चयन तो उनकी अध्यक्षता में हुआ, मगर खुद उनकी नहीं चली। इतना ही नहीं उनकी कार्यकारिणी में ऐसे कई पदाधिकारी थे, जो कि केवल विज्ञप्तियों के जरिए अखबारों में दिखाई देते थे, मगर उनका जनाधार कुछ नहीं था। इसी वजह से भाजपा के अनेक विरोध प्रदर्शन फीके ही रहते आए। जानकारी के अनुसार पुराने पदाधिकारी नई कार्यकारिणी में भी शामिल होने के लिए एडी चोटी का जोर लगा रहे हैं। इसके लिए वे प्रदेश भाजपा नेताओं का दबाव बना रहे हैं। इस तरह से प्रो. रावत पर तिहरा दबाव बना हुआ है। हालांकि वे दावा तो पार्टी में नई जान फूंकने का करते हैं, मगर देखना ये है कि वे इस दबाव के बीच अपनी कितनी पसंद मनवा पाते हैं। अगर वे नए और जनाधार वाले नेताओं को नहीं उभार पाए तो सांसद के साथ-साथ संगठन अध्यक्ष के रूप में भी नाकामयाब नेता माना जाएगा।
सब जानते हैं कि हेड़ा वाली भाजपा की हालत क्या थी। दोनों विधायकों ने ही इतनी दादागिरी कर रखी थी कि वे खुद ही लुंज-पुंज हो गए थे। इस लाचारी का इजहार उन्होंने पिछले नगर निगम चुनाव में किया था, जब प्रत्याशियों का चयन तो उनकी अध्यक्षता में हुआ, मगर खुद उनकी नहीं चली। इतना ही नहीं उनकी कार्यकारिणी में ऐसे कई पदाधिकारी थे, जो कि केवल विज्ञप्तियों के जरिए अखबारों में दिखाई देते थे, मगर उनका जनाधार कुछ नहीं था। इसी वजह से भाजपा के अनेक विरोध प्रदर्शन फीके ही रहते आए। जानकारी के अनुसार पुराने पदाधिकारी नई कार्यकारिणी में भी शामिल होने के लिए एडी चोटी का जोर लगा रहे हैं। इसके लिए वे प्रदेश भाजपा नेताओं का दबाव बना रहे हैं। इस तरह से प्रो. रावत पर तिहरा दबाव बना हुआ है। हालांकि वे दावा तो पार्टी में नई जान फूंकने का करते हैं, मगर देखना ये है कि वे इस दबाव के बीच अपनी कितनी पसंद मनवा पाते हैं। अगर वे नए और जनाधार वाले नेताओं को नहीं उभार पाए तो सांसद के साथ-साथ संगठन अध्यक्ष के रूप में भी नाकामयाब नेता माना जाएगा।
कांग्रेसियों से ही मिल रही है कलेक्टर को चुनौती
गणतंत्र दिवस समारोह के फीके होने पर पर्यटन मंत्री श्रीमती बीना काक की नाराजगी का शिकार हो चुकी जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल एक बार फिर कांग्रेसी नेता व सरपंच संघ के नेता भूपेन्द्र सिंह राठौड़ के निशाने पर हैं। राठौड़ ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और बाकायदा अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट को लिखित में शिकायत कर दी है। हालांकि उन्हें अन्य सरपंचों के दबाव में ऐसा करना पड़ रहा है, मगर माना तो यही जा रहा है कि कांग्रेसी ही अपने राज की खिलाफत कर रहे हैं। चौंकाने वाली बात ये है कि जिला कलेक्टर के राज्य सरकार के अधीन होने के बावजूद उन्होंने जिले की जनता से सीधे जुड़े कांग्रेसी विधायकों का सहयोग लेने की बजाय केन्द्रीय मंत्री से दखल देने की गुहार लगाई है। ऐसा नहीं है कि राठौड़ सरकार के खिलाफ पहली बार मुखर हुए हैं। वे पूर्व में सरपंचों के प्रांतव्यापी आंदोलन में भी खुल कर भाग ले चुके हैं। तब एक बार तो उत्तेजना में सरकार के खिलाफ क्रीज से काफी बाहर आ कर खेले थे, मगर अपने कृत्य पर कांग्रेस विरोधी होने की छाप लगने के डर से दूसरे ही दिन पैर पीछे खींच लिए।
हालांकि यह सही है कि सरपंच का चुनाव पार्टी के आधार पर नहीं होता, इस कारण किसी सरपंच को सीधे तौर पर कांग्रेसी या भाजपाई नहीं कहा जा सकता, मगर राठौड़ कांग्रेसी हैं, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है। वे केकड़ी विधायक डॉ. रघु शर्मा के शागिर्द हैं। इतना ही नहीं सूचना तो यहां तक है कि वे आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का टिकट हासिल करने की जाजम तक बिछा रहे हैं।
गणतंत्र दिवस समारोह के फीके होने पर पर्यटन मंत्री श्रीमती बीना काक की नाराजगी का शिकार हो चुकी जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल एक बार फिर कांग्रेसी नेता व सरपंच संघ के नेता भूपेन्द्र सिंह राठौड़ के निशाने पर हैं। राठौड़ ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और बाकायदा अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट को लिखित में शिकायत कर दी है। हालांकि उन्हें अन्य सरपंचों के दबाव में ऐसा करना पड़ रहा है, मगर माना तो यही जा रहा है कि कांग्रेसी ही अपने राज की खिलाफत कर रहे हैं। चौंकाने वाली बात ये है कि जिला कलेक्टर के राज्य सरकार के अधीन होने के बावजूद उन्होंने जिले की जनता से सीधे जुड़े कांग्रेसी विधायकों का सहयोग लेने की बजाय केन्द्रीय मंत्री से दखल देने की गुहार लगाई है। ऐसा नहीं है कि राठौड़ सरकार के खिलाफ पहली बार मुखर हुए हैं। वे पूर्व में सरपंचों के प्रांतव्यापी आंदोलन में भी खुल कर भाग ले चुके हैं। तब एक बार तो उत्तेजना में सरकार के खिलाफ क्रीज से काफी बाहर आ कर खेले थे, मगर अपने कृत्य पर कांग्रेस विरोधी होने की छाप लगने के डर से दूसरे ही दिन पैर पीछे खींच लिए।
हालांकि यह सही है कि सरपंच का चुनाव पार्टी के आधार पर नहीं होता, इस कारण किसी सरपंच को सीधे तौर पर कांग्रेसी या भाजपाई नहीं कहा जा सकता, मगर राठौड़ कांग्रेसी हैं, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है। वे केकड़ी विधायक डॉ. रघु शर्मा के शागिर्द हैं। इतना ही नहीं सूचना तो यहां तक है कि वे आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का टिकट हासिल करने की जाजम तक बिछा रहे हैं।
सोमवार, 7 फ़रवरी 2011
पांच दिन पहले ही उजागर कर दिया था प्रो. रावत का नाम

शहर भाजपा अध्यक्ष पद पर काबिज प्रो. रासासिंह रावत का नाम च्न्याय सबके लिएज् ने पांच दिन पहले उजागर कर दिया था कि काफी विचार-विमर्श और दावों-प्रतिदावों के बाद आखिरकार पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत को ही शहर भाजपा अध्यक्ष पद के काबिल माना गया है और उनकी नियुक्ति की घोषणा होना मात्र शेष रह गया है। उसके बाद जा कर अन्य समाचार पत्रों ने इस खबर को शाया किया, मगर वह भी संभावना जताते हुए।
वस्तुत: जैसे ही च्न्याय सबके लिएज् में यह खबर उजागर हुई, संघ प्रमुख मोहन भागवत की अजमेर में मौजूदगी का लाभ उठाते हुए एक बार फिर प्रो. बी. पी. सारस्वत के लिए पूरी ताकत लगा दी गई। ऐसा होते देख पूर्व सांसद औंकार सिंह लखावत के कान खड़े हो गए और सभी लोगों को समझाने लगे कि प्रो. रावत के नाम पर लंबी खींचतान के बाद समहति बनाई जा सकी है, इस कारण अब घोषणा से पहले खलल न डालें। प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी भी जानते थे कि संघ का दबाव आ जाएगा, तुरंत प्रो. रावत सहित अन्य शहर अध्यक्षों की घोषणा कर दी, ताकि कोई फेरबदल की स्थिति न आए। शहर में चल रहे संघ के जलसे का लाभ उठाते हुए विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी भी प्रो. सारस्वत के समानांतर पूर्व महापौर धर्मेन्द्र गहलोत का नाम फिर से उछाल दिया। मगर इस मुहिम को कामयाबी हासिल नहीं हुई। अब वे उन्हें शहर महामंत्री बनाने की जुगत करेंगे।
हालांकि यह सही है कि छत्तीस का आंकड़ा बने प्रो. देवनानी व विधायक श्रीमती अनिता भदेल के प्रो. रावत के प्रति सहमति देने के कारण दोनों ही गुटों में तालमेल बैठाया जाएगा, मगर अंतत: शहर भाजपा पर प्रो. देवनानी विरोधी लॉबी हावी रहेगी। देवनानी को कमजोर करने के लिए लखावत सहित अन्य सभी नेता लामबंद हो जाएंगे। कदाचित इस बात का अहसास देवनानी को भी हो, मगर उनके पास कोई चारा नहीं बचा था।
भाजपा और मजबूत, कांग्रेस बेपरवाह
हाल ही पंचायतीराज उप चुनाव में भाजपा को मिली सफलता के बाद शहर भाजपा अध्यक्ष के रूप में पांच बार सांसद रहे प्रो. रासासिंह रावत की नियुक्ति के साथ ही भाजपा और मजबूत हो गई है। यह स्थिति कांग्रेस के लिए चिंताजनक है, मगर वह बेपरवाह बनी हुई है। कांग्रेस की यह बेपरवाही काफी दिन से चल रही है। लोकसभा चुनाव में भले ही मजबूरी में सभी कांग्रेसी एक हुए और सचिन पायलट जीत गए, मगर उसके बाद स्वयं पायलट ने ही संगठन पर ध्यान नहीं दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि जिला परिषद पर भाजपा का कब्जा हो गया। जिला परिषद सदस्य के लिए हाल ही हुए चुनाव में भी उन्होंने रुचि नहीं ली, इसका परिणाम ये हुआ भाजपा के ओमप्रकाश भड़ाणा जीत गए, जबकि उनकी छाप ले कर घूम रहे सौरभ बजाड़ को हार का मुंह देखना पड़ा। इससे जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पति युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा और मजबूत हुए हैं। आने वाले दिनों वे अपने नेटवर्क को और भी मजबूत कर लेंगे। भाजपा ने शहर में भी ऐसा अध्यक्ष नियुक्त कर दिया है, जिसे कि दोनों की गुटों का समर्थन है। स्वयं प्रो. रावत भी काफी अनुभवी हैं और विपक्षी नौटंकी में माहिर हैं। वैसे भी वे फुल टाइम पॉलिटीशियन हैं। ऐसे में उसकी तुलना में मौजूदा कांग्रेस संगठन कमजोर प्रतीत होता है। संयोग से सचिन पायलट व संगठन के बीच भी कोई खास तालमेल नहीं बैठ पाया है। तालमेल क्या शहर कांग्रेस पर काबिज गुट तो उनके खिलाफ ही चलता है। ऐसे में आगे चल कर पायलट के लिए दिक्कत पेश आ सकती है।
शनिवार, 5 फ़रवरी 2011
तो फिर बाबा रामदेव की रैली को सहयोग क्यों नहीं किया?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्रीय प्रचार प्रमुख सुनील कुमार ने अखबार वालों से बात करते हुए कहा कि संघ का योग गुरू बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ गए अभियान में पूरा सहयोग रहेगा। मगर सच्चाई ये है कि पिछले दिनों अजमेर में जो रैली हुई थी, उससे अधिसंख्यक स्वयंसेवकों और भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं ने जानबूझ कर दूरी बना रखी थी। इक्का-दुक्का हिंदूवादी नेता जरूर रैली में दिखाई दिए, लेकिन योजनाबद्ध रूप से संघ का रैली को कोई योगदान नहीं रहा। हालांकि यह सही है कि रैली के आयोजकों ने जो तैयारी बैठक बुलाई थी, उसमें अधिसंख्य संघनिष्ठ लोग ही शामिल थे, लेकिन जैसे उन्हें यह लगा कि बाबा रामदेव अपने इस अभियान व ताकत का बाद में राजनीतिक इस्तेमाल करेंगे, तो उन्होंने दूरी कायम कर ली। हकीकत तो ये है उस बैठक में ही संघ के स्वयंसेवकों ने कह दिया कि ऊपर से आदेश मिलने पर ही सहयोग दिया जा सकता है। इससे आयोजकों में तनिक मायूसी भी रही। परिणाम भी सामने आ गया। यदि वाकई संघ और भाजपा रैली का सहयोग करते तो वह रैली ऐतिहासिक होती। यूं रैली ठीक ठाक थी, मगर वह केवल आर्यसमाजियों की वजह से। ऐसा प्रतीत होता है कि संघ की पूर्व में बाबा रामदेव को सहयोग करने की कोई योजना नहीं थी और अब जा कर सहयोग का मानस बनाया है। या फिर ये भी हो सकता है कि जब पत्रकारों ने यह पूछा कि क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान को संघ सहयोग करेगा तो औपचारिकतावश उन्होंने यह कह दिया होगा कि संघ का पूरा समर्थन है।
वैसे यह सच्चाई है कि आज भले ही संघ बाबा रामदेव को सहयोग करने की बात करे, मगर आगे चल कर जब बाबा रामदेव लोकसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी खड़े करेंगे तो भाजपा को उससे भारी परेशानी होगी, क्यों वे भाजपा के ही वोट काटेंगे।
क्या डॉ. जयपाल लॉबी ने ठान रखी है भ्रष्टाचार मिटाने की?
विपक्ष के नाते भाजपा को जो भूमिका अदा करनी चाहिए, वह अजमेर में कांग्रेस के नेता अदा कर रहे हैं। एक दृष्टि से देखा जाए तो यह वाकई बड़े साहस की बात है कि अपनी ही सरकार के होते हुए प्रशासन के खिलाफ जम कर अभियान चला रखा है। हाल ही पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल के शागिर्द रमेश सैनानी ने प्रॉपर्टी डीलर्स एसोसिशन के बैनर पर आवासन मंडल के अधिकारियों की खाट खड़ी कर दी।
आइये, जरा पीछे चलते हैं। पिछले दिनों पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल के नेतृत्व में नगर सुधार न्यास में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ जो अभियान चलाया गया, वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। वे न केवल न्यास सचिव अश्फाक हुसैन को चुनौती दे कर आए, बल्कि उन्हीं की पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं ने ठीक वैसा हंगामा किया जो कि भाजपा को शोभा देता। बहरहाल, जहां तक भूमिका का सवाल है, वह जरूर विपक्ष जैसी नजर आती है, मगर उनके अभियान का परिणाम ये रहा कि न केवल दीपदर्शन सोसायटी को कथित रूप से अवैध रूप से आवंटित जमीन का आवंटन रद्द हुआ, अपितु कहीं न कहीं लिप्त जिला कलेक्टर राजेश यादव, न्यास सचिव अश्फाक हुसैन व विशेषाधिकारी अनुराग भार्गव अजमेर से रुखसत हो गए। इस लिहाज से भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाये अभियान के लिए वे साधुवाद के पात्र हैं। ठीक इसके विपरीत विपक्षी पार्टी भाजपा पूरी तरह से नकारा साबित हुई है। कांग्रेस जब काफी आगे निकल गई, और लोगों ने विपक्षी दल भाजपा के लोगों का मुंह काला किया कि आप बैठे-बैठे क्या कर रहे हो, तब जा कर उसे होश आया और औपचारिक रूप से न्यास प्रशासन के खिलाफ ज्ञापन दिया। उसमें भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई खास सबूत नहीं दिए, केवल भाजपा शासन काल में शुरू हुए विकास कार्यों के ठप्प होने की शिकायत की। डॉ. जयपाल के नेतृत्व में चंद वरदायी नगर की जमीन के मामले में भी उनकी शिकायत भी जोर-शोर से उठाई गई और उस पर जांच चल रही है। न्यास से जुड़े ये मामले अभी शांत ही नहीं हुए कि एक दिन पहले डॉ. जयपाल के खासमखास सेनानी ने आवासन मंडल पर धावा बोल दिया और वहां व्याप्त अव्यवस्थाओं को लेकर अधिकारियों को जम कर खरी खोटी सुनाई। अमूमन अपने राज में किसी भी पार्टी के लोग प्रशासन की पोल नहीं खोलते कि इससे सरकार बदनाम होगी, मगर डॉ. जयपाल लॉबी ने उस अवधारणा को समाप्त कर दिया है। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार उन्हीं की है और उसी की छत्रछाया में काम कर रहे प्रशासन को खींच कर रख रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें प्रशासन को ठीक से चलाने का राज समझ में आ गया है।
शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011
हंसना, न हंसना भी बन गया मंजू राजपाल की योग्यता होने का मापदंड ?

कैसी विडंबना है कि अजमेर की जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल की रिजर्व नेचर और उनका हंसना अथवा न हंसना भी उनकी योग्यता का मापदंड बन गया है। अखबारों में चर्चा है कि अजमेर गणतंत्र दिवस समारोह के नीरस होने पर नाराजगी जता चुकी पर्यटन मंत्री श्रीमती बीना काक ने जयपुर जा कर इस बात पर भी अफसोस जताया कि श्रीमती राजपाल हंसती नहीं हैं। कदाचित ऐसा इसलिए हुआ प्रतीत होता है कि जब श्रीमती काक ने सार्वजनिक रूप से समारोह के आकर्षक न होने की शिकायत की तो भी श्रीमती राजपाल ने अपने निवास पर आयोजित गेट-टूगेदर में उनकी अतिरिक्त मिजाजपुर्सी नहीं की। यदि वे खीसें निपोर कर खड़ी रहतीं तो कदाचित श्रीमती काक उन्हें माफ कर देतीं, मगर शायद वे उनके व्यवहार की वजह से असहज हो गई थीं। इसके अतिरिक्त स्थानीय नेताओं ने ही श्रीमती काक को इतना घेर रखा था कि श्रीमती राजपाल उनसे दूर-दूर होती रहीं। इसकी एक वजह ये भी रही कि श्रीमती काक के इर्द-गिर्द बैठे नेताओं में से एक ने भी श्रीमती राजपाल को कुर्सी ऑफर नहीं की और कुछ देर खड़े रहने के बाद वे दूर जा कर अन्य अधिकारियों से बात करने लग गर्इं। कदाचित उन्हें ये लगा हो कि कांग्रेसी मौका देख कर अपनी आदत के मुताबिक मंत्री महोदया के सामने जलील न कर बैठें।
खैर, बात चल रही थी श्रीमती राजपाल के न हंसने की, तो यह और भी दिलचस्प बात है कि इसी मुद्दे पर जिले के तीन विधायक उनकी ढाल बनने की कोशिश करते हुए तरफदारी कर बैठे। उनका मजेदार तर्क देखिए कि श्रीमती राजपाल एक संजीदा महिला हैं और जरूरत होने पर ही हंसती हैं। वाकई ये खुशी की बात है कि जिले के विधायक कितने जागरूक हैं कि उन्हें चंद दिनों में ही मैडम राजपाल के मिजाज का पता लग गया है। मगर अपुन कुछ और ही राय रखते हैं। अपना तो यही कहना है कि यह विडंबना ही कही जाएगी कि जिला कलेक्टर जैसे महत्वपूर्ण और जिम्मेदारी वाले पद पर बैठी अफसर का हंसना या न हंसना भी राजनेताओं के बीच बहस का मुद्दा बन गया है।
लो बंटने लग गईं रेवडिय़ां, कांगे्रसियों में जोश
दो साल के इंतजार के बाद आखिरकार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपनी रेवडिय़ों की पोटली आखिर खोल ही दी। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. सी. पी. जोशी सहित कुछ नेताओं की सार्वजनिक रूप से जाहिर की गई नाराजगी और कार्यकर्ताओं के मन में बढ़ते जा रहे गुबार को देखते हुए आखिरकार गहलोत ने रेवडिय़ां बांटने का सिलसिला शुरू कर दिया है। हालांकि बीस सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति के उपाध्यक्ष पद पर पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती की नियुक्ति काफी पहले ही हो गई थी, मगर उस समिति में कुछ और कार्यकर्ताओं के नाम जोड़ कर उसे फिर नए सिरे से जारी कर दिया गया है। इसी प्रकार जन अभियोग व सतर्कता समिति में बिंदास नेत्री प्रमिला कौशिक सहित मदनलाल जाजोरिया व गोपाल मीणा का मनोनयन किया गया है। ऐसा माना जा रहा है कि अब एक के बाद एक समितियों और पदों की घोषणा होती जाएगी।
जैसे ही गहलोत ने लॉलीपॉप का पिटारा खोलना शुरू किया है, विभिन्न पदों के लिए लालायित कांग्रेस नेताओं में यकायक सक्रियता बढ़ गई है और वे अपने-अपने सूत्रों को पकड़ कर अपना नाम जुड़वाने के लिए जोर डालने लगे हैं। कई नेताओं ने तो जयपुर में ही डेरा डाल दिया है। हालांकि यह तय है कि जितनी भी नियुक्तियां होनी हैं, उनके नाम पहले से ही लगभग फाइनल किए जा चुके थे और उनमें अब कोई बड़ा फेरबदल नहीं होना है, मगर कोई भी नेता आखिरी वक्त तक चांस को खोना नहीं चाहता। क्या पता भागते भूत की लंगोटी ही पकड़ में आ जाए। कांग्रेसी मान रहे हैं कि आगामी 15 से 20 फरवरी तक अधिसंख्य नियुक्तियां कर दी जाएंगी, इस कारण भागदौड़ के आखिरी दौर में कोई भी नहीं चूकना चाहता। अजमेर के लिए सबसे महत्वपूर्ण पद न्यास सदर के लिए भी दावेदारों ने अपने-अपने आकाओं को हॉट लाइन से जोड़ लिया है। मजे की बात ये है कि प्रत्येक दावेदार को अन्य दावेदारों ने निपटाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है, मगर हर दावेदार अब भी पूरी तरह से आश्वस्त है। न्यासी के पदों के लिए भी कवायद तेज हो गई है। किसी को सीधे गहलोत का भरोसा है तो किसी को जोशी की सिफारिश का। देखना ये है कि किसे इनाम मिलता है और कौन वंचित रह जाता है।
जैसे ही गहलोत ने लॉलीपॉप का पिटारा खोलना शुरू किया है, विभिन्न पदों के लिए लालायित कांग्रेस नेताओं में यकायक सक्रियता बढ़ गई है और वे अपने-अपने सूत्रों को पकड़ कर अपना नाम जुड़वाने के लिए जोर डालने लगे हैं। कई नेताओं ने तो जयपुर में ही डेरा डाल दिया है। हालांकि यह तय है कि जितनी भी नियुक्तियां होनी हैं, उनके नाम पहले से ही लगभग फाइनल किए जा चुके थे और उनमें अब कोई बड़ा फेरबदल नहीं होना है, मगर कोई भी नेता आखिरी वक्त तक चांस को खोना नहीं चाहता। क्या पता भागते भूत की लंगोटी ही पकड़ में आ जाए। कांग्रेसी मान रहे हैं कि आगामी 15 से 20 फरवरी तक अधिसंख्य नियुक्तियां कर दी जाएंगी, इस कारण भागदौड़ के आखिरी दौर में कोई भी नहीं चूकना चाहता। अजमेर के लिए सबसे महत्वपूर्ण पद न्यास सदर के लिए भी दावेदारों ने अपने-अपने आकाओं को हॉट लाइन से जोड़ लिया है। मजे की बात ये है कि प्रत्येक दावेदार को अन्य दावेदारों ने निपटाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है, मगर हर दावेदार अब भी पूरी तरह से आश्वस्त है। न्यासी के पदों के लिए भी कवायद तेज हो गई है। किसी को सीधे गहलोत का भरोसा है तो किसी को जोशी की सिफारिश का। देखना ये है कि किसे इनाम मिलता है और कौन वंचित रह जाता है।
गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
क्या संघ देवनानी-अनिता जंग की वजह से भट्टे बैठी भाजपा का उद्धार करेगा?
इन दिनों संघ प्रमुख मोहन भागवत की मौजूदगी में संघ नेताओं के जमघट का फायदा उठा कर भाजपा व संघ के कुछ नेता इस कोशिश में लगे हैं कि जिन दो विधायकों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल की वजह से पार्टी का भट्टा बैठा हुआ है, उनकी ढ़ेबरी टाइट करवाई जाए, जर्जर हो चुके संगठन का उद्धार हो सके। संयोग से उन्हें दोनों की जंग को उजागर करने का मौका भी मिल गया है। इधर संघ का जलसा चालू हुआ और उधर यह समाचार आया कि शहर भाजपा अध्यक्ष पद के लिए पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत का नाम फाइनल हो गया है। साथ में यह भी उजागर हुआ है कि उनके नाम पर मजबूरी में सहमति इसी कारण बनाई गई है क्योंकि अन्य सभी पात्र दावेदारों पर दोनों विधायक राजी नहीं हैं। इसी को मुद्दा बना कर संघ के जुड़े कुछ नेता फिर सक्रिय हो गए हैं। हालांकि उन्होंने रावत का नाम तय न होने देने के लिए पहले भी पूरी ताकत लगा दी थी, लेकिन उनकी चली नहीं। अब जब कि संघ प्रमुख मोहन भागवत अजमेर प्रवास पर हैं तो वे इसका फायदा उठाना चाहते हैं। उनका प्रयास है कि संघ के बड़े पदाधिकारियों से जोर लगवा कर प्रो. बी. पी. सारस्वत के अध्यक्ष बनाने के आदेश जारी करवा दें।
यहां उल्लेखनीय है कि दोनों विधायकों की लड़ाई को देखते हुए ही कभी अजमेर भाजपा के भीष्म पितामह रहे औंकारसिंह लखावत के प्रयासों से आखिरी विकल्प के रूप में प्रो. रावत के नाम पर सहमति बनाई गई है। ऐसे में प्रो. सारस्वत की पैरवी करने वाले संघ के लोगों का कहना है कि जिन विधायकों की आपसी लड़ाई के कारण शहर भाजपा का भट्टा बैठा है, क्या अब भी उनकी सहमति को तवज्जो दी जाएगी। शिकायत पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से भी की गई है कि क्या केवल उन्हीं दो विधायकों से पूछ कर सब कुछ तय किया जाएगा, जिनकी वजह से पार्टी को मेयर के चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा, और क्या कार्यकर्ता की नहीं सुनी जाएगी?
ज्ञातव्य है कि शहर की दोनों विधानसभा सीटों पर काबिज प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल भले ही लगातार दूसरी बार चुनाव जीत कर विधानसभा में भाजपा के आंकड़े में दो का इजाफा करने का श्रेय रखते हों, मगर भाजपा कार्यकर्ताओं का तो यही मानना है कि अजमेर में पार्टी संगठन का बेड़ा गर्क करने के लिए ये दोनों ही जिम्मेदार हैं। इन दोनों में से कौन ज्यादा जिम्मेदार है, इसका आकलन जरूर कठिन है, मगर जहां तक संगठन में गंदगी फैलाने की वजह से खिलाफत का सवाल है, वह देवनानी की कुछ ज्यादा ही हो रही है। इसकी वजह ये है कि अधिसंख्य भाजपा नेता, चाहे कुंठा की वजह से, चाहे देवनानी के व्यवहार की वजह से अथवा वैश्यवाद की वजह से, देवनानी के खिलाफ खम ठोक कर खड़े हंै। पार्टी के अधिसंख्य नेताओं का मानना है कि गुटबाजी तो औंकारसिंह लखावत और श्रीकिशन सोनगरा के बीच भी थी। स्वर्गीय वीर कुमार की भी लखावत से नहीं बनती थी। सबको पता था। मगर कोई कुछ नहीं बोलता था। देवनानी व भदेल के बीच जैसी जैसी जंग है, वैसी पूर्व में कभी नहीं रही। पार्टी बाकायदा दो धड़ों विभाजित हो रखी है। उनकी लड़ाई की वजह से ही पार्टी हाईकमान ने संगठन की स्थानीय इकाई को दरकिनार करके नगर निगम चुनाव में टिकट वितरण के अधिकार दोनों विधायकों को दे दिए थे। परिणामस्वरूप अनेक टिकट गलत बंट गए। संगठन पूरी तरह से गौण हो गया और दोनों विधायक अपने-अपने चहेते प्रत्याशियों को जितवाने में जुट गए। नतीजतन मेयर पद के प्रत्याशी डॉ. हाड़ा अकेले पड़ गए। न तो विधायकों ने उनकी मदद की और न ही संगठन ने। संगठन तो था ही नहीं। केवल पूर्व उपमहापौर सोमरत्न आर्य डॉ. हाड़ा को लेकर घूमते रहे। और एक जिताऊ व साफ-सुधरी छवि का नेता शहीद हो गया। इसका मलाल संगठन के सभी समझदार नेताओं व कार्यकर्ताओं को है। कुल मिला कर पार्टी के कार्यकर्ताओं को भारी पीड़ा है। वे यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि अब तो पार्टी हाईकमान किसी ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाएगा, जो देवनानी व भदेल गुट में बंटी पार्टी को एक करेगा, मगर पार्टी फिर उन्हीं के आगे नतमस्तक है।
यहां उल्लेखनीय है कि दोनों विधायकों की लड़ाई को देखते हुए ही कभी अजमेर भाजपा के भीष्म पितामह रहे औंकारसिंह लखावत के प्रयासों से आखिरी विकल्प के रूप में प्रो. रावत के नाम पर सहमति बनाई गई है। ऐसे में प्रो. सारस्वत की पैरवी करने वाले संघ के लोगों का कहना है कि जिन विधायकों की आपसी लड़ाई के कारण शहर भाजपा का भट्टा बैठा है, क्या अब भी उनकी सहमति को तवज्जो दी जाएगी। शिकायत पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से भी की गई है कि क्या केवल उन्हीं दो विधायकों से पूछ कर सब कुछ तय किया जाएगा, जिनकी वजह से पार्टी को मेयर के चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा, और क्या कार्यकर्ता की नहीं सुनी जाएगी?
ज्ञातव्य है कि शहर की दोनों विधानसभा सीटों पर काबिज प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल भले ही लगातार दूसरी बार चुनाव जीत कर विधानसभा में भाजपा के आंकड़े में दो का इजाफा करने का श्रेय रखते हों, मगर भाजपा कार्यकर्ताओं का तो यही मानना है कि अजमेर में पार्टी संगठन का बेड़ा गर्क करने के लिए ये दोनों ही जिम्मेदार हैं। इन दोनों में से कौन ज्यादा जिम्मेदार है, इसका आकलन जरूर कठिन है, मगर जहां तक संगठन में गंदगी फैलाने की वजह से खिलाफत का सवाल है, वह देवनानी की कुछ ज्यादा ही हो रही है। इसकी वजह ये है कि अधिसंख्य भाजपा नेता, चाहे कुंठा की वजह से, चाहे देवनानी के व्यवहार की वजह से अथवा वैश्यवाद की वजह से, देवनानी के खिलाफ खम ठोक कर खड़े हंै। पार्टी के अधिसंख्य नेताओं का मानना है कि गुटबाजी तो औंकारसिंह लखावत और श्रीकिशन सोनगरा के बीच भी थी। स्वर्गीय वीर कुमार की भी लखावत से नहीं बनती थी। सबको पता था। मगर कोई कुछ नहीं बोलता था। देवनानी व भदेल के बीच जैसी जैसी जंग है, वैसी पूर्व में कभी नहीं रही। पार्टी बाकायदा दो धड़ों विभाजित हो रखी है। उनकी लड़ाई की वजह से ही पार्टी हाईकमान ने संगठन की स्थानीय इकाई को दरकिनार करके नगर निगम चुनाव में टिकट वितरण के अधिकार दोनों विधायकों को दे दिए थे। परिणामस्वरूप अनेक टिकट गलत बंट गए। संगठन पूरी तरह से गौण हो गया और दोनों विधायक अपने-अपने चहेते प्रत्याशियों को जितवाने में जुट गए। नतीजतन मेयर पद के प्रत्याशी डॉ. हाड़ा अकेले पड़ गए। न तो विधायकों ने उनकी मदद की और न ही संगठन ने। संगठन तो था ही नहीं। केवल पूर्व उपमहापौर सोमरत्न आर्य डॉ. हाड़ा को लेकर घूमते रहे। और एक जिताऊ व साफ-सुधरी छवि का नेता शहीद हो गया। इसका मलाल संगठन के सभी समझदार नेताओं व कार्यकर्ताओं को है। कुल मिला कर पार्टी के कार्यकर्ताओं को भारी पीड़ा है। वे यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि अब तो पार्टी हाईकमान किसी ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाएगा, जो देवनानी व भदेल गुट में बंटी पार्टी को एक करेगा, मगर पार्टी फिर उन्हीं के आगे नतमस्तक है।
मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011
भाजपा व संघ ने वाकई सहयोग नहीं किया बाबा रामदेव की रैली का
जैसी कि आशंका थी, भाजपा व संघ ने योग गुरू बाबा रामदेव महाराज के आह्वान पर भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैली को सहयोग नहीं किया। हालांकि इक्का-दुक्का संघ-विहिप कार्यकर्ता जरूर व्यक्तिगत रूप से रैली में शामिल हुए, लेकिन संगठन स्तर पर भाजपा व संघ ने रैली से दूरी ही बनाए रखी। समझा जाता है कि दोनों ही संगठनों ने भीतर ही भीतर कार्यकर्ताओं को इस प्रकार का संदेश जारी कर दिया था कि वे इसमें भागीदारी नहीं निभाएं। हालांकि रैली के आयोजकों ने तैयारी बैठक में जब शहर के चुनिंदा लोगों को बुलाया तो उसमें अधिसंख्य संघ से जुड़े हुए लोग थे, लेकिन जैसे ही उन्होंने रैली के साथ अपने राजनीतिक एजेंडे का खुलासा किया, वे चौंक गए।
अजमेर आर्य समाज का गढ़ है और रैली को आर्य समाज ने जरूर समर्थन दिया क्योंकि बाबा रामदेव स्वयं आर्य समाज से जुड़े रहे हैं, लेकिन आम लोगों की बाबा रामदेव के प्रति श्रद्धा होने के बाद भी उन्होंने कोई रुचि नहीं दिखाई। रैली में जितने भी लोग थे, वे बाकायदा प्रयासों से बुलवाए गए थे। इस लिहाज से रैली औपचारिक रूप से तो सफल कही जा सकती है, मगर इस अभियान के प्रति आम आदमी का जुड़ाव होता दिखाई नहीं दे रहा है।
जहां तक रैली के उद्देश्य और प्रयास का सवाल है, बेशक सराहनीय है, मगर अन्य राजनीतिक दलों की ओर से, विशेष रूप से समान विचारधारा के भाजपा व संघ के दूरी बनाने का यह साफ मतलब निकाला जा रहा है कि वे इसे प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक पहल के रूप में देख रहे हैं। चूंकि बाबा रामदेव स्वयं यह घोषणा कर चुके हैं कि वे आगामी लोकसभा चुनावों में अपने प्रत्याशी खड़े करेंगे, भाजपा इस अभियान से सतर्क है। इसकी खास वजह ये है कि बाबा रामदेव से जुड़े अधिसंख्य लोग हिंदूवादी अथवा धार्मिक संगठनों के ही कार्यकर्ता हैं। अगर वे बाबा के प्रभाव में आ कर उनके साथ हो जाते हैं तो इससे उनके वोट बैंक में सेेंध पड़ जाएगी। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि योग को प्रतिष्ठा दिलाने वाले बाबा रामदेव योग सिखाते-सिखाते जैसे ही अपने आसन की खातिर राजनीतिक जाजम बिछाने लगे हैं, तब से भाजपा उनके प्रति चौकन्नी हो गई है। हालांकि यह सही है कि जब तक बाबा रामदेव केवल योग और आयुर्वेद की ही बातें कर रहे थे तो हिंदू मानसिकता से जुड़े संगठनों ने ही उनकी मदद की। कदाचित भाजपा को बाबा के इर्द-गिर्द जमा हो रही भीड़ का बाद में राजनीतिक लाभ मिलने का ख्याल रहा, मगर जैसे ही बाबा ने खुद की छत्रछाया में ही राजनीतिक दल बनाने की सोची, भाजपा परेशान हो उठी है। जहां तक आम आदमी का सवाल है तो वह योग के मामले में भले ही बाबा का अनुयाई हो, मगर राजनीतिक रूप से बाबा को सहयोग करेगा ही, यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। इसकी वजह ये है कि हर व्यक्ति का पहले से ही किसी न किसी राजनीतिक दल के प्रति झुकाव है और वह एकाएक बाबा की अपील पर उनके साथ शामिल नहीं जाएगा।
बहरहाल, बाबा ने रैली के जरिए आकलन कर ही लिया होगा। यह एक अच्छी शुरुआत तो कही जा सकती है, मगर जब पूरा राजनीतिक तंत्र ही भ्रष्टाचार, जातिवाद, बाहुबल व धन बल पर टिका हो, उनकी मुहिम को सफलता मिलना बेहद कठिन है।
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