जयपुर के मावठा तालाब को बीसलपुर के पानी से भरने पर नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन के ऐतराज करने पर कांग्रेस विचारधारा के सोनम किन्नर ने तो सियापा किया ही, अजमेर के दोनों भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल भी जाग गए हैं। असल में यह अजमेर जिले के सभी विधायकों की जिम्मेदारी है कि वे इस मामले पर एकजुट हो कर आगे आएं, मगर कांग्रेसी यदि पर्यटन मंत्री बीना काक से घबराते हों तो कम से कम भाजपा के विधायकों से तो उम्मीद की जा सकती है। जैन का बयान छपने के बाद भी जब देवनानी व अनिता चुप रहे तो आश्चर्य हुआ कि वे कैसे पीछे रह गए। हर छोटे-मोटे मुद्दे पर विज्ञप्ति जारी करने वाले इतने बड़े मुद्दे पर कैसे चूक गए? संभावना यही थी या तो वे विधानसभा सत्र के कारण व्यस्त होंगे या फिर सीधे विधानसभा में ही मामला उठाएंगे। ऐसा ही हुआ। देवनानी ने जहां विधानसभा अध्यक्ष के सामने 295 के तहत अर्जी लगाने की बात कही है, वहीं अनिता ने भी विरोध में बयान जारी किया है। बड़ी अच्छी बात है। मगर अहम सवाल ये है कि हमारे नेता सांप के चले जाने पर ही लाठी क्यों पीटते हैं? वस्तुत: जब राजस्थान पत्रिका में खबर छपी, तब जा कर हमारे नेताओं का होश आया कि अजमेर का हक मार कर मावठा तालाब भर दिया गया है। इससे साफ जाहिर है कि उन्हें पता ही नहीं लगा कि कब पानी ले लिया गया। इससे साबित होता है कि वे अपनी ओर से कोई खैर-खबर नहीं रखते। जब मीडिया जगाता है, तब जा कर जागते हैं। इस मामले में भी देवनानी व भदेल ने कोई अपनी ओर से पहल नहीं की है। वो तो चूंकि खबर राजस्थान पत्रिका में छपी थी और उसी पर धर्मेश जैन बोले तो वह पत्रिका का फॉलोअप बन गया। स्वाभाविक सी बात है कि संवाददाता ने उनसे संपर्क किया तो दोनों ने बयान दे दिया। अगर स्वतंत्र रूप से बयान जारी करते तो और अखबारों में भी बयान छपता। वैसे सच्चाई ये है कि ऐसे बयानों से होता जाता कुछ नहीं है। बस यह पता लगता रहता है कि हमारे नेता सोये हुए नहीं हैं। खैर, अब चूंकि वे सियापा कर रहे हैं तो उसका स्वागत किया ही जाना चाहिए। मगर एक सवाल आज भी मुंह बाये खड़ा है कि कभी अकेले धर्मेश जैन और कभी पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती, मौजूदा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल के या फिर किसी और के इस प्रकार सियापा करने से होता क्या है? विशेष रूप से भाजपा नेताओं का यह सवाल कभी पीछा नहीं छोड़ेगा, जब उनकी ही पार्टी की सरकार ने अजमेर के हक का पानी जयपुर को देने का फैसला किया था, तब क्या कर रहे थे? यह एक कड़वी सच्चाई है कि पिछली भाजपा सरकार के दौरान अजमेर जिले की भिनाय विधानसभा सीट के विधायक प्रो. सांवरलाल जाट ने जलदाय मंत्री रहते हुए बीसलपुर से जयपुर को पानी देने का फैसला होने दिया था। खैर, देखते हैं कि अब जब मावठा तालाब भरा जा चुका है तो देवनानी के लाठी भांजने से होता क्या है?
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बुधवार, 29 फ़रवरी 2012
...तो क्या अखबार में खबर छपने पर ही जागते हैं विधायक?
मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012
धर्मेश जैन के सुर में सुर मिलाया सोनम किन्नर ने
नगर सुधार न्यास, अजमेर के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ भाजपा नेता धर्मेश जैन के लिए ये बात जरूर पीड़ादायक हो सकती है कि जयपुर के मावठा तालाब को बीसलपुर के पानी से भरे जाने के मामले में ऐतराज करने पर उनका किसी भाजपाई ने साथ नहीं दिया। खासकर दोनों भाजपा विधायकों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल से तो उम्मीद की ही जानी चाहिए, जिनकी कि असल जिम्मेदारी है और वे आए दिन विज्ञप्ति जारी कर यह जिम्मेदारी निभाते भी हैं। संभव है विधानसभा सत्र शुरू होने के कारण वे व्यस्त हो गए हों या फिर विधानसभा में ही उठाएं। खैर, कोई बात नहीं। जैन को खुश होना चाहिए कि किसी भाजपाई ने न सही कांग्रेस विचारधारा के एक किन्नर सोनम ने उनके सुर में सुर मिलाया है। इस सिलसिले में सोनम ने बाकायदा एक बयान जारी किया है। दिलचस्प बात ये है कि सोनम को जैन का बयान इतना पसंद आया कि उसको ही हूबहू जारी कर दिया है। अपनी ओर से कुछ नया जोडऩे की जहमत नहीं उठाई है। वैसे भी जैन ने इतना परफैक्ट बयान जारी किया था कि उसमें कुछ जोडऩे-घटाने लायक था ही नहीं। बहरहाल, अजमेर वासियों के लिए यह खुशी बात है कि किसी जमाने में इलायची बाई की गद्दी के नाम से मशहूर इस शहर के एक जागरूक किन्नर ने भी अजमेर के प्रति दर्द का इजहार किया है। अजमेर वासियों और खासकर हमारे जनप्रतिनिधियों को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए कि जब एक किन्नर अजमेर के हित की बात कर सकता है तो वे क्यों नहीं? धर्मेश जैन से न सही, सोनम किन्नर से तो सबक लें, जिसके आगे-पीछे कोई नहीं है और उसका कोई स्वार्थ भी नहीं है, फिर भी जागरूक है। उन्होंने अपने नि:स्वार्थ होने का सबूत भी दिया है। जैसे ही उन्हें निगम का कामकाज पसंद नहीं आया, एक सेंकड में मनोनीत पार्षद पद को ठोकर मार दी। दीगर बात है कि वह अभी मंजूर हुआ है या नहीं। वैसे सुना है कि सोनम किन्नर अजमेर की सेवा करने के लिए विधानसभा चुनाव की तैयारी भी कर रहे हैं। जिस तेज रफ्तार से वे दौड़ रहे हैं, उससे लगता है कि वे और दावेदारों का पीछे छोड़ देंगे। अगर वे अजमेर के विधायक बन जाते हैं तो यह अजमेर के लिए निस्संदेह गौरव की बात होगी कि उनके जरिए अजमेर को उसकी पुरानी पहचान फिर हासिल हो गई जाएगी। यदि हमारे नेतागण कुछ नहीं कर पाते तो इससे बेहतर है कि सोनम किन्नर ही विधायक बन जाएं, कम से कम वे असली तो हैं।
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जैन साहब, जरा जाट साहब को भी उलाहना दे दीजिए

सच्चे अजमेरवासी के नाते नगर सुधार न्यास, अजमेर के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ भाजपा नेता धर्मेश जैन ने जयपुर के मावठा तालाब को बीसलपुर के पानी से भरे जाने पर कड़ा ऐतराज किया है। उनका ऐतराज बेशक वाजिब है। विशेष रूप से अजमेर के लिए ही बनी बीसलपुर पेयजल परियोजना से अभी अजमेर की ही प्यास नहीं बुझी है, ऐसे में पर्यटन की दृष्टि से जयपुर के एक तालाब को भरना वाकई दादागिरी ही है। जैन का यह सुझाव भी अच्छा है कि जब मावठा तालाब को भरा जा सकता है तो अजमेर के ही तीर्थराज पुष्कर व फॉयसागर को क्यों नहीं भरा जा सकता। मगर अहम सवाल ये है कि कभी अकेले धर्मेश जैन और कभी पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती, मौजूदा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल के या फिर किसी और के इस प्रकार सियापा करने से होता क्या है? माना कि जैन को अजमेर का दर्द है तो उस वक्त वे चुप क्यों थे, जब उनकी ही पार्टी की सरकार ने अजमेर के हक का पानी जयपुर को देने का फैसला किया था? यह एक खुली सच्चाई है कि पिछली भाजपा सरकार के दौरान अजमेर जिले की भिनाय विधानसभा सीट के विधायक प्रो. सांवरलाल जाट ने जलदाय मंत्री रहते हुए बीसलपुर से जयपुर को पानी देने का फैसला होने दिया था। तब जिले के आठ में से दो मंत्रियों सहित छह विधायक भाजपा के थे, औंकारसिंह लखावत को भी राज्यमंत्री का दर्जा हासिल था, मगर किसी ने कोई ऐतराज नहीं किया। सब की जुबान पत्थर की हो गई थी। कांग्रेस भी कोई सशक्त विरोध नहीं कर पाई। पुष्कर के विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती ने जरूर आवाज उठाई, मगर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की माफिक दब कर रह गई। फिर जब कांग्रेस की सरकार आई तो पिछली सरकार में किए गए फैसले के अनुरूप जयपुर को पानी दिया जाने लगा। तब कांग्रेसी विधायक तो चुप रहे ही, भाजपा के विधायक भी इस कारण सशक्त विरोध नहीं कर पाए क्यों कि उनकी सरकार के रहते ही जयपुर को पानी देने का फैसला किया गया था। अलबत्ता पूर्व विधायक डॉ. बाहेती ने जरूर हिम्मत जुटा कर अजमेर को ही पानी देते रहने की वकालत की। जैन साहब को याद होगा कि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा प्रत्याशी श्रीमती किरण माहेश्वरी की प्रेस कॉन्फेंस उन्हीं की होटल में हुई थी, तब बीसलपुर के पानी का सवाल उठाया गया तो जाट साहब गर्मी खा गए थे। उनसे कोई जवाब देते नहीं बना था। आपको याद होगा कि दो साल पहले गर्मी के दिनों में जब भारी किल्लत शुरू हुई तो अकेले गरीब सुदामा शर्मा को अजमेर का दर्द आया और वे जयपुर को पानी न देने के लिए धरने पर बैठ गए। उनकी एक सूत्रीय मांग ही यही थी। पूरे एक माह के धरने से बात नहीं बनी और इक्का-दुक्का सच्चे अजमेरी ही समर्थन देने आए तो उन्होंने अनशन शुरू कर दिया। कांग्रेस व भाजपा के किसी भी नेता ने उनका सहयोग नहीं किया। शहर के विकास की लंबी-चौड़ी बातें करने वाले सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों ने भी पचड़े में नहीं पडऩा चाहा। आखिरकार सुदामा शर्मा की तबियत बिगडऩे पर उन्हें मौसमी का पानी पिला कर उठा दिया गया। तब किसी शहरवासी को यह ख्याल नहीं आया कि सुदामा के नाम पर अजमेर ने एक अहम जंग में शिकस्त खा ली है। उस वक्त तो सभी ने सुदामा का परिहास किया, मगर आज उसी मुद्दे पर घडिय़ाली आंसू बहाए जा रहे हैं तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। जयपुर की छोडिय़े, जब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. चंद्रभान ने बीसलपुर के पानी पर टौंक का हक जताया था, तब भी उसका कोई खास विरोध नही हुआ था। बहरहाल, जैन साहब ने सवाल तो वाजिब ही उठाया है, हो भले ही लाजवाब, उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए।
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रविवार, 26 फ़रवरी 2012
दिनेश शर्मा ने डाला बांबी में हाथ, मंत्र किसी और ने पढ़ा

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष द्वारा घोषित शहर जिला कांग्रेस कार्यकारिणी को लेकर खुल कर विरोध के स्वर उठ चुके हैं, मगर बीते शनिवार कांग्रेस कार्यालय के बाहर किए गए दो घंटे के सांकेतिक सद्बुद्धि उपवास से तो यही जाहिर हुआ कि प्रत्यक्षत: जो चेहरे दिखाई दे रहे हैं, उनके पीछे कुछ चेहरे और भी हैं, जो विरोध में तो हैं, मगर सामने नहीं आना चाहते अथवा किसी वजह से सामने आ नहीं सकते। यही वजह है कि यह विरोध प्रदर्शन उतना सफल नहीं हुआ, जिसकी कि उम्मीद की जा रही थी। असंतोष उतना नहीं उभरा, जितना कि वास्तव में है। और उसकी खास वजह है स्थानीय सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट का खौफ। अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि पायलट का काटा पानी नहीं मांग पा रहा। ऐसे में आ बैल मुझे मार वाली हरकत करना घाटे का सौदा साबित हो सकता है।
यदि केवल खुल कर विरोध करने वाले पूर्व शहर कांग्रेस अध्यक्ष दिनेश शर्मा को प्रदर्शनकारियों का असली और एक मात्र लीडर माना जाए तो यह प्रदर्शन कम करके नहीं आंका जा सकता, ठीक-ठाक भीड़ थी, मगर इस प्रदर्शन के लिए उकसाने वालों की भूमिका की समीक्षा भी करें तो यह कुछ खास नहीं रहा। असल में उकसाने वाले रासायनिक क्रिया की तरह उत्प्रेरक की भूमिका अदा कर रहे हैं, जो हालांकि रासायनिक क्रिया तो करवा रहे हैं, मगर खुद उससे पूरी तरह से अप्रभावित रहना चाहते हैं। यह आसानी से समझा जा सकता है कि वे कौन लोग हैं। यदि उनकी पीछे से सक्रिय भूमिका न भी मानी जाए तो भी उनका समर्थन तो निश्चित रूप से है। उन्होंने दिनेश शर्मा को भगत सिंह बना कर पेश कर दिया है। यह ठीक वैसा ही जैसा कि सांप की बांबी में हाथ दिनेश शर्मा से डलवा दिया है और मंत्र पढऩे की भूमिका खुद अदा कर रहे हैं। उनकी दिलचस्पी इसमें उतनी नहीं कि कथित पात्र व योग्य लोगों को कार्यकारिणी में स्थान मिले, उनकी रुचि इसमें ज्यादा है कि रलावता का रायता ढोल दिया जाए। उन्हें रलावता के अध्यक्ष बनने से बड़ा भारी मरोड़ हैं। कार्यकारिणी तो बाद की बात है।
इनमें कुछ तो ऐसे हैं कि शुरू में तो खुल कर सामने आए और बाकायदा संवाददाता सम्मेलन में शिरकत की, मगर जैसे ही धरातल पर विरोध प्रदर्शन की नौबत आई तो ऐसे गायब हो गए, जैसे गधे के सिर से सींग। इनमें पूर्व उपाध्यक्ष राम बाबू शुभम, पूर्व पार्षद चंदर पहलवान, प्रेम सिंह, सत्यनारायण पट्टीवाला शामिल हैं। कदाचित उन्हें इस बात डर रहा कि ऐसा करने से निशाने पर आ जाएंगे या फिर उन्हें कोई लॉलीपॉप चुसवा कर चुप करवा दिया गया है। ऐसे में संदेह होता कि कहीं दिनेश शर्मा विरोध करने की हिम्मत जुटाने की वाहवाही ही लूटते रह जाएं और मलाई कोई और खा जाए।
शनिवार, 25 फ़रवरी 2012
वरिष्ठों का तो ख्याल करना ही होगा भगत जी

शहर के नसीराबाद रोड पर नौ नंबर पेट्रोल पंप से शताब्दी स्कूल तक बनने वाली सिक्स लेन सड़क के नगर सुधार न्यास की ओर से आयोजित शिलान्यास समारोह में शहर के तीन दिग्गज पूर्व विधायकों को तरजीह न देने पर उनका नाराज होना स्वाभाविक ही है। माना कि आज वे किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं हैं और संयोग से नए नेता कमल बाकोलिया, नरेन शहाणी भगत व महेन्द्र सिंह रलावता क्रमश: मेयर, न्यास अध्यक्ष व शहर कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान हैं, मगर इससे वरिष्ठ नेताओं की अहमियत कम नहीं हो जाती। केवल इतना ही नहीं कि वे वरिष्ठ हैं, आज भी उनका अपना वजूद है। वरिष्ठ होने के बाद वे कूड़ेदान में नहीं पड़े हैं, आज भी उनकी शहर में चलती है। शहर में ही क्यों, जयपुर-दिल्ली तक में उनकी चलती है। उतनी ही, जितनी पहले चलती थी। आज भी पुराने नेता और मंत्री उनको पूरा सम्मान देते हैं। कदाचित भगत, बाकोलिया व रलावता से ज्यादा। माना कि वर्तमान में अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट का तीनों नए नेताओं पर वरदहस्त है, मगर केवल उनके दम पर फूल कर कुप्पा होना ठीक नहीं है। भले ही पूर्व विधायकों की पायलट के सामने खास अहमियत नहीं हो, मगर नए नेताओं से तो ज्यादा वजूद रखते हैं। ऐसे में अजमेर में उनको नजरअंदाज करना अखरेगा ही। यह दीगर बात है कि पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती व डॉ. राजकुमार जयपाल ने खुल कर ऐतराज जाहिर नहीं किया, मगर पूर्व उप मंत्री ललित भाटी तो बिंदास हैं, उन्होंने जता दिया कि इस प्रकार नजरअंदाज करना गलत है। अब चूंकि कार्यक्रम न्यास की ओर से आयोजित किया गया था, तो उसकी जिम्मेदारी भी न्यास अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत की थी। हालांकि भाटी की शिकायत पर भगत ने अपने अफसरों को हिदायत दी कि आइंदा ख्याल रखें, मगर सच बात ये है कि ख्याल रखने की जिम्मेदारी खुद भगत की ही है। अफसर तो जाहिर तौर पर उसे ही सलाम करेंगे, जो कि वर्तमान में पोस्ट पर है। जो पोस्ट पर नहीं हैं, मगर दमदार हैं, उनका ख्याल तो भगत को ही रखना होगा। जीवन डोलर हींडा है, खासकर राजनीति तो है ही। इसमें जिसकी आज बारह बज रही है, उसकी कभी साढ़े छह भी बजेगी और जिनकी आज साढ़े छह बज रही है, उनकी बारह भी बजेगी। ऐसे में समारोह में मंच पर तीनों पूर्व विधायकों को न बुलाना भगत की भूल ही है। उन्हें कम से कम इतना तो समझना ही होगा कि जो आज मंच के सामने बैठे हैं, वे कभी फिर उनके बाप बन सकते हैं। बने न बनें, मगर उनकी मंच पर बैठने की आदत अभी गई नहीं है। उम्मीद है भगत आइंदा ख्याल रखेंगे। ताजा घटना से बाकोलिया व रलावता ने भी सीख ली ही होगी।
अजमेर सेंट्रल जेल बनाम केन्द्रीय अपराध षड्यंत्रालय

सजायाफ्ता बंदी के परिजन से रिश्वत लेने के मामले में अजमेर जेल के तत्कालीन जेलर जगमोहन सिंह को सजा सुनाते हुए न्यायाधीश कमल कुमार बागची ने जेल में व्याप्त अनियमितताओं पर टिप्पणी की कि अजमेर सेंट्रल जेल का नाम बदल कर केन्द्रीय अपराध षड्यंत्रालय रख दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। न्यायाधीश ने इस सिलसिले में संदर्भ देते हुए कहा कि समाचार पत्रों में यह तक उल्लेख आया है कि जेल में मोबाइल, कारतूस व हथियार बरामद हुए हैं और हत्या की सजा काट रहे मुल्जिम ने अजमेर जेल से साजिश रच कर जयपुर में व्यापारी पर जानलेवा हमला करवाया। जेल प्रशासन के लिए इससे शर्मनाक टिप्पणी हो नहीं सकती। अगर इसके बाद भी जेल में मोबाइल, कारतूस, हथियार व मादक पदार्थ मिलने का सिलसिला जारी रहता है तो इसका मतलब ये होगा कि जेल प्रशासन ने हम नहीं सुधरेंगे का प्रण ले रखा है। असल में यह पहला मौका नहीं है कि अजमेर जेल से आपराधिक गतिविधियों के संचालन का जिक्र आया हो। इससे पूर्व भी यह तथ्य खुल कर सामने आया था कि जेल में कैद अनेक अपराधी वहीं से अपनी गेंग का संचालन करते हुए प्रदेशभर में अपराध कारित करवा रहे हैं। इसके लिए बाकायदा जेल से ही मोबाइल का उपयोग करते हैं। कई बार मोबाइल बरामद भी हो चुके हैं। कारतूस व हथियार तक बरामद हुए हैं। जयपुर के टायर व्यवसायी हरमन सिंह पर गोली चलाने की सुपारी अजमेर जेल से ही ली गई। जेल में आरोपी आतिश गर्ग ने मोबाइल से ही पूरी वारदात की मॉनीटरिंग की। जब उसे पता लगा कि उसकी हरकत उजागर हो गई है तो उसने अपना मोबाइल जलाने की कोशिश की, जिसे जेल अधिकारियों ने बरामद भी किया। इससे पहले जेल में कैदियों ने जब मोबाइल के जरिए फेसबुक पर फोटो लगाए तो भी यह मुद्दा उठा था कि लाख दावों के बाद भी जेल में अपराधियों के मोबाइल का उपयोग करने पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकी है। अहम सवाल ये है कि आखिर जेलों में कैदियों के पास मोबाइल व हथियार आ कैसे जाते हैं? और अगर उनकी बरामदगी होने पर संबंधित अपराधी पर कार्यवाही होती है तो उसके साथ ही संबंधित दोषी जेल कर्मचारी के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज क्यों नहीं होता। सीधी सी बात है कि जेल से अपराध का संचालन होता है तो जितना दोषी अपराधी है, उतना ही जेल प्रशासन भी। ऐसे में जेल प्रशासन के खिलाफ भी आपराधिक मुकदमा दर्ज किया जाना चाहिए, क्योंकि उसकी लापरवाही और मिलीभगत से ही यह संभव हो पाता है। सवाल उठता है कि क्या जब भी जांच के दौरान किसी कैदी के पास मोबाइल मिला है तो उस मामले में इस बात की जांच की गई है कि आखिर किस जेल कर्मचारी की लापरवाही या मिलीभगत से मोबाइल कैदी तक पहुंचा है? क्या ऐसे कर्मचारियों को कभी दंडित किया गया है? कदाचित इसका जवाब फौरी विभागीय कार्यवाही करने के रूप में हो सकता है, मगर उसके बाद भी यदि यह गोरखधंधा जारी है तो इसका सीधा सा जवाब ये है कि जेल के कर्मचारियों की मिलीभगत से ही ऐसा हो रहा है। इससे यह भी साफ है कि सरकार भी इस मामले में गंभीर नहीं है। जेल के कर्मचारी अपराधियों से मिलीभगत करते हैं, मगर सरकार उनके खिलाफ कभी प्रभावी कार्यवाही नहीं कर पाई, इसी का परिणाम है कि जेल कर्मचारियों के हौसले इतने बुलंद हैं। अफसोसनाक है कि स्वयं जेल राज्य मंत्री रामकिशोर सैनी ने भी स्वीकार किया कि जेल में कैदी मोबाइल का उपयोग कर रहे हैं और उस पर अंकुश के लिए प्रदेश की प्रमुख जेलों में जैमर लगाए जाएंगे, मगर आज तक कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हो पाई है। जेल मंत्री का जेलों में जैमर लगवाए जाने की बात से स्पष्ट है कि वे अपराधियों के पास मोबाइल पहुंचने को रोकने में नाकाम रहने को स्वयं स्वीकार कर रहे हैं। उन्हें अपने जेल कर्मचारियों पर भरोसा ही नहीं है। एक अर्थ में तो वे यह स्वीकार कर ही रहे हैं कि जेल कर्मचारी अपराधियों से मिलीभगत करने से बाज नहीं आएंगे। सवाल ये है कि यदि जेल कर्मचारी इतने ही बेखौफ हैं तो सरकार यदि जैमर लगा भी देगी तो क्या वे जरूरत पडऩे पर जैमर निष्क्रिय नहीं कर देंगे। तब जेल मंत्री क्या करेंगे? इस न्यूज आइटम के साथ ऊपर दिया गया चित्र पूर्व जेल अधीक्षक प्रीता भार्गव का है, जिनके सामने जेल से बरामद मोबाइल पड़े हैं।
शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012
बाकोलिया जी, मदार गेट भी नो वेंडिंग जोन है

नगर निगम ने नो वैंडिंग जोन में लगाई गई गन्ने के रस की मशीनों को जब्त करने की कार्यवाही शुक्रवार को अंजाम दी। हालांकि विरोध तो हुआ, लेकिन सख्ती दिखाते हुए दौलत बाग, जेएलएन मार्ग और कलैक्ट्रेट के आसपास से छह मशीनें जब्त कर लीं। निगम के राजस्व अधिकारी प्रहलाद भार्गव का कहना रहा कि ये कार्यवाही अनवरत जारी रहेगी। किसी को भी कहीं भी मशीन लगाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। निगम की इस कार्यवाही का स्वागत किया जाना चाहिए कि उसे नो वेंडिग जोन का ख्याल तो आया। मगर सवाल ये है कि निगम को नो वेंडिग जोन घोषित मदार गेट की सुध क्यों नहीं आ रही?
यहां उल्लेखनीय है कि अजमेर के हितों के लिए गठित अजमेर फोरम की पहल पर बाजार के व्यापारियों की एकजुटता से एक ओर जहां शहर के सबसे व्यस्ततम बाजार मदारगेट की बिगड़ी यातायात व्यवस्था को सुधारने का बरसों पुराना सपना साकार रूप ले रहा है, वहीं नगर निगम की अरुचि और पुलिस कप्तान राजेश मीणा के रवैये के कारण नो वेंडर जोन घोषित इस इलाके को ठेलों से मुक्त नहीं किया जा पा रहा है। निगम व पुलिस एक दूसरे पर जिम्मेदारी डाल रहे हैं। पुलिस कप्तान राजेश मीणा यह कह कर ठेले वालों को हटाने में आनाकानी कर रहे हैं कि पहले निगम इसे नो वेंडर जोन घोषित करे और पहल करते हुए इमदाद मांगे, तभी वे कार्यवाही के आदेश देंगे। हालांकि उनका तर्क बेमानी है, मगर असल जिम्मेदारी तो निगम की है। वह चाहे तो खुद ही ठेलों का हटा सकती है। जरूरत हो तो प्रशासन से बात कर पुलिस की सहयोग ले सकती है। मदार गेट पर नो वेंडिंग जोन का बोर्ड लगा सकती है, मगर अज्ञात कारणों से चुप बैठी है। आश्चर्च है कि निगम के अधिकारियों को अन्य स्थानों के नो वेंडिंग जोन तो नजर आ रहे हैं, मगर मदारगेट की चिंता ही नहीं है। इससे संदेह होता है कि कहीं निगम के अधिकारियों व कर्मचारियों की पुलिस से कोई मिलीभगत तो नहीं है। ऐसा लगता है वे वहां की पैदा से हाथ नहीं धोना चाहते। इसे निगम आयुक्त कमल बाकोलिया को ही देखना होगा। निगम की इस नाकामी का जिम्मा आखिरकार उनका ही है। यह असफलता उन्हीं के खाते में जाती है।
इस मामले में संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा की भूमिका पर भी अफसोस होता है। वे सरकारी बैठकों में तो बहुत गुर्राते हैं और नियम विरुद्ध काम करने वालों को हड़काते हैं, मगर धरातल पर शरमा जाते हैं। माना कि वे अजमेर वासी होने के कारण अजमेर के प्रति दर्द रखते हैं और प्रयास भी करते हैं, मगर उस दर्द को दूर करने के लिए सख्त क्यों नहीं होते। नो वेंडिंग जोन घोषित करने में उनकी अहम भूमिका है, क्योंकि वे ही यातायात सलाहकार समिति के अध्यक्ष हैं। अब तो वे और पावरफुल हो गए हैं, प्रभारी सचिव का जिम्मा होने के कारण। अब तो अपनी ताकत का एक भले काम के लिए उपयोग कर ही सकते हैं। अजमेर की जनता को इंतजार है उनकी सख्ती का। उनके कागजी शेर बने रहने से अब ऊब होने लगी है।
सब जानते हैं कि अजमेर शहर में विस्फोटक स्थिति तक पहुंच चुकी यातायात समस्या पर अनेक बार सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर चिन्ता जाहिर की जाती रही है। प्रयास भी होते रहे हैं, मगर इस दिशा में एक भी ठोस कदम नहीं उठाया जा सका। जब भी कोशिश की गई, कोई न कोई बाधा उत्पन्न हो गई। इस बार अजमेर फोरम की पहल पर व्यापारी आगे आए तो उन्होंने तभी आशंका जाहिर कर दी थी कि वे तो खुद अस्थाई अतिक्रमण हटा देंगे, मगर ठेले वाले तभी हटाए जा सकेंगे, जबकि प्रशासन इच्छा शक्ति दिखाएगा। आशंका सच साबित होती दिखाई दे रही है। प्रशासनिक इच्छाशक्ति के अभाव में मदारगेट पर ठेले कुकुरमुत्तों की तरह उगे हुए हैं।
गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012
बीना काक को पटा ही लिया मंजू राजपाल ने

अजमेर। जिला कलैक्टर श्रीमती मंजू राजपाल ने पर्यटन, कला एवं संस्कृति, महिला एवं बाल विकास विभाग तथा अजमेर जिले की प्रभारी मंत्री श्रीमती बीना काक को आखिर पटा ही लिया। अब श्रीमती काक उनसे बेहद खुश हैं और उसका नतीजा है कि अजमेर जिले के तीन दिवसीय दौरे में वे उनको लगातार अपने साथ लेकर ही घूमती रहीं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि एक आईएएस अफसर अपनी गरिमा को त्याग कर मंत्री महोदया के पीछे अर्दली की तरह घूमती रहीं।
आपको याद होगा कि पिछले साल गणतंत्र दिवस पर पटेल मैदान में आयोजित समारोह के दौरान श्रीमती काक की इच्छा के अनुसार कार्यक्रम को शानदार तरीके से नहीं मनाने पर वे मंजू राजपाल से नाराज हो गई थीं। उनकी शिकायत थी कि उनके निर्देश के बाद भी जिला प्रशासन ने कोई ध्यान नहीं दिया। यही वजह रही कि समारोह के बाद परंपरागत रूप से जिला कलैक्टर निवास पर आयोजित गेट टुगेदर कार्यक्रम में श्रीमती राजपाल कटी-कटी सी रहीं। श्रीमती काक ने भी उनकी बजाय कांग्रेस के छुटभैये नेताओं को ज्यादा तवज्जो दी। असल में स्थानीय नेताओं ने ही श्रीमती काक को इतना घेर रखा था कि श्रीमती राजपाल उनसे दूर-दूर होती रहीं। श्रीमती काक के इर्द-गिर्द बैठे नेताओं में से एक ने भी श्रीमती राजपाल को कुर्सी ऑफर नहीं की। ऐसे में कुछ देर खड़े रहने के बाद अपने आपको असहज पा कर वे दूर जा कर अन्य अधिकारियों से बात करने लग गर्इं थीं।
तब अखबारों में यह भी चर्चा रही कि पर्यटन मंत्री श्रीमती काक ने जयपुर जा कर इस बात पर भी अफसोस जताया कि श्रीमती राजपाल हंसती नहीं हैं। तब ये माना गया था कि ऐसा इसलिए हुआ होगा कि जब श्रीमती काक ने सार्वजनिक रूप से समारोह के आकर्षक न होने की शिकायत की तो भी श्रीमती राजपाल ने अपने निवास पर आयोजित गेट-टूगेदर में उनकी अतिरिक्त मिजाजपुर्सी नहीं की। यदि वे खीसें निपोर कर खड़ी रहतीं तो कदाचित श्रीमती काक उन्हें माफ कर देतीं, मगर शायद वे उनके व्यवहार की वजह से असहज हो गई थीं। कदाचित उन्हें ये लगा हो कि मौका देख कर अपनी बिंदास आदत के मुताबिक मंत्री महोदया जलील न कर बैठें। इसी मसले पर एक दिलचस्प बात ये भी हुई थी कि जिले के तीन विधायकों ने उनकी ढाल बनने की कोशिश करते हुए उनकी तरफदारी की और तर्क दिया कि श्रीमती राजपाल एक संजीदा महिला हैं और जरूरत होने पर ही हंसती हैं। तब चर्चाओं में विडंबना जाहिर हुई थी कि अजमेर की जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल की रिजर्व नेचर और उनका हंसना अथवा न हंसना भी उनकी योग्यता का मापदंड बन गया है।
बहरहाल, ऐसा लगता है कि आईएएस की स्वाभाविक अकड़ वाली श्रीमती राजपाल ने जल्द ही समझ लिया कि प्रशासनिक राजनीतिकरण के जमाने में सम्मान से नौकरी करनी है तो मंत्री महोदया के सामने कुछ मिजाजपुर्सी के अंदाज में ही खड़ा होना पड़ेगा। उन्हें इस बात का इल्म हो गया कि हाई प्रोफाइल श्रीमती काक को किस तरह का व्यवहार पसंद है। इस गुर को उन्होंने जल्द ही अपना भी लिया। यही वजह रही कि इस साल आयोजित गणतंत्र दिवस समारोह में प्रभारी मंत्री के रूप में मौजूद श्रीमती काक को खुश करने में उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी। श्रीमती काक ने भी संतोष जाहिर किया। उसी से साफ हो गया था कि अब उनकी नाराजगी समाप्त हो गई है। अब श्रीमती काक को मंजू राजपाल इतनी पसंद हैं कि अपने तीन दिन के दौरे वे उन्हें हर जगह साथ ले कर ही घूमती रहीं। एक जिला कलैक्टर का इस तरह मंत्री के आगे-पीछे घूमना कइयों को अखरा भी। आखिरकार वे जिला कलैक्टर हैं और इस तरह अपने सारे शिड्युल छोड़ कर मंत्री के साथ ही घूमना चौंकाता ही है। मगर सब समझते हैं कि बीना काक जैसी हैंडल विथ केयर मंत्री को तो पटा कर ही रखने में फायदा है।
बुधवार, 22 फ़रवरी 2012
विरोध से घबरा कर जयपुर शिफ्ट की भाजयुमो बैठक
सोमवार, 20 फ़रवरी 2012
राजा शब्द का इस्तेमाल हाईकमान के निर्देशों को उल्लंघन
हाल ही शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता ने जब एक पारिवारिक शादी के कार्ड में अपने नाम के आगे राजा शब्द का विशेषण लगाया तो चर्चा का विषय हो गया। होना ही था। लोकतांत्रिक देश में अगर अब भी कोई अपने आपको राजा कहलाता है तो लोकतंत्र भक्तों को अटपला लगेगा ही। उससे भी बड़ी बात ये है कि वे उसी पार्टी के शहर जिला अध्यक्ष जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे हैं, जिसने पिछले विधानसभा चुनाव में राजा, महाराजा, राजकुमार, कुंवर शब्द से परहेज रखने का फरमान जारी किया था। यह दीगर बात है कि तक कांग्रेस के इस फरमान का विरोध भी हुआ था।
असल में यह मुद्दा वर्षों से चर्चित रहा है। राजस्थान क्षत्रिय महासभा के महासचिव व राजपूत स्टूडेंट यूथ ऑर्गेनाइजेशन के प्रदेशाध्यक्ष कुंवर दशरथ सिंह सकराय ने तो बाकायदा बयान जारी कर कहा था कि कांग्रेस राजपूत समाज के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है, लेकिन गत लोकसभा चुनाव में प्रथम बार राजा-महाराजाओं को प्रत्याशी बनाये जाने पर राजपूत समाज ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया है। राज्य के मुख्यमंत्री मानसिक तौर पर महाराजा, महारानी आदि शब्दों से पीडि़त है। अगर इन शब्दों से इन्हें पीड़ा है तो फिर क्यों चुनावों में पहले राजमहलों के दरवाजों पर दस्तक दी।
सकराय ने कहा कि शालीन राजपूत समाज के महाराजाओं को आज भी समाज के प्रति द्वेषता का व्यवहार नहीं है, यही कारण है कि उन्होंने गहलोत के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया और चुनावी समर में कांग्रेस के पक्ष में संसदीय सीटों पर विजयश्री दिलाई। इससे स्पष्ट होता है कि कांग्रेस यह स्वीकार कर चुकी है अगर किसी सीट पर विजय प्राप्त करती है तो महाराजाओं को टिकट दिया जाए। इतना सब होने के बावजूद गहलोत अपनी मानसिक कुण्ठा को अन्दर रखने में असफल रहे और हमारे समाज के प्रणेताओं के महाराजा उद्बोधन को पूर्णतया हटाने का फरमान जारी करवाया, यह समाज को कभी स्वीकार नहीं होगा।
उनका तर्क है कि राजपूत समाज में ठाकुर, कुंवर, कुंवरानी, बाईसा, जैसे शब्दों से उद्बोधन करना सांस्कृतिक परम्परा है, जिसका पट्टा राजूपत समाज को किसी राजनीतिक या सरकार से लेने की आवश्यकता नहीं है। ये हमारी सांस्कृतिक विरासत है। उसी प्रकार मुस्लिम समाज में नवाब, बेगम, शहजादी, शहजादा शब्दों का प्रचलन आम बोलचाल में संस्कृति का स्वरूप लिए हुए हैं।
कांग्रेस आम आदमी की पार्टी होने का दम भरती है तो चुनावों में महाराजाओं, नवाबों को प्रत्याशी क्यों बनाया, क्या उस समय शांमतशाही शब्दों से परहेज नहीं था। वास्तविक यह है कि कांग्रेस राजाओं-महाराजाओं के दम पर सीटें तो जीतना चाहती है, मगर उनकी लोकप्रियता व उनके सम्मान को पचा नहीं पा रही है। लोकतांत्रिक परंपरा की दृष्टि से चाहे जो कहा जाए, मगर सकराय के बयान में दम तो है। इसी तर्क को यदि रलावता के प्रकरण में जोड़ कर देखा जाए तो प्रासंगिक ही लगता है। राजपूतों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए यदि रलावता को अध्यक्ष बनाया जाता है तो उनके राजा शब्द के इस्तेमाल पर ऐतराज नहीं होना चाहिए।
सनद रहे... जारी है देवनानी वर्सेज एंटी देवनानी
शहर भाजपा अध्यक्ष के रूप में प्रो. रासासिंह रावत को अध्यक्ष बना कर पार्टी में चल रही गुटबाजी को समाप्त करने के गंभीर प्रयासों के बाद भी ऐसा प्रतीत होता है कि अब भी देवनानी वर्सेज एंटी देवनानी जारी है। देवनानी खेमा अपने अस्तित्व को हरवक्त स्थापित करने की कोशिश में रहता है, जबकि एंटी देवनानी खेमा देवनानी को निपटने की फिराक में ही रहता है।
हाल ही नगर निगम की साधारण सभा के लिए रणनीति में देवनानी खेमे को पूरी तरह से हाशिये में लाने के लिए सदन में बोलने के लिए शिवशंकर हेड़ा, अजीत सिंह, अनिता भदेल व संपत सांखला के ही नाम तय किए गए। ये सभी देवनानी विरोधी खेमे के माने जाते हैं। रणनीति बनाने के वक्त तो इस चालाकी पर चुप रह गए, मगर उन्होंने ठान ही ली कि मौका पड़ते ही वे भी बोलना शुरू कर देंगे। हुआ भी यही। उन्होंने सभा के स्थान को लेकर कांग्रेस को घेरने की कोशिश की। ठीक इसी प्रकार उनके ही शागिर्द नीरज जैन ने भी कई मसलों पर अपने चिर-परिचित उग्र तेवर दिखाए।
स्पष्ट है कि देवनानी खेमा इस प्रकार निपटाए जाने से नहीं निपटने वाला है। अपने वजूद की खातिर यह खेमा हर सीमा तक जा सकता है। उसी का परिणाम है कि एक ओर विधानसभा घेराव के राज्य स्तरीय कार्यक्रम की योजना बनाने के लिए अजमेर में प्रदेश युवा मोर्चा कार्यसमिति की बैठक हो रही है। वहीं युवा मोर्चा अध्यक्ष पद पर देवेंद्रसिंह शेखावत की नियुक्ति से नाराज चल रहे असंतुष्ट गुट ने कार्यसमिति बैठक का विरोध करने की चेतावनी दे दी है। असंतुष्ट खेमे के अनिल नरवाल तो खुल कर कह रहे हैं कि शेखावत की नियुक्ति से कार्यकर्ताओं में रोष है। मामला प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी की जानकारी में होने के बाद भी कोई हल नहीं निकाला गया है। प्रदेश अध्यक्ष ने नियुक्ति के समय उठे विवाद को यह कह कर ठंडा करने की कोशिश की कि लालकृष्ण आडवाणी की जनचेतना यात्रा के बाद इस मसले को सुलझाया जाएगा, लेकिन कुछ नहीं किया। यहां तक कि युवा मोर्चा महामंत्री प्रमोद सांभर की ओर से दी गई तथ्यात्मक रिपोर्ट पर भी कोई कार्रवाई नहीं की गई। यदि अध्यक्ष पद को लेकर कोई निर्णय नहीं किया गया तो पदाधिकारियों का विरोध किया जाएगा।
ज्ञातव्य है कि शेखावत के विरोध की मुहिम देवनानी खेमे के नितेश आत्रे को अध्यक्ष न बनाने के साथ शुरू हुई थी। बाद में कुछ और ताकतें भी इसमें शामिल हो गईं। लब्बोलुआब, देवनानी वर्सेज एंटी देवनानी का मुकाबला फिलहाल तो समाप्त होता नजर नहीं आता। जैसी कि जानकारी है, यह तब तक जारी रहेगा, जब तक कि देवनानी विरोधी खेमा देवनानी का टिकट नहीं कटवा लेता।
गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012
लो शुरू हो ही गया कांग्रेस कमेटी को लेकर विरोध
क्या ये वही बाकोलिया हैं?

नगर निगम की बुधवार को हुई साधारण सभा में मेयर कमल बाकोलिया को फुल फॉर्म में पार्षदों ने देखा तो उन्हें सहसा यकीन ही नहीं हुआ कि ये वही बाकोलिया हैं, जो इससे पहले हंगामा होने पर बैठक समाप्त कर पीछे के दरवाजे से भाग गए थे? आज नहले पर दहला मारने वाले क्या ये वही नौसीखिया राजनीतिज्ञ हैं, जो साधारण सभा में पार्षदों के सवालों के जवाब में केवल मुस्करा भर देते थे।
असल में इस बार साधारण सभा में बाकोलिया को तेवर कुछ ऐसे थे मानो शिलाजीत खा कर आए हैं। विपक्षी पार्षदों के एक भी सवाल पर वे जवाब देने से नहीं चूके। पहली बार लगा कि उन्हें अपने नगर के प्रथम नागरिक होने का भान हो चुका है और उसकी गरिमा का ख्याल रखते हुए कार्यवाही की कमान पर पूरी तरह से अपनी पकड़ रखते हुए पार्षदों को सदन की गरिमा बनाए रखने तक की सीख भी देते नजर आए। निगम में भाजपा की उमा भारती अर्थात भारती श्रीवास्तव ने जब पानी फैंकने की घटिया हरकत की तो बाकोलिया ने उन्हें झिड़क दिया। दिलचस्प वाकया तब पेश आया, जब विधायक अनिता भदेल से उनकी नोंकझोंक हुई। कभी जिन सभापति महोदया की बोलती बंद रहती थी, उसी ने जब बाकोलिया ने कटाक्ष किया कि मेयर साहब क्या अब भी कागज देखकर भाषण पढ़ोगे, इस पर बाकोलिया ने पलट कर वार किया कि आप भी तो सभापति रहने के दौरान कागज पढ़ कर ही भाषण देतीं थीं। गनीमत ये रही कि उन्होंने यह नहीं कहा कि वे तो पार्षदों का हो-हल्ला सुन कर रो पड़ती थीं। बाकोलिया ने न केवल नीरज जैन जैसे तेज तर्रार पार्षदों को खुल कर जवाब दिए, अपितु अपने पार्षदों पर भी नकेल कस कर रखी। कुल मिला कर बाकोलिया ने यह साबित करने की कोशिश की कि अब वे पहले वाले बाकोलिया नहीं हैं, जिन्हें महेन्द्र सिंह रलावता अंगुली पकड़ की चलाया करते थे।
वैसे एक बात है, बाकोलिया काफी देर से फॉर्म में आए हैं। उनको स्वर्गीय वीर कुमार वाली उस टीम की बेकिंग है, जो इस शहर को चलाने वालों में शुमार किए जाते हैं। शहर नब्ज पर हाथ रखने वालों के शागिर्द होने के बावजूद वे देरी से खुल कर सामने आए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे अब और मुखर होंगे। जब रोने-धोने से राजनीतिक जीवन शुरू करने वाली घरेलू महिला अनिता भदेल की जुबान आज कैंची की तरह चल सकती है तो मर्द हो कर बाकोलिया क्यों नहीं सीख सकते। तभी तो कहते हैं-करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। उम्मीद है कि अब बाकोलिया शहर के विकास के मामले में भी इसी प्रकार मुखर हो कर उभरेंगे।
न्यास सचिव जी, क्या कोई पहाड़ टूटने वाला है?

अजमेर नगर सुधार न्यास ने नगरीय विकास विभाग से मार्गदर्शन ले कर तय किया है कि नियमन के नए नियम नहीं आने तक कृषि भूमि के पुराने प्रकरणों का पुराने नियम के तहत ही निस्तारण किया जाएगा। इसके पीछे न्यास सचिव परमेश्वर दयाल का तर्क ये है कि सरकार ने हालांकि धारा 90 बी को लेकर विवाद खड़े होने की वजह से समाप्त कर 90 ए लागू कर दी है, मगर सरकार ने अभी तक इस बारे में गजट नोटिफिकेशन जारी नहीं किया और आदेश में तीन से चार माह का समय लगने की संभावना है, इसलिए लोगों की परेशानी को देखते हुए पुराने नियम से ही नियमन किए जाने का निर्देश हासिल किया है।
माना कि न्यास सचिव ने इस बारे में अपने स्तर पर कोई निर्णय नहीं किया है व उच्चाधिकारियों से निर्देश हासिल किया है, और इस प्रकार अपने हाथ बचा लिए हैं, मगर सवाल ये उठता है कि क्या आगामी तीन-चाह माह में न्यास पर कोई पहाड़ टूटने वाला है? ऐसी क्या वजह है कि वे नए नियम आने के लिए महज तीन-चार माह का इंतजार भी नहीं कर सकते? एक ओर तो हजारों नियमन प्रकरण कई साल से लटका कर रखे हैं और संबंधित लोगों को इसके बारे में कोई भी जानकारी तक नहीं देते। वे जूतियां घिसते-घिसते तंग आ चुके हैं। तब उन्हें लोगों की परेशानी याद नहीं आई और आज इतनी जल्दी है कि इस बारे में निर्देश हासिल किए जा रहे हैं। यहां उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार की ओर से भू-रूपांतरण से संबंधित विवादित धारा 90 बी को समाप्त करने के निर्णय पर नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन ने कड़ी प्रतिक्रिया करते हुए कहा था कि कांग्रेस सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में जम कर भ्रष्टाचार करने के लिए ही इसे लागू किया था। कांग्रेस ने न केवल अपने पिछले कार्यकाल, अपितु हाल के तीन वर्षों में भी इस धारा का जम कर दुरुपयोग किया और उसका लाभ भू माफियाओं को दिया गया।
जैन का तर्क ये भी था कि कांग्रेस सरकार इस का जम कर दुुरुपयोग कर रही थी, इसी कारण यह मामला हाईकोर्ट में पहुंचा। हाईकोर्ट ने 13 मई 2011 को 90 बी पर रोक लगा दी, ऐसे में कांग्रेस सरकार ने इसे हटाने का निर्णय मजबूरी में लिया है। यदि कांग्रेस सरकार इतनी ही ईमानदार है तो एक तो उसे इसे लागू नहीं करना चाहिए था और दूसरा ये कि दूसरी बार सत्ता में आते ही इसे हटा देना चाहिए था। उनके इस बयान से साफ है कि धारा 90 बी के तहत बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार किया गया और वह काफी विवादित हो चुकी थी, इसी कारण हाईकोर्ट ने उस पर रोक लगाई और सरकार को भी इसे हटाना पड़ा, ऐसे में नए नियम आने के लिए तीन-चार माह का इंतजार न करना साफ दर्शाता है कि दाल में जरूर काला है। जैन ने खुल कर यह आरोप भी लगाया कि पिछली कांग्रेस सरकार के दौरान नगर सुधार न्यास ने कस्टोडियन, स्कीम एरिया में काश्तकारों के लिए अधिग्रहीत की गई जमीन, आनासागर डूब क्षेत्र सहित नालों तक की जमीनों का नियमन कर दिया गया। इतने गंभीर आरोपों के बावजूद यदि न्यास हाईकोर्ट के प्रतिबंध को दरकिनार कर न्यास 90 बी के तहत नियमन करने के मूड में है, इसका मतलब जरूरी कुलड़ी में गुड़ फोड़े जाने की तैयारी हो रही है।
न्यास की नई व्यवस्था के बाद जैन की प्रतिक्रिया है कि यदि जिनके ले आउट प्लान सहित अन्य सभी कागजी कार्यवाही पूरी हो चुकी है, उसी का नियमन करेंगे, तो सवाल ये उठता है कि क्या वे मास्टर प्लान के तहत हैं? और अगर कुछ प्रकरणों को पुराने नियम के तहत नियमित करना ही है तो उनको सार्वजनिक करके उन पर आपत्तियां क्यों नहीं मांगी जातीं? एक अहम सवाल ये भी उठता है कि क्या इस बारे में न्यास अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत को जानकारी भी है? या फिर उन्हीं पर कुछ प्रभावशाली लोगों का दबाव है, इस कारण नए निर्देश हासिल किए गए हैं? कुल मिला कर मामला गंभीर है और आशंका है कि कहीं सीधे-सादे भगत इसमें फंस नहीं जाएं।
बुधवार, 15 फ़रवरी 2012
मामूली लापरवाही बनी लाठी-भाटा जंग का सबब

अजमेर शहर से सटा और पुष्कर घाटी की तलहटी में बसा छोटा सा गांव नौसर विद्युत प्रशासन की मामूली सी लापरवाही की वजह से लाठी-भाटा जंग का मैदान बन गया।
मामला बहुत गंभीर नहीं था, जितना कि लाठी-भाटा जंग से प्रतीत होता है। असल में नौसर गांव से बिजली की हाइटेंशन लाइन डालने का विरोध कर रहे लोगों ने गत नौ दिसंबर को राजस्थान विद्युत प्रसारण निगम के कर्मचारियों से हाथापाई की और काम रोक दिया था। पुलिस दल की मौजूदगी के कारण दोनों पक्षों में टकराव तो टल गया, लेकिन गुस्साए लोगों ने पथराव कर एक कर्मचारी को जख्मी कर दिया और वाहन के कांच तोड़ दिए। इस पर पुलिसकर्मियों ने लोगों को खदेडऩे के लिए हल्का बल प्रयोग किया था। इस मामले में क्रिश्चियन गंज थाना पुलिस ने विद्युत प्रसारण निगम के अधिकारी की रिपोर्ट पर गांव के लोगों के खिलाफ राजकार्य में बाधा डालने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया था। पुलिस कर्मी नौसर गांव पहुंचे और आरोपी रफीक और मोइन को हिरासत में लेकर जीप में बैठाकर थाने लाने लगे तो बवाल हो गया। नतीजतन सीआई राजेन्द्र सिंह सिसोदिया सहित कई पुलिस कर्मी व ग्रामीण घायल हो गए।
गांव वालों के विरोध की वजह ये थी कि वे नहीं चाहते थे कि गांव के कुछ मकानों के ऊपर से हाई टेंशन लाइन गुजारी जाए। वे इस बारे में विद्युत महकमे के अधिकारियों को बता भी चुके थे, मगर उन्होंने मामले की गंभीरता का अंदाजा नहीं लगाते हुए सुनवाई ही नहीं की। उधर महकमे का कहना है कि रिंग सिस्टम के लिए लाइन डालना जरूरी है। दो साल पहले जब सर्वे किया गया तो उस वक्त वहां मकान नहीं थे। अब कुछ मकान बन गए हैं, मगर लाइन काफी ऊपर से गुजारी जानी है। सवाल उठता है कि जब महकमे को जानकारी में आ चुका था कि अब पूर्व निर्धारित स्थान से ही लाइन डाली जाएगी तो मकान बीच में आएंगे तो उसने दुबारा सर्वे करने अथवा समझाइश करने का रास्ता क्यों नहीं निकाला। महकमे के इंजीनियरों के बयानों से ऐसा लगता है मानो समझाइश अथवा कोई और रास्ता निकालने का समय ही नहीं बचा था और उन्हें तुरंत लाइन डालनी थी, वरना अनर्थ हो जाता। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो मौके पर गई टीम के मुखिया ने उच्चाधिकारियों को मामले की ठीक से जानकारी दी ही नहीं और अगर दी तो उच्चाधिकारियों ने इसकी गंभीरता को नहीं समझा और एसी चैंबर में बैठे-बैठे ही आदेश जारी कर दिए। जब मामला आम जनता से जुड़ा हुआ था तो उसे गंभीरता से हैंडल किया जाना चाहिए था, मगर नौसर गांव वासियों के मिजाज को नहीं समझते हुए जबरन लाइन डालने की कार्यवाही की गई। इधर गांव वाले तो जिद पर अड़े ही थे, उधर पुलिस को भी बाय हुक एंड कुक लाइन डलवानी थी। और वही हुआ, जो कि आम तौर पर भीड़ में होता है। सब कुछ अनियोजित। उग्र भीड़ ने पुलिस की मौजूदगी में पथराव कर एक कर्मचारी को घायल कर दिया। जाहिर तौर पर मुकदमा दर्ज हुआ और जैसे ही पुलिस गांव से दो जनों को गिरफ्तार करके ले जाने लगी तो पूरा गांव एकजुट हो गया। फिर जो हुआ वह सब को पता ही है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस मामले में सीआईडी भी विफल रही कि उसे पता ही नहीं लगा कि अगर आरोपियों को इस प्रकार खुले आम गिरफ्तार करके ले जाया जाएगा तो बवाल होगा। क्रिश्चियनगंज थाने का रोल तो कहीं गलत नहीं लगता, मगर वह भी अनुमान नहीं लगा पाया। कुल मिला कर छोटी छोटी सी लापरवाहियों के कारण मामला इतना संगीन हो गया। और जब हुआ तो उस पर राजनीति होना लाजिमी ही है। गांव वालों के वोट लेने वाले पार्षद कमल बैरवा को भी गांव वालों के साथ खड़ा होना पड़ा। कुछ कांग्रेसी भी मौके पर आ गए। अब उन पर भी जिम्मेदारी आ गई है कि मामले को शांत करवाने के जतन करें।
मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012
लो इंटेक ने ढूंढ़ ही लिया अजमेर की स्थापना का दिन

हाल ही इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चर हेरिटेज (इंटेक) के अजमेर चैप्टर ने तलाश कर बता दिया कि अजमेर का स्थापना दिवस चैत्र नवरात्रि के प्रथम दिन 1112 को अजयराज चौहान ने की थी। इतना ही नहीं उसने गणना कर यह भी बता दिया है कि अजमेर का स्थापना दिवस इस साल आगामी 23 मार्च को है और प्रशासन से आग्रह किया गया है कि इस अवसर को उत्सव के रूप में मनाया जाए। हालांकि यह निर्णय अथवा घोषणा चूंकि चैप्टर की बैठक में की गई है, इस कारण इसका श्रेय संस्था को ही जाता है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि यह संस्था के संयोजक महेन्द्र विक्रम सिंह की ही खोजबीन है। वे ही अरसे से इसकी तलाश कर रहे थे।
अजमेर का स्थापना दिवस ढूंढ़ कर निकालना निश्चित रूप से ऐतिहासिक घटना है। अब तक एक भी स्थापित इतिहासकार ने इस बारे में स्पष्ट कुछ नहीं कहा है। यहां तक कि अजमेर के इतिहास के बारे में कर्नल टाड की सर्वाधिक मान्य और हरविलास शारदा की सर्वाधिक विश्वसनीय पुस्तक में भी इसका कोई उल्लेख नहीं है। मौजूदा इतिहासकार शिव शर्मा का भी यही मानना रहा है कि स्थापना दिवस के बारे में कहीं कुछ भी अंकित नहीं है। उन्होंने अपनी पुस्तक में अजमेर की ऐतिहासिक तिथियां दी हैं, जिसमें लिखा है कि 640 ई. में अजयराज चौहान (प्रथम) ने अजयमेरू पर सैनिक चौकी स्थापित की एवं दुर्ग का निर्माण शुरू कराया, मगर स्थापना दिवस के बारे में कुछ नहीं कहा है। इसी प्रकार अजमेर के भूत, वर्तमान व भविष्य पर लिखित पुस्तक अजमेर एट ए ग्लांस में भी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है।
सांस्कृतिक गतिविधियों में सर्वाधिक सक्रिय भाजपा नेता सोमरत्न आर्य और बुद्धिजीवी राजनीतिकों में अग्रणी पूर्व मंत्री ललित भाटी भी अरसे से स्थापना दिवस के बारे में जानकारी तलाश रहे थे। आर्य जब नगर निगम के उप महापौर थे, तब भी इसी कोशिश में थे कि स्थापना दिवस का पता लग जाए तो इसे मनाने की शुरुआत की जा सके। भाटी की भी यही मंशा रही। राजनीतिक क्षेत्र में स्थापित सरस्वती पुत्र पूर्व राज्यसभा सदस्य औंकार सिंह लखावत ने तो बेशक नगर सुधार न्यास के अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में सम्राट पृथ्वीराज चौहान स्मारक बनवाते समय स्थापना दिवस खोजने की कोशिश की होगी। लखावत जी को पता लग जाता तो वे चूकने वाले भी नहीं थे। इनमें से कोई भी आधिकारिक रूप से यह कहने की स्थिति नहीं रहा कि यह स्थापना दिवस है।
ऐसे में इंटेक की घोषणा का क्या आधार है, कुछ कहा नहीं जा सकता। उन्होंने जो खबर जारी की है, उसके साथ कोई दस्तावेजी प्रमाण नहीं दिया है। हां, इतना जरूर माना जा सकता है कि संस्था ने निर्णय दिया है कि 23 मार्च को स्थापना दिवस है। अब उसे कोई माने या नहीं। चूंकि इंटेक ने इस दिशा में पहल कर ही ली है तो इस मामले में रुचि रखने वालों को भी एक बार फिर पुरातात्विक संग्रहों को खंगालना चाहिए और सर्वसम्मति से कोई तिथि मान्य करनी चाहिए। यदि ऐसा हो पाता है तो यह अजमेर के लिए बहुत गौरव की बात होगी।
मेगा मेडिकल कैंप : पीछे रह गईं बातें
अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के भगीरथी प्रयासों से अजमेर में आयोजित मेगा मेडिकल कैंप संपन्न होने के बाद भी चर्चा का विषय बना हुआ है। लोग उसकी सफलता-असफलता की समीक्षा करने में लगे हैं।
असल में यह कैंप अजमेर के लिए ऐतिहासिक था और ऊंची सोच व तगड़े प्रभाव का परिणाम था। कैंप जिनता बड़ा था, और उसमें जितनी भीड़ उमड़ी, उसे देखते हुए अव्यवस्था तो होनी ही थी, मगर सब संभाल लिया गया। भाजपा ने स्वाभाविक रूप से राजनीतिक धर्म निभाते हुए उसमें रही खामियों की ओर ध्यान आकर्षित किया, मगर वह लकीर पीटने जैसा ही रहा। मोटे तौर पर उनमें दम था, मगर रहा औपचारिक ही। ठीक से गहराई में जा कर कोई एक्सरसाइज नहीं की गई, इस कारण वह बयान भर बन कर रह गया। उसने अपना प्रभाव नहीं छोड़ा।
जितना बड़ा आयोजन था, उतनी ही ऊंची सोच लेकर कैंप पर नजर नहीं रखी गई, इस कारण खामियां ठीक से उजागर नहीं हो पाईं। रहा जहां तक अखबारों का सवाल, जो कि पोस्टमार्टम के मामले में काफी तेज होते हैं, वे भी लगभग चुप ही रहे। कहीं-कहीं ऐसा भी लगा कि महिमामंडन तक करने से नहीं चूके। इसके पीछे वजह ये बताई जा रही है कि उन्हें विज्ञापनों के जरिए इतना खुश कर दिया गया था कि तिल का ताड़ बनाना उन्हें उचित नहीं लगा। लोगों, खासकर भाजपाइयों को इस बात का मलाल रहा कि कैंप में दम घुटने से महिला की मौत होने की खबर दी भी गई तो उभार कर नहीं। यानि कि उनकी दिली इच्छा पूरी नहीं की गई। कदाचित विरोधी इस फिराक में थे कि पत्रकार मेहनत करके कुछ उखाड़ कर लाएंगे तो उससे खेल लेंगे। मगर ऐसा हुआ नहीं, इस कारण उनका विरोध भी मुखर नहीं हो सका। कुछ ने बाकायदा गणितीय गणना कर तर्क दिया कि पंजीयन की संख्या सत्तर हजार बताई जा रही है, जो कि अविश्वनीय प्रतीत होती है, क्योंकि दो दिन में इतने लोगों का पंजीयन संभव ही नहीं हैं।
यदि यह मान भी लिया जाए कि गांवों से जिस तरह से लोग बसों में भर कर लाए गए, उन सभी को वास्तविक मरीज नहीं माना जा सकता, तो भी इतना तय है कि इसका लाभ भरपूर उठाया और आम जनता में कैंप के बारे में कोई गलत धारणा नहीं है। एक सवाल यह भी उठा कि कैंप के लिए इतना पैसा आखिर आया कहां से? किसी के पास इसका पुख्ता जवाब नहीं है। समझा जाता है कि कैंप के लिए अधिकांश पैसा स्पोंसर्स ने ही खर्च किया। ऐसे में अगर यह तर्क दिया जाता है कि उसी पैसे से नेहरू अस्पताल में जरूरी संसाधन जुटाए जा सकते थे, बेमानी है। इसकी वजह ये है कि कोई भी स्पोंसर समाज हित के साथ अपना हित भी देखता है। यदि यही पैसा सरकार ने लगाया होता तो यह सवाल उठाया जा सकता था। वैसे समालोचकों की इस बात में दम जरूर है कि इतने बड़े कैंप से पहले मरीजों को चिन्हित करने का काम बारीकी से और बड़े पैमाने पर किया जाता तो ज्यादा और वास्तविक लोगों को लाभ मिलता। दूसरा ये कि इसका ठीक से फॉलोअप भी होना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में कभी कोई ऐसा आयोजन हो तो उसमें इन बातों को ध्यान दिया जाएगा।
रविवार, 12 फ़रवरी 2012
सचिन की बादशाहत स्वीकार नहीं

स्वर्गीय राजेश पायलट की जयंती पर शुक्रवार को कांग्रेस कार्यालय में संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम की सूचना सभी कांग्रेसी नेताओं को दी गयी और समाचार पत्रों में भी प्रकाशित करवाई गयी, लेकिन पूर्व विधायक श्रीगोपाल बाहेती, पूर्व शहर कांग्रेस अध्यक्ष वरिष्ठ एडवोकेट जयराज जयपाल, डॉ. राजकुमार जयपाल, कुलदीप कपूर, फखरे मेाईन, महेश ओझा सहित कई नेताओं ने उसमें शिरकत करने की जरूरत महसूस नहीं की। कई पार्षद भी उपस्थित नहीं हुए। ऐस समझा जाता है कि उन्हें पायलट की बादशाहत पसंद नहीं है, मगर चूंकि शुरू से कांग्रेसी हैं, इस कारण हाशिये पर ही सही, चुपचाप बैठे हैं। एक समय था, जब इन्हीं का डंका बजता था, मगर क्या किया जाए, समय समय का फेर है, इसी का नाम अजमेर हैं। कांग्रेस कार्यालय में चर्चा थी कि स्वर्गीय राजेश पायलट केवल सचिन पायलट के पिता भर नहीं, बल्कि पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे हैं। अगर अजमेर के प्रमुख नेता और पार्षदों को अपने नेता को श्रद्धा सुमन अर्पित करने का समय नहीं है, तो ऐसे में कांग्रेस का हश्र क्या होगा।
यही सवाल जब शहर अध्यक्ष महेंन्द्र सिंह रलावता से किया गया तो उन्होंने अपनी राजनीतिक मजबूरी के चलते जो घुमा फिर कर जवाब दिया। हां, इतना जरूर है कि जिन नेताओं की निष्ठा सचिन पायलट से जुड़ी है, उन्होंने इस कार्यक्रम में मौजूद रह कर नंबर बढ़ाने की कोशिश की। कार्यक्रम में रलावता, नगर निगम मेयर कमल बाकोलिया, नगर सुधार न्यास अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत, पूर्व उप मंत्री और प्रदेश कांग्रेस कमेटी सचिव ललित भाटी, प्रमिला कौशिक, हाजी इंसाफ अली, सबा खान, प्रताप यादव आदि शामिल थे
रलावता ने जमाई चुनाव लडऩे के लिए जाजम
कार्यकारिणी का पोस्टमार्टम किया जाए तो इसमें शहर कांग्रेस की पुरातन धड़ेबाजी के लिहाज से पूर्व मंत्री ललित भाटी को तरजीह देते हुए प्रमिला कौशिक को उपाध्यक्ष बनाया गया है, जबकि पूर्व अध्यक्ष जसराज जयपाल व पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती गुट को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है। इसकी आशंका पहले से ही थी, क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव के समय से ही यह गुट पायलट के निशाने पर आ गया था। हालांकि नगर सुधार न्यास अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत का कोई निजी गुट नहीं है, लेकिन उनका एक भी आदमी नहीं लिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनसे कोई राय ली ही नहीं गई है। हालत ये है कि उनके सिंधी समाज के मात्र एक ही व्यक्ति राजकुमार तुलसियानी को स्थान मिल पाया है, वो भी मात्र कार्यकारिणी सदस्य के रूप में। तुलसियानी भी भगत के नहीं, बल्कि पायलट की निजी पसंद के हैं। उन्होंने की पायलट के चुनाव के दौरान अजयनगर में एक कोठी में ठहरने की व्यवस्था की थी। बाकी कांग्रेस में वह कोई जाना-पहचाना नाम नहीं है।
कार्यकारिणी पर विहंगम नजर डाली जाए तो साफ नजर आता है कि रलावता ने शतरंज की बिसात कुछ इस प्रकार बिछाई है कि आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट मांगने और टिकट मिलने पर उनका चुनाव लडऩा आसान हो जाए। ज्ञातव्य है कि वे पिछली बार टिकट हासिल कर ही चुके थे, मगर कांग्रेस के वैश्यवाद के चक्कर में पड़ जाने के कारण उनका नाम कट गया था। शहर अध्यक्ष बनने के बाद वे अपने आपको सबसे प्रबल दावेदार मानने लगे हैं। कार्यकारिणी गठन में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि न्यास सदर बनने के बाद अपनी टिकट पक्की मानने वाले भगत की दावेदारी कमजोर हो जाए। कार्यकारिणी में शायद की कोई ऐसा हो, जो कि अजमेर उत्तर सीट के प्रबलतम दावेदार भगत की पैरवी करे। गर कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें टिकट दे भी दिया तो इस कार्यकारिणी के दम पर तो उन्हें चुनाव लडऩे में पसीने छूट जाएंगे। रलावता ने एक बात का और ध्यान रखा है। वो यह कि वैश्यवाद की मुहिम चलाने वाले अग्रवाल समाज को भी पूरी तरह से दरकिनार किया है। यहां तक कि पायलट की सिफारिश पर पिछली कार्यकारणी में उपाध्यक्ष बनेे डॉ. सुरेश गर्ग का पत्ता साफ कर दिया गया है। डॉ. गर्ग को हटाने के पीछे वजह ये रही होगी कि कहीं वे न्यास सदर की तरह टिकट की भी दावेदारी न करने लग जाएं। अग्रवाल समाज से जय गोयल को लिया गया है, लेकिन वह कोई जाना-पहचाना नाम नहीं है। यहां उल्लेखनीय है कि अजमेर उत्तर सीट पर पिछली बार जंग सिंधी बनाम वैश्य को लेकर हुई थी। वैश्यों में भी अग्रवाल ही ज्यादा मुखर थे। इस नई कार्यकारिणी से दोनों को हाशिये पर रख दिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है रलावता पायलट के दिमाग में यह बात बैठाने में कामयाब हो गए हंै सिंधी व अग्रवाल परंपरागत रूप से भाजपा के साथ रहते हैं, अत: उन्हें तरजीह देने से कोई लाभ नहीं होगा।
कार्यकारिणी में एक विशेष बात ये है कि रलावता ने अपने यारों को पूरी तवज्जो दी है। कैलाश झालीवाल, राजनारायण आसोपा, राजेन्द्र नरचल, चंद्रभान शर्मा व विपिन बेसिल उनके रोजाना साथ उठने बैठने वाले लोग हैं। इससे भी अधिक रोचक बात ये है कि उन्होंने अंधा बांटे रेवड़ी, फिर फिर अपने को देय वाली कहावत को भी चरितार्थ कर दिया है। वरिष्ठ नेता प्रताप यादव को उपाध्यक्ष बनाया गया है, जबकि उनकी पत्नी श्रीमती तारा यादव को कार्यकारिणी सदस्य के रूप में फिट किया गया है। इसी प्रकार चंद्रभान शर्मा को शहर जिला सचिव बनाया गया है, जबकि उनकी पत्नी श्रीमती मंजू शर्मा को कोषाध्यक्ष पद से नवाजा गया है।
बहरहाल, देखना ये है कि नई कार्यकारिणी बनने के बाद क्या डॉ. श्रीगोपाल बाहेती, जयराज जयपाल, नरेन शहाणी भगत व डॉ. सुरेश गर्ग वाकई चुप बैठ जाते हैं?
मेगा मेडिकल कैंप : जितने मुंह, उतनी बातें

जाहिर तौर पर यह कैंप अजमेर के लिए ऐतिहासिक है। इतने बड़े पैमाने पर न तो आज तक ऐसा कैंप लगा और न ही किसी ने कल्पना तक की। पायलट ने न केवल कल्पना की, अपितु उसे साकार तक किया। सब जानते हैं कि पायलट न केवल केन्द्र सरकार में राज्य मंत्री हैं, अपितु कांग्रेस हाईकमान के काफी नजदीक भी हैं। उनका प्रभाव जयपुर से लेकर दिल्ली तक है। और यही वजह है कि जब उन्होंने ऐसे विशाल कैंप को आयोजित करने की पहल की तो राज्य सरकार की ओर से भी उनको पूरी तवज्जो मिली। पूरे संसदीय क्षेत्र का कांग्रेस कार्यकर्ता तो इससे जुड़ा ही, आम लोगों ने भी उसका लाभ उठाया। पायलट की इस प्रयास की जगह-जगह जम कर तारीफ हो रही है। और इसकी वजह ये है कि न तो उनसे किसी ने ऐसी अपेक्षा की थी और न ही किसी की कल्पना की सीमा तक सोचा जा सकता था। हमारा अनुभव तो ये था कि अजमेर का सांसद या तो आचार्य भगवान देव व विष्णु मोदी की तरह या तो जीतने के बाद दिल्ली जा कर बस जाता है, या फिर प्रो. रासासिंह रावत की तरह सदैव अजमेर में सहज सुलभ उपलब्ध तो रहता है, मगर कुछ कर नहीं पाता। राजनीति से परे हट कर बात की जाए तो ऐसे सांसदों की तुलना में बेशक पायलट उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं।
यह तो हुआ सिक्के का एक पहलु। ऐसे भी लोग हैं, जो इसमें भी मीनमेख निकाल रहे हैं। या तो उनको मीनमेख निकालने की बीमारी है, या फिर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की वजह से। अमूमन हर मुद्दे पर बयान देने के आदी अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी तो इस बार चुप रहे, मगर अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने इस रूप में टीका टिप्पणी की कि भारी धनराशि खर्च करके इतना बड़ा कैंप लगाने की बजाय जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में कोई स्थाई कार्य किया जाता तो बेहतर रहता, जिसका कि आम लोगों को लंबे अरसे तक लाभ मिलता रहता। उनकी बात में कुछ दम तो है। संभाग के सबसे बड़े नेहरू अस्पताल में आज भी अति विशिष्ट चिकित्सा सेवाएं मौजूद नहीं हैं। उन पर ध्यान दिया ही जाना चाहिए। चौपालों पर भी यह चर्चा है कि वाकई जितना धन इस कैंप पर खर्च हो रहा है, उतने में तो कीमती से कीमती मशीनें नेहरू अस्पताल में लगाई जा सकती थीं। कुछ लोग ऐसे हैं जो केवल इसी पर ध्यान दे रहे हैं कि पैसा कैसे पानी की तरह बहाया जा रहा है। कुछ लोग कैंप में हो रही अव्यवस्थाओं को ही चिन्हित करने का काम कर रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह कैंप आम लोगों को कितना लाभ देगा, पता नहीं, मगर पायलट की वाहवाही ज्यादा होगी। अर्थात इसे वे वोट बढ़ाने का जतन भी मान रहे हैं। साथ ही ऐसे भी हैं जो कैंप के नकारात्मक पहलु पर ही नजर रखने वालों को ताना मारते हैं कि आपका तो हाजमा ही खराब है। रासा सिंह जैसे पांच बार रास आते हैं, मगर पायलट जैसा दिग्गज एक बार भी हजम नहीं होता। ऐसा ही होता है। सोच नकारात्मक हो तो उम्मीद से ज्यादा मिले तो वह भी पसंद नहीं आता। कोई सांसद कुछ न करे तो भी बुरा और काई कुछ करे तो उसमें भी बुराई ही नजर आती है। पायलट कुछ कर तो रहे हैं। कुछ इसी प्रकार के वाकये पर शायद यह कहावत बनी होगी-मुर्गी की जान गई और मियां जी को शिकायत है कि गर्दन टेढ़ी कटी है।
उधर समालोचकों का कहना है कि इतने बड़े कैंप से पहले मरीजों को चिन्हित करने का काम बारीकी से और बड़े पैमाने पर किया जाना चाहिए था। हालांकि कांग्रेस के कार्यकर्ता गांव-ढ़ाणी से मरीजों को लेकर आए हैं, मगर में चूंकि उनमें प्रोफेशनल एफिशियंसी नहीं है, इस कारण वास्तविक मरीजों की संख्या कम और घूमने आने वालों की संख्या ज्यादा रही। यदि यह काम चिकित्सा महकमे को ही पूरी तरह से सौंपा जाता तो कहीं बेहतर रहता। इसके अतिरिक्त जटिल रोगों से पीडि़त मरीजों की विभिन्न जाचें पहले ही करवा ली जानी चाहिए थी, ताकि विशेषज्ञों को उसका उपचार पर ही ध्यान केन्द्रित करना होता। एक शंका ये भी है कि दो दिन के कैंप में क्या-क्या किया जा सकता है। जटिल रोगों के मरीजों को तो कैंप के बाद उन्हीं विशेषज्ञों से संपर्क करना होगा, जो कि भारी राशि वसूलेंगे। अर्थात इससे विशेषज्ञों का ही लाभ ज्यादा होगा क्योंकि उनका क्लाइंटेज बढ़ेगा। शंका ये भी रही कि इस कैंप के बाद यदि उसका फॉलोअप ठीक से नहीं किया गया तो पूरी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। कुल मिल का जितने मुंह, उतनी बातें। पायलट की पहल पर हुए इस ऐतिहासिक शिविर की चर्चा कई दिनों तक रहेगी।
बुधवार, 8 फ़रवरी 2012
गहलोत जी, क्या जरा इधर भी ध्यान देंगे?
पलाड़ा दंपति को कांग्रेस राज में शाबाशी कोई कम बात नहीं

रविवार, 5 फ़रवरी 2012
लापरवाह पुलिस, बेपरवाह नेता

अजमेर की पुलिस यहां के नागरिकों के प्रति कितनी संजीदा और जिम्मेदार है, इसका पता लगा रविवार को बारहवफात के जुलूस के दौरान।
हुआ यूं कि बारहवफात का जुलूस जैसे ही सुभाष उद्यान की ओर आने लगा पुलिस ने सुभाष उद्यान की ओर जाने वाले सारे रास्ते सील कर दिए। कोटड़ा व पुष्कर की ओर से ऋषि घाटी की ओर जाने वाले चार पहिया वाहनों को रीजनल कॉलेज चौराहे और फॉयसागर पुलिस चौकी पर रोका जाने लगा और दुपहिया वाहनों को जाने की छूट दे दी गई। दुपहिया वाहन चालकों को ऋषि उद्यान के पास जाने पर पता लगा कि न केवल वैकल्पिक मार्ग को बंद किया गया है, अपितु गंज की ओर जाने वाला मार्ग भी सील है। कुछ देर तक तो उन्होंने इंतजार किया, मगर जब रास्ता नहीं खुला तो बहसबाजी हुई। आखिरकार पुलिस वालों ने व्यवस्था दी कि ये दोनों मार्ग चार बजे तक बंद रहेंगे, लिहाजा जिसे शहर में जाना है, वह रीजनल कॉलेज चौराहा व वैशाली नगर होते हुए जा सकता है। ऐसे में सभी पुलिस वालों को कोसने लगे कि अगर यहां पर रोकना ही था तो रीजनल कॉलेज चौराहे व फॉयसागर पुलिस चौकी पर ही क्यों नहीं रोक दिया गया। उन्हें कम से कम गोता तो नहीं खाना पड़ता। समय और पेट्रोल का नुकसान हुआ सो अलग। भिनभिनाते हुए वाहन चालक जब रीजनल कॉलेज चौराहे से मुड़ कर वैशाली नगर की ओर जाने लगे तो वहां भी जैन समाज के जुलूस के कारण रास्ता जाम हो रखा था।
सवाल ये उठता है कि क्या पुलिस को पहले से यह पता नहीं था कि बारहवफात व जैन समाज के जुलूस एक ही समय पर निकाले जाने हैं? जैन समाज का जुलूस तो चलो पंचकल्याणक के कारण इसी साल निकला, लेकिन बारहवफात का जुलूस तो हर साल निकलता है। यदि केवल जुलूस के दौरान ही यातायात बंद करने का विचार था, तब तो ठीक, मगर चार बजे तक बंद करने की योजना थी तो एक दिन पहले अखबारों के जरिए इसकी सूचना क्यों नहीं जारी की गई, जैसी कि दीपावली, 15 अगस्त, 26 जनवरी अथवा विशेष मौकों आदि के दौरान की जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस ने पहले से कुछ भी प्लानिंग नहीं की थी, तभी तो पहले वह वाहन चालकों को जुलूस को सुभाष उद्यान तक पहुंचने देने तक के लिए रोकती रही और बाद में यकायक नई व्यवस्था लागू करते हुए चार बजे तक का समय कर दिया गया। पुलिस की इस लापरवाही से आमजन को भारी परेशानी हुई। मगर लगता है कि पुलिस को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। चर्चा ये भी थी कि यातायात के डीवाईएसपी जयसिंह राठौड़ जैसे संजीदा, सौम्य और बुद्धिजीवी पुलिस अफसर के होते हुए यातायात व्यवस्था कैसे चौपट हो गई? मगर कहा जाता है न कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। जयसिंह राठौड़ के साथ भी यह लागू हो गया लगता है। लगता ये भी है कि अपने महकमे के सिस्टम के आगे उन्होंने भी हथियार डाल दिए हैं।
बहरहाल, ये सारी अव्यवस्था इस कारण भी है, क्योंकि हमारी नेता मंडली कमजोर है। वरना क्या मजाल कि आम जनता से जुड़े मसले पर पुलिस उन्हें नजरअंदाज कर दे। और नजरअंदाज का तो सवाल तब उठता है न, जब नेताओं ने नजर डाली हो। कांग्रेसी सत्ता के मद में चूर हैं और भाजपाई बयानबाजी करने में व्यस्त। रास्ते बंद होने और यातायात जाम होने के दौरान कोई नजर नहीं आया। अफसोस कि राष्ट्र की अस्मिता और बजट जैसे मुद्दों पर तो लंबे चौड़े बयान जारी करने की उन्हें सुध है, मगर सीधे जनता से जुड़ मुद्दों का उन्हें ख्याल ही नहीं रहता।
ठेले वालों को बचा रहे हैं पुलिस कप्तान?

अजमेर के हितों के लिए गठित अजमेर फोरम की पहल पर बाजार के व्यापारियों की एकजुटता से एक ओर जहां शहर के सबसे व्यस्ततम बाजार मदारगेट की बिगड़ी यातायात व्यवस्था को सुधारने का बरसों पुराना सपना साकार रूप ले रहा है, वहीं नगर निगम की अरुचि और पुलिस कप्तान राजेश मीणा के रवैये के कारण नो वेंडर जोन घोषित इस इलाके को ठेलों से मुक्त नहीं किया जा पा रहा है।
अंदरखाने की जानकारी यही है कि निगम व पुलिस में एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालने के कारण ही ठेले वाले नहीं हटाए जा पा रहे। एक-दूसरे की देखादेखी के चलते परिणाम ये है कि लोहे का सामान बेचने वाली औरतें आज तक नहीं हटाई जा सकी हैं। लोहे के जंगले में सीमित की गई सब्जी वालियां भी यदाकदा जंगले से बाहर आ जाती हैं। खतरा ये है कि कहीं व्यापारी अपनी पहल पर खुद को ठगा सा महसूस न करने लग जाएं।
बताया जा रहा है कि पुलिस कप्तान राजेश मीणा यह कह कर ठेले वालों को हटाने में आनाकानी कर रहे हैं कि पहले निगम इसे नो वेंडर जोन घोषित करे और पहल करते हुए इमदाद मांगे, तभी वे कार्यवाही के आदेश देंगे। उनका तर्क ये भी बताया जा रहा है कि पहले वेंडर जोन घोषित किया जाए, तब जा कर ठेले वालों को हटाया जाना संभव होगा। उधर निगम भी पंगा मोल नहीं लेना चाहता, वरना अब तक तो नो वेंडर जोन के बोर्ड लगा दिए जाते। असल बात ये है कि संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में गठित समिति मदार गेट को नो वेंडर जोन घोषित कर चुकी है। मीणा के तर्क के मुताबिक उसे निगम की ओर से नए सिरे से नो वेंडर जोन घोषित करने की जरूरत ही नहीं है। पुलिस को खुद ही कार्यवाही करनी चाहिए। रहा सवाल मीणा के पहले वेंडर जोन घोषित करने का तो स्वाभाविक रूप से जो इलाका नो वेंडर जोन नहीं है, वहीं वेंडर जोन है। अव्वल तो उनका इससे कोई ताल्लुक ही नहीं है कि ठेले वालों को नो वेंडर जोन से हटा कर कहां खड़ा करवाना है। उनके इस तर्क से तो वे ठेले वालों की पैरवी कर रहे प्रतीत होते हैं।
सब जानते हैं कि अजमेर शहर में विस्फोटक स्थिति तक पहुंच चुकी यातायात समस्या पर अनेक बार सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर चिन्ता जाहिर की जाती रही है। प्रयास भी होते रहे हैं, मगर इस दिशा में एक भी ठोस कदम नहीं उठाया जा सका। जब भी कोशिश की गई, कोई न कोई बाधा उत्पन्न हो गई। इस बार अजमेर फोरम की पहल पर व्यापारी आगे आए तो उन्होंने तभी आशंका जाहिर कर दी थी कि वे तो खुद अस्थाई अतिक्रमण हटा देंगे, मगर ठेले वाले तभी हटाए जा सकेंगे, जबकि प्रशासन इच्छा शक्ति दिखाएगा। आशंका सच साबित होती दिखाई दे रही है। प्रशासनिक इच्छाशक्ति के अभाव में मदारगेट पर ठेले कुकुरमुत्तों की तरह उगे हुए हैं। कहने वाले तो यह तक कहते हैं कि पुलिस के सिपाही ठेलों से मंथली वसूल करते हैं। यदि वे ठेलों को हटाते हैं तो उसकी मंथली मारी जाती है। कदाचित यह जानकारी पुलिस कप्तान को भी हो। देखते हैं इस आरोप से मुक्त होने के लिए ही सही, क्या वे कोई कार्यवाही करते हैं या नहीं?
सौ सुनार की, एक लुहार की

एक कहावत है-सौ सुनार की, एक लुहार की। इसे साबित कर दिखाया अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने। इसी माह शुरू होने वाले राजस्थान के आगामी बजट सत्र से पहले पिछली बजट घोषणाओं को पूरा न किए जाने के मसले पर महत्वपूर्ण प्रेस कॉन्फ्रेंस कर उन्होंने अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी से बाजी मार ली। वरना हर मसले पर बयान जारी करने में देवनानी अग्रणी रहते हैं।
असल में अपने आपको सक्रिय बनाए रखने या जताने के लिए देवनानी शहर व राज्य से जुड़े हर मुद्दे पर तुरंत बयान जारी कर देते हैं। इसके लिए उन्होंने बाकायदा सेटअप बना रखा है। खबर बनाते हैं और तुरंत अखबारों को मेल कर देते हैं। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि किसी मसले पर भाजपा की ओर से विज्ञप्ति जारी हुई और उसमें देवनानी का भी नाम था, मगर उन्होंने अपनी ओर से व्यक्तिगत विज्ञप्ति अलग से जारी कर दी। ऐसा प्रतीत होता रहा है मानो अनिता से ज्यादा देवनानी सक्रिय हैं। इस मामले में अनिता अमूमन फिसड्डी साबित हो जाती हैं। हां, अलबत्ता किसी प्रमुख मुद्दे पर जरूर अपने तीखे तेवर दिखाती हैं, जैसे पिछले दिनों के यूआईटी की तोडफ़ोड़ की कार्यवाही के विरोध में आसमान सिर पर उठा लिया। नतीजतन उनके खिलाफ राजकार्य में बाधा का मुकदमा दर्ज हो गया। बहरहाल, ऐसा प्रतीत होता है कि अनिता ने भी अब कमर कस ली है। वे किसी भी मामले में देवनानी से पीछे नहीं रहना चाहतीं। वैसे भी उन दोनों के बीच शुरू से ऐसी प्रतिस्पद्र्धा रही है, जैसी किसी कांग्रेस व भाजपा नेता के बीच होती है। यह तब से शुरू हुई, जब अनिता पिछले कार्यकाल में मंत्री बनते-बनते रह गईं। परिणाम ये रहा कि पूरे पांच साल तक रस्साकस्सी चलती रही।
खैर, अनिता को यकायक ख्याल आया कि आगामी बजट सत्र के मद्देनजर सरकार को घेरा जा सकता है और उन्होंने तुरत-फुरत में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दी। सवाल भी काफी अहम उठाए। उन्होंने जो बयान जारी किया, उससे यही प्रतीत हुआ कि उन्होंने पूरी मेहनत करके उसे बनाया है। उसे अखबारों में तरजीह भी अच्छी मिली। दमदार बात ये रही कि उन्होंने प्रेस कॉन्फेंस को व्यक्तिगत रूप से आयोजित करने की बजाय पार्टी मंच पर आयोजित किया। अस्वस्थ होने के कारण शहर जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. रासासिंह रावत की गैर मौजूदगी में वरिष्ठ उपाध्यक्ष अरविंद यादव और अन्य पदाधिकारियों ने भी अपनी उपस्थिति दिखाई। पार्टी बैनर के तले बजट जैसे महत्वपूर्ण विषय पर आयोजित प्रेस कॉफ्रेंस में शहर के ही दूसरे विधायक देवनानी की गैर मौजूदगी चौंकाने वाली थी। जाहिर तौर पर उन्हें नहीं बुलाया गया होगा अथवा बुलाया गया भी होगा तो देवनानी ने व्यस्तता बता दी होगी। भले ही पार्टी स्तर पर देवनानी को न बुलाने का कोई कारण विशेष न हो और यह एक सामान्य बात हो, मगर इससे आशंका यही उत्पन्न होती है कि कहीं उन्हें हाशिये पर लाने की कोशिश तो नहीं की जा रही है। खैर, यह पार्टी के अंदर का मामला है, अपुन को क्या?
शनिवार, 4 फ़रवरी 2012
शहर के विकास पर एकजुट क्यों नहीं?
दिलचस्प बात देखिए। मेयर कमल बाकोलिया के नेतृत्व में गृह राज्यमंत्री वीरेन्द्र बेनीवाल के सामने शिकायत करने गए तो एक ओर तो वे ये कहने लगे कि वे पुलिस अधीक्षक राजेश मीणा और कोतवाली थानाधिकारी राजेन्द्र सिसोदिया की भूमिका से तो संतुष्ट है, लेकिन सिविल लाइन थानाधिकारी खान मोहम्मद आदतन अपराधी को शह दे रहे हैं। सवाल ये उठता है कि जब खान मोहम्मद अपराधी को शह दे रहे हैं तो आखिर पुलिस अधीक्षक मीणा क्या कर रहे हैं? और यदि नहीं कर रहे हैं तो उनसे संतुष्टि किस बात की है? यदि संतुष्ट हैं तो फिर मंत्री जी को शिकायत क्यों कर रहे हैं? है न अजीब बात।
एक सवाल ये भी उठता है कि दोनों दलों के पार्षदों की घालमेल संभव कैसे हुई? स्वाभाविक सी बात है अभी कांग्रेसी पार्षद नौरत गुर्जर पर संकट है तो कांग्रेसियों को तो एक जुट होना ही है, चाहे अपने ही राज में प्रशासन से नाराजगी का मसला हो, मगर भाजपाई इस कारण साथ दे रहे हैं कि इससे कांग्रेस राज की कानून व्यवस्था चौपट होने की बात उजागर हो रही है। एक कारण ये भी हो सकता है कि कदाचित भविष्य में अगर कोई भाजपा पार्षद संकट में आया तब यह उम्मीद रहेगी कि कांग्रेसी भी उनका साथ देंगे। रहा सवाल राजनीति से हट कर बात करने का तो यह वाकई शर्मनाक है कि कोई अपराधी नेताओं को ही धमकियां दे सकता है तो आम आदमी की क्या हालत होगी? उसमें भी अफसोसनाक ये कि अपराधियों के खिलाफ कार्यवाही के लिए दोनों दलों के पार्षदों तक को एकजुट हो कर एडी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है तो सामान्य जन के लिए कानून व्यवस्था कितनी सुरक्षित है?
रहा सवाल खुद पर संकट आने पर एकजुट होने का तो यही एकजुटता इससे पहले अजमेर के विकास के लिए क्यों नहीं दिखाई? यानि कि अपने हित के लिए तो एकजुट हैं, मगर और मामलों में एकजुटता तो दूर, आपस में जूतम पैजार तक कर देंगे। वैसे यह एक सुखद बात है कि दोनों दलों के पार्षद एकजुट हो गए हैं। अब उम्मीद की जानी चाहिए कि अतिक्रमणों को हटाने के मामले और शहर के विकास के लिए भी वे कंधे से कंधा मिला कर चलेंगे।
शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012
अब डॉक्टर बाहेती की बारी है
कहते हैं कभी-कभी चाय से ज्यादा केतली गरम हो जाती है। ऐसा ही कुछ हुआ गुरुवार को। स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल की ओर से पूर्ववर्ती भाजपा सरकार पर भू-रूपांतरण से संबंधित विवादित धारा 90बी का दुरुपयोग करने का आरोप लगाए जाने पर जितना पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को उबलना था, उससे कहीं अधिक नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन फट पड़े।
जैन ने कड़ी प्रतिक्रिया करते हुए कहा है कि कांग्रेस सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में जम कर भ्रष्टाचार करने के लिए ही इसे लागू किया था और अब जबकि उस पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी है तो फिर भ्रष्टाचार करने के लिए बीच की गली निकालने कोशिश कर रही है। सरकार की गलती को छुपाने के लिए स्वायत्त शासन मंत्री शांति धारीवाल पूर्ववर्ती भाजपा सरकार पर झूठा और बेबुनियाद आरोप लगा रहे हैं। उनके आरोप में दम नजर आता है क्योंकि अगर इस धारा का भाजपा सरकार ने दुरुपयोग कर टकसाल बना लिया था और इसमें खामियां थीं तो कांग्रेस ने सत्ता में आते ही इसे हटा क्यों नहीं दिया? हाईकोर्ट के रोक लगाने पर ही धारा क्यों हटाई गई?
खैर, इस मुद्दे पर धारीवाल के बयान पर प्रदेश भाजपा क्या रुख अख्तियार करती है, ये उतना दिलचस्प नहीं है, जितना कि इस मुद्दे को लेकर पूर्व न्यास अध्यक्ष जैन का खुद को पाक साबित करना और बिना नाम लिए पूर्व न्यास अध्यक्ष डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को आरोपों के कटघरे में खड़ा करना। जैन ने नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष पद के अपने कार्यकाल का जिक्र करते हुए चुनौती दी है कि धारीवाल एक भी ऐसा मामला बताएं, जिसमें 90 बी के तहत नियमों की अनदेखी अथवा भ्रष्टाचार किया गया है। उन्होंने यह तक घोषणा की है कि अगर उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार का एक भी मामला साबित कर दिया जाता है तो वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे। सीधी सी बात है, हालांकि इस पर प्रतिक्रिया देने की जिम्मेदारी सीधे तौर पर वसुंधरा राजे अथवा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी की बनती है, मगर जैन ने धारीवाल के आरोप को सीधे तौर पर अपने ऊपर ले लिया है, तभी तो जवाबी हमला कर रहे हैं। वैसे इसमें बुराई भी क्या है? सांच को आंच नहीं। एक सिंधी कहावत है-सच त बीठो नच। अर्थात जो सच्चा है, वो खुले आम मस्ती में नाच सकता है। जैन भी अपने आप को सच्चा बताते हुए बेबाक बयानी कर रहे हैं।
जैन ने अजमेर का ही हवाला देते हुए आरोप लगाया है कि पिछली कांग्रेस सरकार के दौरान नगर सुधार न्यास के जरिए जम भ्रष्टाचार करते हुए इस धारा का खुला दुरुपयोग किया गया है। भ्रष्टाचार की पराकाष्टा इसी से साबित होती है कि कस्टोडियन, स्कीम एरिया में काश्तकारों के लिए अध्रिहीत की गई जमीन, आनासागर डूब क्षेत्र सहित नालों तक की जमीनों का नियमन कर दिया गया। यह सीधे सीधे तौर पर पूर्व न्यास अध्यक्ष डॉ. श्रीगोपाल बाहेती पर चलाया गया है। अब ये बाहेती की जिम्मेदारी है कि वे सामने आएं।